રામ કથા - 905
માનસ સરદ રિતુ – मानस सरद
रितु
મનાલી, હિમાચલ પ્રદેશ
શનિવાર, તારીખ 0૮/૧0/૨0૨૨
થી ૧૬/૧0/૨0૨૨
મુખ્ય ચોપાઈ
बरषा बिगत सरद रितु आई।
लछमन देखहु परम सुहाई॥
बरषा गत निर्मल रितु आई।
सुधि न तात सीता कै पाई॥
1
Saturday.
08/10/2022
बरषा बिगत सरद रितु आई। लछमन देखहु परम सुहाई॥
फूलें कास सकल महि छाई।
जनु बरषाँ कृत प्रगट बुढ़ाई॥1॥
हे लक्ष्मण!
देखो, वर्षा बीत गई और परम सुंदर शरद् ऋतु आ गई। फूले हुए कास से सारी पृथ्वी छा गई।
मानो वर्षा ऋतु ने (कास रूपी सफेद बालों के रूप में) अपना बुढ़ापा प्रकट किया है॥1॥
बरषा गत निर्मल रितु आई। सुधि न तात सीता कै पाई॥
एक बार कैसेहुँ सुधि जानौं।
कालुह जीति निमिष महुँ आनौं॥1॥
वर्षा बीत गई,
निर्मल शरद्ऋतु आ गई, परंतु हे तात! सीता की कोई खबर नहीं मिली। एक बार कैसे भी पता
पाऊँ तो काल को भी जीतकर पल भर में जानकी को ले आऊँ॥1॥
आयुर्वेदमें
शरद ॠतु को कई सामान्य रोगो की मा कहा हैं।
यह ॠतु रस और
रास की भी ॠतु हैं।
सुग्रीव विषयी जीव हैं।
ॠषिमुख पर्वत
संतो का पहाड हैं।
वाली कर्म हैं
जो ऋषिमुख पर्वत पर जा नहीं शकता हैं।
कथा ॠषिमुख
पर्वत हैं।
कर्म को श्राप
हैं कि वह सतसंग में नहीं जा शकता हैं।
कतहुँ रहउ जौं जीवति होई।
तात जतन करि आनउँ सोई॥
सुग्रीवहुँ सुधि मोरि बिसारी। पावा राज कोस पुर नारी॥2॥
कहीं भी रहे,
यदि जीती होगी तो हे तात! यत्न करके मैं उसे अवश्य लाऊँगा। राज्य, खजाना, नगर और स्त्री
पा गया, इसलिए सुग्रीव ने भी मेरी सुध भुला दी॥2॥
कई वीद्यावान
में विवेक नहीं होता हैं।
वर्षा ॠतु वियोग
और विरह – आंसु की ॠतु हैं।
लछिमन देखु मोर गन नाचत बारिद पेखि।
गृही बिरति रत हरष जस बिष्नुभगत
कहुँ देखि॥13॥
(श्री रामजी
कहने लगे-) हे लक्ष्मण! देखो, मोरों के झुंड बादलों को देखकर नाच रहे हैं जैसे वैराग्य
में अनुरक्त गृहस्थ किसी विष्णुभक्त को देखकर हर्षित होते हैं॥13॥
परम तत्व अनाम
हैं।
मूल मंत्र का
अर्थ नहीं हो शकता हैं, मूल मंत्र एक नाद हैं, एक ध्वनि हैं। अर्थ करने में हम थक जाते
हैं।
कलि बिलोकि जग हित हर गिरिजा।
साबर मंत्र जाल जिन्ह सिरिजा॥
अनमिल आखर अरथ न जापू।
प्रगट प्रभाउ महेस प्रतापू॥3॥
जिन शिव-पार्वती
ने कलियुग को देखकर, जगत के हित के लिए, शाबर मन्त्र समूह की रचना की, जिन मंत्रों
के अक्षर बेमेल हैं, जिनका न कोई ठीक अर्थ होता है और न जप ही होता है, तथापि श्री
शिवजी के प्रताप से जिनका प्रभाव प्रत्यक्ष है॥3॥
राम मंत्र को
कोई अर्थ की जरुर नहीं हैं। राम ब्रह्म हैं, परमार्थ रुप हैं। राम नाम महा मंत्र हैं,
परम नाम हैं, जिसे भगवान शंकर जपते हैं।
राम सत्य हैं,
कृष्ण प्रेम हैं और सर्व व्यापकता करुणा हैं।
घन घमंड नभ गरजत घोरा।
प्रिया हीन डरपत मन मोरा॥
दामिनि दमक रह नघन माहीं।
खल कै प्रीति जथा थिर नाहीं॥1॥
आकाश में बादल
घुमड़-घुमड़कर घोर गर्जना कर रहे हैं, प्रिया (सीताजी) के बिना मेरा मन डर रहा है।
बिजली की चमक बादलों में ठहरती नहीं, जैसे दुष्ट की प्रीति स्थिर नहीं रहती॥1॥
शठ को सुधारा
जा शकता हैं लेकिन खलको सुधारा नहीं जा शकता।
जो निरंतर सावधान
रहता हैं वह साधु हैं।
शरीर के विकार
– क्षुधा – भूख लगना, प्यास, निद्रा, आलस, छींक आना, अकारण अंगडाई लेना, प्रमाद वगेरे
विकार हैं।
काम क्रोध,
मद, मत्स्य, लोभ, भय, चिंता, शोक वगेरे मानसिक विकार हैं।
भूख रोग हैं
और भोजन उसकी औषधि हैं …… आदि शंकर
बरषहिं जलद भूमि निअराएँ।
जथा नवहिं बुध बिद्या पाएँ।
बूँद अघात सहहिं गिरि कैसे।
खल के बचन संत सह जैसें॥2॥
बादल पृथ्वी
के समीप आकर (नीचे उतरकर) बरस रहे हैं, जैसे विद्या पाकर विद्वान् नम्र हो जाते हैं।
बूँदों की चोट पर्वत कैसे सहते हैं, जैसे दुष्टों के वचन संत सहते हैं॥2॥
प्रेम हमारी
मौलिक मांग हैं।
बिनु घन निर्मल सोह अकासा।
हरिजन इव परिहरि सब आसा॥
कहुँ कहुँ बृष्टि सारदी
थोरी। कोउ एक भाव भगति जिमि मोरी॥5॥
बिना बादलों
का निर्मल आकाश ऐसा शोभित हो रहा है जैसे भगवद्भक्त सब आशाओं को छोड़कर सुशोभित होते
हैं। कहीं-कहीं (विरले ही स्थानों में) शरद् ऋतु की थोड़ी-थोड़ी वर्षा हो रही है। जैसे
कोई विरले ही मेरी भक्ति पाते हैं॥5॥
अगर अपने हाथ
की घडी गलत समय बताये तो सिर्फ हम समयसर पहुंच नहीं शकते हैं लेकिन अगर गांव का टावर
घडी गलत समय बताये तो पुरा गांव समयसर पहुंच नहीं शकता हैं, अगर बडा भूल करे तो समग्र
समाज भूल करने लगते हैं, गेर मार्गमें चले जाता हैं।
प्रणाम करने
का अर्थ हैं कि मैं अब तुम्हारे – जिसको प्रणाम किया हैं - सामने अप्रमाणिक नहीं बनुंगा। …... कृष्णशंकर दादा
2
Sunday,
09/10/2022
वर्षा ॠतु के
समापन में तुलसी कहते हैं कि …..
राम कथा का
प्रारंभ
मंगल करनि कलिमल हरनि तुलसी
कथा रघुनाथ की।
कथा के मध्य
में
सिय राम प्रेम पियूष पूरन होत जनमु न भरत को।
कथा के समापन
में
सत पंच चौपाईं मनोहर जानि
जो नर उर धरै।
भगवान शंकर
के ज्ञान घाट का झंडा सुंदर हैं।
रामकथा सुंदर कर तारी।
संसय बिहग उड़ावनिहारी॥
रामकथा कलि बिटप कुठारी।
सादर सुनु गिरिराजकुमारी॥1॥
श्री रामचन्द्रजी
की कथा हाथ की सुंदर ताली है, जो संदेह रूपी पक्षियों को उड़ा देती है। फिर रामकथा कलियुग
रूपी वृक्ष को काटने के लिए कुल्हाड़ी है। हे गिरिराजकुमारी! तुम इसे आदरपूर्वक सुनो॥1॥
काक भुषंडी का झंडा सुहाइ
हैं, याज्ञवल्क का झंडा शोभा हैं।
बुद्ध पुरुष को हमारी हर
क्रिया कलाप पता रहती हैं।
तब संकर देखेउ धरि ध्याना।
सतीं जो कीन्ह चरित सबु जाना॥2॥
हमारी मानसिकता
सिर्फ राम तक जानी चाहिये, राम को ओवरटेक मत करो।
अपनी आंखो को
सिर्फ शुभ दर्शन में हि लगाओ।
चरन राम तीरथ चलि जाहीं। राम बसहु तिन्ह के मन माहीं॥
मंत्रराजु नित जपहिं तुम्हारा।
पूजहिं तुम्हहि सहित परिवारा॥3॥
तथा जिनके चरण श्री रामचन्द्रजी (आप) के तीर्थों
में चलकर जाते हैं, हे रामजी! आप उनके मन में निवास कीजिए। जो नित्य आपके (राम नाम रूप) मंत्रराज
को जपते हैं और परिवार
(परिकर) सहित आपकी पूजा करते हैं॥3॥
राम कथा चरित्र
चित्र हैं।
साहित्य के
नव रस, दशवा शांत रस, अगियारवा रस निंदा रस हैं।
संत उदय संतत सुखकारी।
बिस्व सुखद जिमि इंदु तमारी।।
परम धर्म श्रुति बिदित
अहिंसा।पर निंदा सम अघ न गरीसा।।11।।
और संतों का
अभ्युदय सदा ही सुखकर होता है, जैसे चन्द्रमा और सूर्य का उदय विश्व भर के लिये सुख
दायक है। वेदोंमें अहिंसा को परम धर्म माना है और परनिन्दा के समान भारी पाप नहीं है।।1।।
राम दुआरे तुम रखवारे
होत न आज्ञा बिनु पैसारे
सब सुख लहै तुम्हारी सरना
तुम रक्षक काहू को डर ना
परमात्मा के
तीन रुप – ब्रह्म जो अक्रिय रहता हैं, आदि दैविक रुप जो अवतार लेता हैं – निर्गुण से
राम, कृष्ण हैसे अवतार लेकर सगुण बनना और तीसरा आदि भौतिक रुप जो अवतार लेकर मनुष्य
की तरह क्रिया करता हैं, जैसे भगवान राम मनुष्य की तरह लीला करते हैं।
हमे परमात्मा
के आदि भौतिक रुप तक हि जाना हैं जहां हनुमानजी द्वार पर हैं जो सिर्फ ईन्द्रीयजीत
को हि अंदर जाने देता हैं, जिनकी ईन्द्रीयो गलत अर्थ न करे उसे हि जाने देता हैं।
जय जय हनुमान
…..
पवनपुत्र सत्य
हैं, पोथी प्रेम हैं, त्रिभुवनदादा की पादूका करुणा हैं। ………… मोरारिबापु
एक राधा एक मीरा
दोनों ने श्याम को चाहा
अन्तर क्या दोनों की चाह
में बोलो
अन्तर क्या दोनों की चाह
में बोलो
एक प्रेम दीवानी
एक दरस दीवानी
एक प्रेम दीवानी
एक दरस दीवानी
एक राधा एक मीरा
दोनों ने श्याम को चाहा
अन्तर क्या दोनों की चाह
में बोलो
एक प्रेम दीवानी
एक दरस दीवानी
राधा ने मधुबन में ढूँढा
मीरा ने मन में पाया
राधा जिसे खो बैठी वो गोविन्द
मीरा हाथ दिखाया
एक मुरली एक पायल
एक पगली एक घायल
अन्तर क्या दोनों की प्रीत
में बोलो
अन्तर क्या दोनों की प्रीत
में बोलो
एक सूरत लुभानी
एक मूरत लुभानी
एक सूरत लुभानी
एक मूरत लुभानी
एक प्रेम दीवानी
एक दरस दीवानी
मीरा के प्रभु गिरिधर नागर
राधा के मनमोहन
आ आ
मीरा के प्रभु गिरिधर नागर
राधा के मनमोहन
राधा नीट श्रिंगार करे
और मीरा बन गयी जोगन
एक रानी एक दासी
दोनों हरी प्रेम की प्यासी
है
अन्तर क्या दोनों की तृप्त
में बोलो
अन्तर क्या दोनों की तृप्त
में बोलो
एक जीत न मानी
एक हार न मानी
एक जीत न मानी
एक हार न मानी
एक राधा एक मीरा
दोनों ने श्याम को चाहा
अन्तर क्या दोनों की चाह
में बोलो
अन्तर क्या दोनों की चाह
में बोलो
एक प्रेम दीवानी
एक दरस दीवानी
एक प्रेम दीवानी
एक दरस दीवानी
एक प्रेम दीवानी
एक दरस दीवानी
मीरा दासी रहकर
चाकरी करना चाहती हैं।
जो भगवत कथा
में डूब जाता हैं उसे चारो पदार्थ मिल जाते हैं।
वर्षा ॠतु का
उपसंहार महत्व का हैं।
कबहु दिवस महँ निबिड़ तम
कबहुँक प्रगट पतंग।
बिनसइ उपजइ ग्यान जिमि
पाइ कुसंग सुसंग॥15ख॥
कभी (बादलों
के कारण) दिन में घोर अंधकार छा जाता है और कभी सूर्य प्रकट हो जाते हैं। जैसे कुसंग
पाकर ज्ञान नष्ट हो जाता है और सुसंग पाकर उत्पन्न हो जाता है॥15 (ख)॥
परम प्रेम शब्द
९ बार आया हैं।
मानस परम प्रेम
हैं।
१
दसरथ पुत्रजन्म सुनि काना।
मानहु ब्रह्मानंद समाना॥
परम प्रेम मन पुलक सरीरा। चाहत उठन करत मति धीरा॥2॥
राजा दशरथजी
पुत्र का जन्म कानों से सुनकर मानो ब्रह्मानंद में समा गए। मन में अतिशय प्रेम है,
शरीर पुलकित हो गया। (आनंद में अधीर हुई) बुद्धि को धीरज देकर (और प्रेम में शिथिल
हुए शरीर को संभालकर) वे उठना चाहते हैं॥2॥
२
पुनि पुनि मिलति परति गहि चरना। परम प्रेमु कछु जाइ न बरना॥
सब नारिन्ह मिलि भेंटि
भवानी। जाइ जननि उर पुनि लपटानी॥4॥
मैना बार-बार
मिलती हैं और (पार्वती के) चरणों को पकड़कर गिर पड़ती हैं। बड़ा ही प्रेम है, कुछ वर्णन
नहीं किया जाता। भवानी सब स्त्रियों से मिल-भेंटकर फिर अपनी माता के हृदय से जा लिपटीं॥4॥
३
सुख संदोह मोह पर ग्यान
गिरा गोतीत।
दंपति परम प्रेम बस कर सिसुचरित पुनीत॥199॥
जो सुख के पुंज,
मोह से परे तथा ज्ञान, वाणी और इन्द्रियों से अतीत हैं, वे भगवान दशरथ-कौसल्या के अत्यन्त
प्रेम के वश होकर पवित्र बाललीला करते हैं॥199॥
४
परम प्रेममय मृदु मसि कीन्ही। चारु चित्त भीतीं लिखि लीन्ही॥
गई भवानी भवन बहोरी। बंदि
चरन बोली कर जोरी॥2॥
तब परमप्रेम
की कोमल स्याही बनाकर उनके स्वरूप को अपने सुंदर चित्त रूपी भित्ति पर चित्रित कर लिया।
सीताजी पुनः भवानीजी के मंदिर में गईं और उनके चरणों की वंदना करके हाथ जोड़कर बोलीं-॥2॥
५
सीता चितव स्याम मृदु गाता। परम प्रेम लोचन न अघाता॥
पंचबटीं बसि श्री रघुनायक।
करत चरित सुर मुनि सुखदायक॥2॥
सीताजी श्री
रामजी के श्याम और कोमल शरीर को परम प्रेम के साथ देख रही हैं, नेत्र अघाते नहीं हैं।
इस प्रकार पंचवटी में बसकर श्री रघुनाथजी देवताओं और मुनियों को सुख देने वाले चरित्र
करने लगे॥2॥
६
मिलनि प्रीति
किमि जाइ बखानी।
कबिकुल अगम करम मन बानी॥
परम प्रेम पूरन दोउ भाई। मन बुधि चित अहमिति
बिसराई॥1॥
मिलन की प्रीति कैसे बखानी जाए? वह तो कविकुल के लिए कर्म, मन, वाणी तीनों से अगम है। दोनों भाई (भरतजी और श्री रामजी)
मन, बुद्धि, चित्त और अहंकार
को भुलाकर परम प्रेम से पूर्ण हो रहे हैं॥1॥
७
पुनि प्रभु हरषि सत्रुहन
भेंटे हृदय लगाइ।।
लछिमन भरत मिले तब परम प्रेम दोउ भाइ।।5।।
फिर प्रभु हर्षित
होकर शत्रुघ्नजीको हृदय से लगाकर उनसे मिले। तब लक्ष्मणजी और भरतजी दोनों भाई परम प्रेम
से मिले।।5।।
८
९
परम प्रेम तिन्ह कर प्रभु देखा। कहा बिबिधि बिधि ग्यान बिसेषा।।
प्रभु सन्मुख कछु कहन न
पारहिं। पुनि पुनि चरन सरोज निहारहिं।।2।।
प्रभुने उनका
अत्यन्त प्रेम देखा, [तब] उन्हें अनेकों प्रकारसे विशेष ज्ञान का उपदेश दिया। प्रभु
के सम्मुख वे कुछ नहीं कह सकते। बार-बार प्रभुके चरणकमलोंको देखते हैं।।2।।
प्रेम और परम
प्रेम में क्या फर्क हैं?
जब तक प्रेम
हैं तब प्रेम में मन बचता हैं। और तब तक बुद्धि भी हैं। चित भी जरुरी हैं। और थोडा
अहंकार भी रहता हैं जो क्षम्य हैं। प्रेम दशा में थोडा मद भी आ जाता हैं। गोपी और कृष्ण
और कृष्ण का अद्रश्य हो जाना यह प्रेम का उदाहरण हैं।
मोह मागता हैं,
प्रेम देता हैं, प्रेम दाता हैं, मोह भिक्षुक हैं।
प्रेम का दरज्जा
हैं तब कुछ कामना भी हैं।
जब यह सब छूट
जाय तब परम प्रेम होता हैं।
परम प्रेम में
निर्दोषता हैं।
अधरं मधुरं वदनं मधुरं
नयनं मधुरं हसितं मधुरम्
।
हृदयं मधुरं गमनं मधुरं
मधुराधिपतेरखिलं मधुरम्
॥ ॥
परम प्रेम में
अंतःकरण मिट जाता हैं, मन, बुद्धि, चित, अहंकार चला जाता हैं, केवल अंतर्यामी हि बचता
हैं।
जब सात वस्तु
एक हो जाती हैं तब परम प्रेम आता हैं। मैं और तुं जब एकत्व हो जाय तब वह परम प्रेम
हैं।
पहाड प्रेम
का प्रदेश हैं जो धीरे धीरे शिखर तक जाता हैं।
कहहिं सप्रेम
एक एक पाहीं।
रामु लखनु सखि होहिं कि नाहीं॥
बय बपु बरन रूपु सोइ आली। सीलु सनेहु सरिस सम चाली॥1॥
गाँवों की स्त्रियाँ एक-दूसरे
से प्रेमपूर्वक कहती हैं- सखी! ये राम-लक्ष्मण
हैं कि नहीं? हे सखी! इनकी अवस्था,
शरीर और रंग-रूप
तो वही है। शील, स्नेह उन्हीं के सदृश है और चाल भी उन्हीं
के समान है॥1॥
यह सात अवस्था,
शरीर, रंग, रुप, शील, स्नेह, चाल - जब एक हो जाय तब परम प्रेम आता हैं|
बरषा बिगत सरद रितु आई।
लछमन देखहु परम सुहाई॥
फूलें कास सकल महि छाई।
जनु बरषाँ कृत प्रगट बुढ़ाई॥1॥
हे लक्ष्मण!
देखो, वर्षा बीत गई और परम सुंदर शरद् ऋतु आ गई। फूले हुए कास से सारी पृथ्वी छा गई।
मानो वर्षा ऋतु ने (कास रूपी सफेद बालों के रूप में) अपना बुढ़ापा प्रकट किया है॥1॥
बुढापा आ गया
फिर भी भक्ति की प्राप्ति नहीं हुई, खोज नहीं की।
उदित अगस्ति पंथ जल सोषा।
जिमि लोभहिं सोषइ संतोषा॥
सरिता सर निर्मल जल सोहा।
संत हृदय जस गत मद मोहा॥2॥
अगस्त्य के
तारे ने उदय होकर मार्ग के जल को सोख लिया, जैसे संतोष लोभ को सोख लेता है। नदियों
और तालाबों का निर्मल जल ऐसी शोभा पा रहा है जैसे मद और मोह से रहित संतों का हृदय!॥2॥
संतोष से हि
लोभ खत्म हो जाता हैं।
काम, क्रोध
और लोभ एक त्रिशुल हैं, जिसे निर्मुल करने के लिये भगवान शंकर हाथ में त्रिशुल रखते
हैं।
हम सब में ज्ञान,
बोध, विवेक हैं लेकिन उसने हमारे क्रोधने दबा के रखा हैं।लोभ हमारे संतोष को दबा देता
हैं। क्रोध हमारे बोध को दबा देता हैं, काम हमारे विवेक को दबा देता हैं।
हर चीज में
संतुष्ट हो जाना लेकिन कथा सुनने में सदा असंतुष्ट रहना।
3
Monday,
10/10/2022
कथा में अकेले
होकर आना चाहिये।
श्रवण, मनन
और निजाध्यास वेद के तीन सुत्र हैं।
जिसकी कथनी और करणी भिन्न हैं वह राहु केतु हैं।
ईन्द्र सत्ता
का प्रतीक हैं, सत्ता में पाखंड की जरुर हैं। ईन्द्र को राहु केतु की जरुर पडती हैं।
पद ऊच्च हैं
लेकिन सर्वोच्च नहीं हैं, पादुका सर्वोच्च हैं।
हम पदार्थ को
पकडने के लिये परम को छोड देते हैं।
हम सार्थक को
छोड कर निर्थकको पकडते हैं।
हमें स्वान्तः
सुख के लिये कथा सुननी चाहिये।
कथा एक अवसर
हैं जहां जीवनका उटर्न हो जाता हैं।
सत का अर्थ
आखीरी वस्तु को पकडना होता हैं।
निर्दोष आनंद
परमात्मा हैं।
सत चित आनंद
परमात्मा हैं लेकिन हमारे लिये निर्दोष आनंद हि परमात्मा हैं।
विकल्प रहित
संकल्प हि सत हैं।
उमा कहउँ मैं अनुभव अपना।
सत हरि भजनु जगत सब सपना॥
पुनि प्रभु गए सरोबर तीरा।
पंपा नाम सुभग गंभीरा॥3॥
हे उमा! मैं तुम्हें अपना अनुभव कहता हूँ- हरि का
भजन ही सत्य है, यह सारा जगत् तो स्वप्न (की भाँति झूठा) है। फिर प्रभु श्री रामजी
पंपा नामक सुंदर और गहरे सरोवर के तीर पर गए॥3॥
साधु छिद्र
नहीं खोलता हैं, छिद्रोको छुपाता हैं।
उदित अगस्ति पंथ जल सोषा।
जिमि लोभहिं सोषइ संतोषा॥
सरिता सर निर्मल जल सोहा।
संत हृदय जस गत मद मोहा॥2॥
अगस्त्य के
तारे ने उदय होकर मार्ग के जल को सोख लिया, जैसे संतोष लोभ को सोख लेता है। नदियों
और तालाबों का निर्मल जल ऐसी शोभा पा रहा है जैसे मद और मोह से रहित संतों का हृदय!॥2॥
रस रस सूख सरित सर पानी।
ममता त्याग करहिं जिमि ग्यानी॥
जानि सरद रितु खंजन आए।
पाइ समय जिमि सुकृत सुहाए॥3॥
नदी और तालाबों
का जल धीरे-धीरे सूख रहा है। जैसे ज्ञानी (विवेकी) पुरुष ममता का त्याग करते हैं। शरद
ऋतु जानकर खंजन पक्षी आ गए। जैसे समय पाकर सुंदर सुकृत आ सकते हैं। (पुण्य प्रकट हो
जाते हैं)॥3॥
काम हमारा विवेक
– ज्ञान को दबा देता हैं।
बिषयँ मोर हरि लीन्हेउ
ग्याना॥
धर्म से विरुद्ध
न हो ऐसा काम स्वीकार्य हैं।
स्मृति सुरता
बननी चाहिये।
सुरता एक ज
होती हैं और सुरता सिर्फ एक के साथ हि लगती हैं। सुरता के केन्द्र बदल शकते हैं। पूर्ण
शरणागत की सुरता एक हि केन्द्र पर रहती हैं।
क्रोध चाडांल
हैं, क्रोध हमें धर्म से दूर कर देता हैं।
लोभ हमारी कृति
यश पर हुमला करता हैं।
अलप लोभ भल कहइ न कोऊ॥
एटीम का अर्थ
अमृत मा, त्रिभुवन दादा और मोरारी बापु …………. मोरारी बापु का अर्थ
काम, क्रोध
और लोभ का उपाय सिर्फ संतोष हैं।
रस रस सूख सरित सर पानी।
ममता त्याग करहिं जिमि ग्यानी॥
जानि सरद रितु खंजन आए।
पाइ समय जिमि सुकृत सुहाए॥3॥
नदी और तालाबों
का जल धीरे-धीरे सूख रहा है। जैसे ज्ञानी (विवेकी) पुरुष ममता का त्याग करते हैं। शरद
ऋतु जानकर खंजन पक्षी आ गए। जैसे समय पाकर सुंदर सुकृत आ सकते हैं। (पुण्य प्रकट हो
जाते हैं)॥3॥
संत जिसको कभी
भी किसी प्रकार का तंत न हो वह संत हैं, जिसका कभी भी अंत न हो वह संत हैं, जिसके शिर
पर कोई समर्थ कंथ हैं वह संत हैं, जब सत के उपर बिंदी लग जाय तब वह संत बनता हैं,
ज्ञानी बहुत
प्रयत्न करके पाता हैं, जब कि साधु सहज पा लेता हैं, सधु प्रेमी हैं, साधु की ममता
अपनेआप छूट जाती हैं जब कि ज्ञानी ममता को छोडता हैं।
ओलिया ज्ञानी
हैं, फकिर साधु हैं – प्रेमी हैं।
शब्द भी बंधन
हैं।
पंक न रेनु सोह असि धरनी।
नीति निपुन नृप कै जसि करनी॥
जल संकोच बिकल भइँ मीना।
अबुध कुटुंबी जिमि धनहीना॥4॥
न कीचड़ है
न धूल? इससे धरती (निर्मल होकर) ऐसी शोभा दे रही है जैसे नीतिनिपुण राजा की करनी! जल
के कम हो जाने से मछलियाँ व्याकुल हो रही हैं, जैसे मूर्ख (विवेक शून्य) कुटुम्बी
(गृहस्थ) धन के बिना व्याकुल होता है॥4॥
खंजन मामा का
घोडा हैं।
सत कर्म समय
आने पर फल मिलता हैं।
पाप का परिणाम
भी समयपर आता हैं।
कुछ बात समयपर अच्छी लगती हैं।
हनुमानजी से
हमें विचार, विश्वास (परस्पर विश्वास, प्रेम और विस्वास में ऊम्र नहीं देखी जाती) और
वैराग्य शीखना चाहिये।
परिवारमें परस्पर
विचार विनिमय करो।
परिवार में
परस्पर विराग का अर्थ हैं कि परिवार में एक दूसरे के लिये छोडना।
परिवार में
ऐसा विचार, विश्वास और वैराग्य जब आयेगा तब HOME SHANTI की स्थिति आ जायेगी।
4
Tuesday,
11/10/2022
राम सिर्फ हमारा
आदर्श हि नहिं हैं हमारा आधार भी हैं।
माबाप के घर,
गुरु के घर, मित्र के घर बिना आमंत्रण जाना चाहिये।
मूल रोग तीन
हैं – वात पित और कफ हैं, शरद ऋतु में यह रोगो का प्रभाव ज्यादा होती हैं।
भारत देश में
राग के पीछे ऋतु नाचती हैं।
सुरता आते हि
साधक और साध्य एक हो जाता हैं, साधन लुप्त हो जाता हैं।
अपने गुरु के
सिवा अन्य से कुछ भी न मागना।
सुरता एकता
में परिवर्तित हो जानी चाहिये।
गुरु शिष्य
में द्वैत होना चाहिये, एकता नहीं होनी चाहिये।
अस कहि जोग अगिनि तनु जारा।
राम कृपाँ बैकुंठ सिधारा॥
ताते मुनि हरि लीन न भयऊ।
प्रथमहिं भेद भगति बर लयऊ॥1॥
ऐसा कहकर शरभंगजी
ने योगाग्नि से अपने शरीर को जला डाला और श्री रामजी की कृपा से वे वैकुंठ को चले गए।
मुनि भगवान में लीन इसलिए नहीं हुए कि उन्होंने पहले ही भेद-भक्ति का वर ले लिया था॥1॥
रघुपति प्रथम प्रेम अनुमाना।
चितइ पितहि दीन्हेउ दृढ़ ग्याना।।
ताते उमा मोच्छ नहिं पायो।
दसरथ भेद भगति मन लायो।।3।।
श्री रघुनाथजी
ने पहले के (जीवितकाल के) प्रेम को विचारकर, पिता की ओर देखकर ही उन्हें अपने स्वरूप
का दृढ़ ज्ञान करा दिया। हे उमा! दशरथजी ने भेद-भक्ति में अपना मन लगाया था, इसी से
उन्होंने (कैवल्य) मोक्ष नहीं पाया।।3।।
ताते नास न होइ दास कर।
भेद भगति बाढ़इ बिहंगबर।।
भ्रम तें चकित राम मोहि
देखा। बिहँसे सो सुनु चरित बिसेषा।।2।।
हे पक्षिराज
! इसी से दास का नाष नहीं होता और भेद-भक्ति बढ़ती है। श्रीरामजीने मुझे जब भ्रम से
चकित देखा, तब वे हँसे। वह विशेष चरित्र सुनिये।।2।।
मिलहिं न रघुपति बिनु अनुरागा।
किएँ जोग तप ग्यान बिरागा।।
उत्तर दिसि सुंदर गिरि
नीला। तहँ रह काकभुसुंडि सुसीला।।1।।
बिना प्रेम
के केवल योग, तप, ज्ञान और वैराग्यादिके करनेसे श्रीरधुनाथजी नहीं मिलते। [अतएव तुम
सत्संग के लिये वहाँ जाओ जहाँ] उत्तर दिशा में एक सुन्दर नील पर्वत है। वहाँ परम सुशील
काकभुशुण्डिजी रहते हैं।।1।।
भेद भक्ति परम
ऐक्य का प्रतीक हैं।
पीपल का वृक्ष
सदा ऑक्षिजन बहार नीकालता हैं।
पीपर तरु तर ध्यान सो धरई।
जाप जग्य पाकरि तर करई।।
आँब छाँह कर मानस पूजा।
तजि हरि भजनु काजु नहिं दूजा।।3।।
वह पीपल के
वृक्ष के नीचे ध्यान धरता है। पाकर के नीचे जपयज्ञ करता है। आम की छाया में मानसिक
पूजा करता है। श्रीहरि के भजन को छोड़कर उसे दूसरा कोई काम नहीं है।।3।।
शरद ॠतु में
काम – कामोद्वेग बढता हैं, संग्रह वृत्ति का लोभ का कफ बढता हैं, क्रोध – पित भी बढता
हैं।
अपने गुरु के
पास अपनी बुराईओ कहने में कोई गलती नहीं हैं।
हनुमानजी शरद
ऋतुमें सीता खोज के लिये गये थे।
हनुमानजी में
यह तीनो रोग प्रवेश नहीं करते हैं। साधक के लिये शरद ऋतु निर्मल ऋतु हैं। शरदोत्सव
मनाने के लिये हनुमान आश्रय जरुरी हैं।
विश्वास के
तीन प्रकार – आत्म विश्वास – आत्म बल, सर्वात्तम विश्वास और परमार्थ विश्वास, हनुमानजीमें
परमार्थ विश्वास हैं।
दुनिया जब वाह
वाह करे तब अगर हमें जरा भी अभिमान आ गया तो हम गिर जायेगे हि।
संकट किसे कहे?
जीवन की बाधा
ए जब किसी भी प्रकार – बल य धन से - हल न हो वह संकट हैं। ऐसा संकट सिर्फ परमात्म बल
-परमार्थ विश्वास - से हि हल होता हैं।
वैष्णव के गुन
गाने से विष्णु प्रसन्न होता हैं।
देह जले नहीं
– देहाभिमान जल न जाय - तब तक कृष्ण दर्शन नहीं होता हैं।
सीता खोज दरम्यान
विश्राम के कपडे पहनकर आलस हमारे में घुस न जाय इसका खयाल रखना।
सीता खोज दरम्यान
कामना उपर विवेक पूर्ण नियंत्रण रखना चाहिये।
सीता खोज दरम्यान
ईर्षासे बचना चाहिये। सिहिंका ईर्षा हैं। ईर्षा सागर पेटा भी हो शकती हैं। ईर्षा को
तो मार हि देना चाहिये। हनुमानजी सिहिंका को मार देते हैं।
सतसंग करना
चाहिये।
बिकल होसि तैं कपि कें
मारे। तब जानेसु निसिचर संघारे॥
तात मोर अति पुन्य बहूता।
देखेउँ नयन राम कर दूता॥4॥
जब तू बंदर
के मारने से व्याकुल हो जाए, तब तू राक्षसों का संहार हुआ जान लेना। हे तात! मेरे बड़े
पुण्य हैं, जो मैं श्री रामचंद्रजी के दूत (आप) को नेत्रों से देख पाई॥4॥
जानेहि नहीं मरमु सठ मोरा।
मोर अहार जहाँ लगि चोरा॥
मुठिका एक महा कपि हनी।
रुधिर बमत धरनीं ढनमनी॥2॥
हे मूर्ख! तूने
मेरा भेद नहीं जाना जहाँ तक (जितने) चोर हैं, वे सब मेरे आहार हैं। महाकपि हनुमान्जी
ने उसे एक घूँसा मारा, जिससे वह खून की उलटी करती हुई पृथ्वी पर ल़ुढक पड़ी॥2॥
पुनि संभारि उठी सो लंका।
जोरि पानि कर बिनय ससंका॥
जब रावनहि ब्रह्म बर दीन्हा।
चलत बिरंच कहा मोहि चीन्हा॥3॥
वह लंकिनी फिर
अपने को संभालकर उठी और डर के मारे हाथ जोड़कर विनती करने लगी। (वह बोली-) रावण को
जब ब्रह्माजी ने वर दिया था, तब चलते समय उन्होंने मुझे राक्षसों के विनाश की यह पहचान
बता दी थी कि-॥3॥
अपने माबाप,
परमात्मा और गुरु हमारे उपर अहेतु कृपा करते हैं। माबाप की कृपाकी सीमा होती हैं, परमात्मा
भी जब ब्रह्म होता हैं तब कुछ नहीं करता हैं जब कि गुरु हंमेशां कृपा करता रहता हैं।
5
Wednesday,
12/10/2022
मानस में सरद
शब्द २७ बार आया हैं, नक्षत्र २७ हैं।
आत्मा में निरंतर
रास चल रहा हैं।
अस्तित्व महारास
हैं।
रास के लिये
अवकाश चाहिए, आसमा गुणातित हैं।
चातक रटत तृषा अति ओही।
जिमि सुख लहइ न संकर द्रोही॥
सरदातप निसि ससि अपहरई।
संत दरस जिमि पातक टरई॥3॥
पपीहा रट लगाए
है, उसको बड़ी प्यास है, जैसे श्री शंकरजी का द्रोही सुख नहीं पाता (सुख के लिए झीखता
रहता है) शरद् ऋतु के ताप को रात के समय चंद्रमा हर लेता है, जैसे संतों के दर्शन से
पाप दूर हो जाते हैं॥3॥
मानस रहस्य
का शास्त्र हैं। गुरु कृपा से रहस्य समज में आता हैं।
मातृ शरीर हि
नयी चेतना को जन्म देती हैं।
साधु का नर्तन
मोके पर होता हैं।
साधु में गुंजन
- गुनगुनाना , कुंजन – गाना और खंजन - नर्तन होता हैं।
1
अभिमत दानि देवतरु बर से।
सेवत सुलभ सुखद हरि हर से॥
सुकबि सरद नभ मन उडगन से। रामभगत
जन जीवन धन से॥6॥
मनोवांछित वस्तु
देने में श्रेष्ठ कल्पवृक्ष के समान हैं और सेवा करने में हरि-हर के समान सुलभ और सुख
देने वाले हैं। सुकवि रूपी शरद् ऋतु के मन रूपी आकाश को सुशोभित करने के लिए तारागण
के समान और श्री रामजी के भक्तों के तो जीवन धन ही हैं॥6॥
2
बरषा घोर निसाचर रारी।
सुरकुल सालि सुमंगलकारी॥
राम राज सुख बिनय बड़ाई।
बिसद सुखद सोइ सरद सुहाई॥3॥
राक्षसों के
साथ घोर युद्ध ही वर्षा ऋतु है, जो देवकुल रूपी धान के लिए सुंदर कल्याण करने वाली
है। रामचंद्रजी के राज्यकाल का जो सुख, विनम्रता और बड़ाई है, वही निर्मल सुख देने
वाली सुहावनी शरद् ऋतु है॥3॥
3
तरुन अरुन अंबुज सम चरना।
नख दुति भगत हृदय तम हरना॥
भुजग भूति भूषन त्रिपुरारी।
आननु सरद चंद छबि हारी॥4॥
उनके चरण नए
(पूर्ण रूप से खिले हुए) लाल कमल के समान थे, नखों की ज्योति भक्तों के हृदय का अंधकार
हरने वाली थी। साँप और भस्म ही उनके भूषण थे और उन त्रिपुरासुर के शत्रु शिवजी का मुख
शरद (पूर्णिमा) के चन्द्रमा की शोभा को भी हरने वाला (फीकी करने वाला) था॥4॥
4
सरद मयंक बदन छबि सींवा। चारु कपोल चिबुक दर ग्रीवा॥
अधर अरुन रद सुंदर नासा।
बिधु कर निकर बिनिंदक हासा॥1॥
उनका मुख शरद
(पूर्णिमा) के चन्द्रमा के समान छबि की सीमास्वरूप था। गाल और ठोड़ी बहुत सुंदर थे,
गला शंख के समान (त्रिरेखायुक्त, चढ़ाव-उतार वाला) था। लाल होठ, दाँत और नाक अत्यन्त
सुंदर थे। हँसी चन्द्रमा की किरणावली को नीचा दिखाने वाली थी॥1॥
5
कुमुख अकंपन कुलिसरद धूमकेतु अतिकाय।
एक एक जग जीति सक ऐसे सुभट
निकाय॥180॥
(इनके अतिरिक्त)
दुर्मुख, अकम्पन, वज्रदन्त, धूमकेतु और अतिकाय आदि ऐसे अनेक योद्धा थे, जो अकेले ही
सारे जगत को जीत सकते थे॥180॥
6
थके नयन रघुपति छबि देखें।
पलकन्हिहूँ परिहरीं निमेषें॥
अधिक सनेहँ देह भै भोरी।
सरद ससिहि जनु चितव चकोरी॥3॥
श्री रघुनाथजी
की छबि देखकर नेत्र थकित (निश्चल) हो गए। पलकों ने भी गिरना छोड़ दिया। अधिक स्नेह के
कारण शरीर विह्वल (बेकाबू) हो गया। मानो शरद ऋतु के चन्द्रमा को चकोरी (बेसुध हुई)
देख रही हो॥3॥
7
सहज मनोहर मूरति दोऊ। कोटि
काम उपमा लघु सोऊ॥
सरद चंद निंदक मुख नीके। नीरज नयन भावते जी के॥1॥
दोनों मूर्तियाँ
स्वभाव से ही (बिना किसी बनाव-श्रृंगार के) मन को हरने वाली हैं। करोड़ों कामदेवों की
उपमा भी उनके लिए तुच्छ है। उनके सुंदर मुख शरद् (पूर्णिमा) के चन्द्रमा की भी निंदा
करने वाले (उसे नीचा दिखाने वाले) हैं और कमल के समान नेत्र मन को बहुत ही भाते हैं॥1॥
8
सरद बिमल बिधु बदनु सुहावन। नयन नवल राजीव लजावन॥
सकल अलौकिक सुंदरताई। कहि
न जाई मनहीं मन भाई॥2॥
उनका सुंदर
मुख शरत्पूर्णिमा के निर्मल चन्द्रमा के समान और (मनोहर) नेत्र नवीन कमल को लजाने वाले
हैं। सारी सुंदरता अलौकिक है। (माया की बनी नहीं है, दिव्य सच्चिदानन्दमयी है) वह कहीं
नहीं जा सकती, मन ही मन बहुत प्रिय लगती है॥2॥
9
जेहि चाहत नर नारि सब अति आरत एहि भाँति।
जिमि चातक चातकि तृषित बृष्टि सरद रितु स्वाति॥52॥
तथा जिस (लग्न) को सभी स्त्री-पुरुष
अत्यंत व्याकुलता से इस प्रकार
चाहते हैं जिस प्रकार प्यास से चातक और चातकी शरद् ऋतु के स्वाति
नक्षत्र की वर्षा को चाहते हैं॥52॥
10
सुनि मृदु बचन मनोहर पिय के। लोचन ललित भरे जल सिय के॥
सीतल सिख दाहक भइ कैसें। चकइहि सरद चंद निसि जैसें॥1॥
प्रियतम के कोमल तथा मनोहर वचन सुनकर सीताजी
के सुंदर नेत्र जल से भर गए। श्री रामजी की यह शीतल सीख उनको कैसी जलाने वाली हुई, जैसे चकवी को शरद ऋतु की चाँदनी
रात होती है॥1॥
11
जिय बिनु देह नदी बिनु बारी। तैसिअ नाथ पुरुष बिनु नारी॥
नाथ सकल सुख साथ तुम्हारें। सरद बिमल बिधु बदनु निहारें॥4॥
जैसे बिना जीव के देह और बिना जल के नदी, वैसे ही हे नाथ! बिना पुरुष के स्त्री
है। हे नाथ! आपके साथ रहकर आपका शरद्-(पूर्णिमा) के निर्मल चन्द्रमा
के समान मुख देखने से मुझे समस्त सुख प्राप्त
होंगे॥4॥
12
सिख सीतलि हित मधुर मृदु सुनि सीतहि न सोहानि।
सरद चंद चंदिनि
लगत जनु चकई अकुलानि॥78॥
यह शीतल, हितकारी, मधुर और कोमल सीख सुनने पर सीताजी
को अच्छी नहीं लगी। (वे इस प्रकार
व्याकुल हो गईं) मानो शरद ऋतु के चन्द्रमा की चाँदनी लगते ही चकई व्याकुल हो उठी हो॥78॥
13
जटा मुकुट सीसनि सुभग उर भुज नयन बिसाल।
सरद परब बिधु बदन बर लसत स्वेद कन जाल॥115॥
उनके सिरों पर सुंदर जटाओं के मुकुट हैं, वक्षः स्थल, भुजा और नेत्र विशाल हैं और शरद पूर्णिमा
के चन्द्रमा के समान सुंदर मुखों पर पसीने की बूँदों का समूह शोभित हो रहा है॥115॥
14, 15
स्यामल गौर किसोर बर सुंदर सुषमा ऐन।
सरद सर्बरीनाथ मुखु सरद सरोरुह
नैन॥116॥
श्याम और गौर वर्ण है, सुंदर किशोर अवस्था
है, दोनों ही परम सुंदर और शोभा के धाम हैं। शरद पूर्णिमा के चन्द्रमा के समान इनके मुख और शरद ऋतु के कमल के समान इनके नेत्र हैं॥116॥
16
सुनत सुमंगल
बैन मन प्रमोद
तन पुलक भर।
सरद सरोरुह नैन तुलसी भरे सनेह जल॥226॥
तुलसीदासजी कहते हैं कि सुंदर मंगल वचन सुनते ही श्री रामचंद्रजी के मन में बड़ा आनंद हुआ। शरीर में पुलकावली
छा गई और शरद् ऋतु के कमल के समान नेत्र प्रेमाश्रुओं
से भर गए॥226॥
17
जिमि जलु निघटत सरद प्रकासे। बिलसत बेतस बनज बिकासे॥
सम दम संजम नियम उपासा। नखत भरत हिय बिमल अकासा॥2॥
जैसे शरद ऋतु के प्रकाश (विकास)
से जल घटता है, किन्तु
बेंत शोभा पाते हैं और कमल विकसित
होते हैं। शम, दम, संयम, नियम और उपवास आदि भरतजी के हृदयरूपी निर्मल
आकाश के नक्षत्र
(तारागण) हैं॥2॥
18
मुनि समूह महँ बैठे सन्मुख
सब की ओर।
सरद इंदु तन चितवन मानहुँ निकर चकोर॥12॥
मुनियों के
समूह में श्री रामचंद्रजी सबकी ओर सम्मुख होकर बैठे हैं (अर्थात् प्रत्येक मुनि को
श्री रामजी अपने ही सामने मुख करके बैठे दिखाई देते हैं और सब मुनि टकटकी लगाए उनके
मुख को देख रहे हैं)। ऐसा जान पड़ता है मानो चकोरों का समुदाय शरत्पूर्णिमा के चंद्रमा
की ओर देख रहा है॥12॥ कुंद कली दाड़िम दामिनी। कमल सरद ससि अहिभामिनी॥
19
कुंद कली दाड़िम दामिनी।
कमल सरद ससि अहिभामिनी॥
बरुन पास मनोज धनु हंसा।
गज केहरि निज सुनत प्रसंसा॥6॥
कुन्दकली, अनार,
बिजली, कमल, शरद् का चंद्रमा और नागिनी, अरुण का पाश, कामदेव का धनुष, हंस, गज और सिंह-
ये सब आज अपनी प्रशंसा सुन रहे हैं॥6॥
20
काम क्रोध मद मत्सर भेका।
इन्हहि हरषप्रद बरषा एका॥
दुर्बासना कुमुद समुदाई।
तिन्ह कहँ सरद सदा सुखदाई॥2॥
काम, क्रोध,
मद और मत्सर (डाह) आदि मेंढक हैं। इनको वर्षा ऋतु होकर हर्ष प्रदान करने वाली एकमात्र
यही (स्त्री) है। बुरी वासनाएँ कुमुदों के समूह हैं। उनको सदैव सुख देने वाली यह शरद्
ऋतु है॥2॥
21
बरषा बिगत सरद रितु आई। लछमन देखहु परम
सुहाई॥
फूलें कास सकल महि छाई।
जनु बरषाँ कृत प्रगट बुढ़ाई॥1॥
हे लक्ष्मण!
देखो, वर्षा बीत गई और परम सुंदर शरद् ऋतु आ गई। फूले हुए कास से सारी पृथ्वी छा गई।
मानो वर्षा ऋतु ने (कास रूपी सफेद बालों के रूप में) अपना बुढ़ापा प्रकट किया है॥1॥
22
रस रस सूख सरित सर पानी।
ममता त्याग करहिं जिमि ग्यानी॥
जानि सरद रितु खंजन आए। पाइ समय
जिमि सुकृत सुहाए॥3॥
नदी और तालाबों
का जल धीरे-धीरे सूख रहा है। जैसे ज्ञानी (विवेकी) पुरुष ममता का त्याग करते हैं। शरद
ऋतु जानकर खंजन पक्षी आ गए। जैसे समय पाकर सुंदर सुकृत आ सकते हैं। (पुण्य प्रकट हो
जाते हैं)॥3॥
23
भूमि जीव संकुल रहे गए
सरद रितु पाइ।
सदगुर मिलें जाहिं जिमि
संसय भ्रम समुदाइ॥17॥
(वर्षा ऋतु
के कारण) पृथ्वी पर जो जीव भर गए थे, वे शरद् ऋतु को पाकर वैसे ही नष्ट हो गए जैसे
सद्गुरु के मिल जाने पर संदेह और भ्रम के समूह नष्ट हो जाते हैं॥17॥
24
प्राबिट सरद पयोद घनेरे। लरत मनहुँ
मारुत के प्रेरे॥
अनिप अकंपन अरु अतिकाया।
बिचलत सेन कीन्हि इन्ह माया॥5॥
(राक्षस और
वानर युद्ध करते हुए ऐसे जान पड़ते हैं) मानो क्रमशः वर्षा और शरद् ऋतु में बहुत से
बादल पवन से प्रेरित होकर लड़ रहे हों। अकंपन और अतिकाय इन सेनापतियों ने अपनी सेना
को विचलित होते देखकर माया की॥5॥
25
कपिहि तिलक करि प्रभु कृत
सैल प्रबरषन बास।
बरनन बर्षा सरद अरु राम रोष कपि त्रास।।66ख।।
सुग्रीव का
राज तिलक करके प्रभु ने प्रवर्षण पर्वतपर निवास किया, तथा वर्षा और शरद् का वर्णन,
श्रीरामजीका सुग्रीवपर रोष और सुग्रीव का भय आदि प्रसंग कहे।।66(ख)।।
चहेरे में आंख,
मुस्कान, बोलना, संकेत हैं।
बड़े भाग मानुष तनु पावा।
सुर दुर्लभ सब ग्रंथहि गावा।।
साधन धाम मोच्छ कर द्वारा।
पाइ न जेहिं परलोक सँवारा।।4।।
बड़े भाग्य
से यह मनुष्य-शरीर मिला है। सब ग्रन्थों ने यही कहा है कि यह शरीर देवताओं को भी दुर्लभ
है (कठिनतासे मिलता है)। यह साधन का धाम और मोक्ष का दरवाजा है। इसे पाकर भी जिसने
परलोक न बना लिया,।।4।।
साधु चलता सरल
ग्रंथ हैं।
देह नाशवंत
हैं ईस का मतलब आत्महत्या करके शरीर का नाश करना नहीं हैं।
परमात्मा की
करुणा से यह शरीर मिला हैं।
नौका किनारा
नहीं हैं, किनारे पहुंचनेका साधन हैं।
जिस को अपने
घट में नहीं मिलता हैं उसे कहीं भी नहीं मिलेगा।
चेहरा चंदीय
शरद ऋतु जैसा होना चाहिये।
प्रभु प्रेरित लछिमन पहिराए।
लंकापति रघुपति मन भाए।।
अंगद बैठ रहा नहिं डोला।
प्रीति देखि प्रभु ताहि न बोला।।4।।
फिर प्रभु की
प्रेरणा से लक्ष्मणजीने विभीषणको गहने-कपड़े पहनाये, जो श्रीरघुनाथजी के मनको बहुत
ही अच्छे लगे। अंगद बैठे ही रहे, वे अपनी जगह से हिलेतक नहीं। उनका उत्कट प्रेम देखकर
प्रभुने उनको नहीं बुलाया।।4।।
अब नाथ करि करुना बिलोकहु
देहु जो बर मागऊँ।
जेहि जोनि जन्मौं कर्म
बस तहँ राम पद अनुरागऊँ॥
यह तनय मम सम बिनय बल कल्यानप्रद
प्रभु लीजिये।
गहि बाँह सुर नर नाह आपन
दास अंगद कीजिये॥2॥
हे नाथ! अब
मुझ पर दयादृष्टि कीजिए और मैं जो वर माँगता हूँ उसे दीजिए। मैं कर्मवश जिस योनि में
जन्म लूँ, वहीं श्री रामजी (आप) के चरणों में प्रेम करूँ! हे कल्याणप्रद प्रभो! यह
मेरा पुत्र अंगद विनय और बल में मेरे ही समान है, इसे स्वीकार कीजिए और हे देवता और
मनुष्यों के नाथ! बाँह पकड़कर इसे अपना दास बनाइए ॥2॥
अंगद का अर्थ
अंग दान हैं।
पादूका ठाकुर
का अंग दान हैं।
निज उर माल बसन मनि बालितनय
पहिराइ।।
बिदा कीन्हि भगवान तब बहु
प्रकार समुझाइ।।18ख।।
तब भगवान् ने
अपने हृदय की माला, वस्त्र और मणि (रत्नों के आभूषण) बालि-पुत्र अंगद को पहनाकर और
बहुत प्रकार से समझाकर उनकी बिदाई की।।18(ख)।।
खग को खग की
भाषा में हि समजाना चाहिये।
जब आदमी के
पून्य खतम हो जाय तब मृत्यु लोक में आना पडता हैं।
अंगद राम का
बोलना, चलना, हंसना वगेरे याद करेगा।
बार बार कर दंड प्रनामा।
मन अस रहन कहहिं मोहि रामा।।
राम बिलोकनि बोलनि चलनी।
सुमिरि सुमिरि सोचत हँसि मिलनी।।2।।
और बार-बार
दण्डवत् प्रणाम करते हैं। मन में ऐसा आता है कि श्रीरामजी मुझे रहने को कह दें। वे
श्रीरामजी के देखने की, बोलने की, चलने की तथा हँसकर मिलने की रीति को याद कर-करके
सोचते हैं (दुखी होते हैं)।।2।।
राम का देखना,
बोलना, चलना, हंसना, सोचना अमर रहेगा।
हमारे – साधक
के लिये दर्द, आंसु, पीडा, प्रेम रोग अमर रहना
चाहिये।
अंधेरे की कोई
सत्ता नहीं हैं ………. ऑशो
प्रकाश की गेरहाजरी
हि अंधेरा हैं।
प्रेम करना
शीख जाओ तो राग द्वेष अपने आप दूर हो जायेगा।
जब तक अस्त
न हो जाओ तब तक व्यस्त रहो, मस्त रहो, अलमस्त रहो।
बुद्धता आते
हि सब कला आ जाती हैं।
6
Thursday,
13/10/2022
तुलसीदासजी
शरद ऋतु को परम सुहाईनी कहा हैं, वर्षा ऋतु को भी सुहाईनी कहा हैं।
कहत अनुज सन कथा अनेका।
भगति बिरत नृपनीति बिबेका॥
बरषा काल मेघ नभ छाए। गरजत
लागत परम सुहाए॥4॥
श्री राम छोटे
भाई लक्ष्मणजी से भक्ति, वैराग्य, राजनीति और ज्ञान की अनेकों कथाएँ कहते हैं। वर्षाकाल
में आकाश में छाए हुए बादल गरजते हुए बहुत ही सुहावने लगते हैं॥4॥
मानस टेक्ष्ट
बुक नहीं है लेकिन टेस्ट बुक हैं, परीक्षा का ग्रंथ हैं। टेस्ट का मतलब स्वाद भी होता
हैं।
राम कथा आंसु
की कथा हैं, टियर्स बुक।
मानस संवाद
की बुक हैं, टॉक बुक।
मानस ६ बार
परम सुहाईनी शब्द आया हैं।
जे पुर गाँव बसहिं मग माहीं।
तिन्हहि नाग सुर नगर सिहाहीं॥
केहि सुकृतीं
केहि घरीं बसाए। धन्य पुन्यमय
परम सुहाए॥1॥
जो गाँव और पुरवे रास्ते में बसे हैं, नागों और देवताओं के नगर उनको देखकर प्रशंसा
पूर्वक ईर्षा करते और ललचाते
हुए कहते हैं कि किस पुण्यवान् ने किस शुभ घड़ी में इनको बसाया था, जो आज ये इतने धन्य और पुण्यमय
तथा परम सुंदर हो रहे हैं॥1॥
अवसि अत्रि आयसु सिर धरहू। तात बिगतभय कानन चरहू॥
मुनि प्रसाद
बनु मंगल दाता। पावन परम सुहावन भ्राता॥3॥
(श्री रघुनाथजी
बोले-) अवश्य ही अत्रि ऋषि की आज्ञा को सिर पर धारण करो (उनसे पूछकर वे जैसा कहें वैसा करो) और निर्भय
होकर वन में विचरो। हे भाई! अत्रि मुनि के प्रसाद से वन मंगलों
का देने वाला, परम पवित्र
और अत्यन्त सुंदर है-॥3॥
सहि सक न भार
उदार अहिपति बार बारहिं मोहई।
गह दसन पुनि
पुनि कमठ पृष्ठ कठोर सो किमि सोहई॥
रघुबीर रुचिर
प्रयान प्रस्थिति जानि परम सुहावनी।
जनु कमठ खर्पर
सर्पराज सो लिखत अबिचल पावनी॥2॥
उदार (परम श्रेष्ठ
एवं महान्) सर्पराज शेषजी भी सेना का बोझ नहीं सह सकते, वे बार-बार मोहित हो जाते
(घबड़ा जाते) हैं और पुनः-पुनः कच्छप की कठोर पीठ को दाँतों से पकड़ते हैं। ऐसा करते
(अर्थात् बार-बार दाँतों को गड़ाकर कच्छप की पीठ पर लकीर सी खींचते हुए) वे कैसे शोभा
दे रहे हैं मानो श्री रामचंद्रजी की सुंदर प्रस्थान यात्रा को परम सुहावनी जानकर उसकी
अचल पवित्र कथा को सर्पराज शेषजी कच्छप की पीठ पर लिख रहे हों॥2॥
तुरत बिमान
तहाँ चलि आवा। दंडक बन जहँ परम सुहावा॥
कुंभजादि मुनिनायक
नाना। गए रामु सब कें अस्थाना॥1॥
विमान शीघ्र
ही वहाँ चला आया, जहाँ परम सुंदर दण्डकवन था और अगस्त्य आदि बहुत से मुनिराज रहते थे।
श्री रामजी इन सबके स्थानों में गए॥1॥
कीरति सरित
छहूँ रितु रूरी। समय सुहावनि पावनि भूरी॥
हिम हिमसैलसुता
सिव ब्याहू। सिसिर सुखद प्रभु जनम उछाहू॥1॥
यह कीर्तिरूपिणी
नदी छहों ऋतुओं में सुंदर है। सभी समय यह परम सुहावनी और अत्यंत पवित्र है। इसमें शिव-पार्वती
का विवाह हेमंत ऋतु है। श्री रामचंद्रजी के जन्म का उत्सव सुखदायी शिशिर ऋतु है॥1॥
राम राज्य ऊच्चार
से नहीं आयेगा, आचरण से आयेगा।
शरद ऋतु अभाव
ग्रस्त के लिये सुहावनी नहीं हैं।
वर्षा ऋतु भी
सब के लिये सुहावनी नहीं हैं।
घन घमंड नभ गरजत घोरा।
प्रिया हीन डरपत मन मोरा॥
दामिनि दमक रह नघन माहीं।
खल कै प्रीति जथा थिर नाहीं॥1॥
आकाश में बादल
घुमड़-घुमड़कर घोर गर्जना कर रहे हैं, प्रिया (सीताजी) के बिना मेरा मन डर रहा है।
बिजली की चमक बादलों में ठहरती नहीं, जैसे दुष्ट की प्रीति स्थिर नहीं रहती॥1॥
शरद ऋतु में
पांचो तत्व शुद्ध हैं।
पृथ्वी, जल,
आकाश, वायु, अग्नि शरद ऋतु में स्वच्छ हैं।
पंक न रेनु
सोह असि धरनी। नीति निपुन नृप कै जसि करनी॥
जल संकोच बिकल
भइँ मीना। अबुध कुटुंबी जिमि धनहीना॥4॥
न कीचड़ है
न धूल? इससे धरती (निर्मल होकर) ऐसी शोभा दे रही है जैसे नीतिनिपुण राजा की करनी! जल
के कम हो जाने से मछलियाँ व्याकुल हो रही हैं, जैसे मूर्ख (विवेक शून्य) कुटुम्बी
(गृहस्थ) धन के बिना व्याकुल होता है॥4॥
हमारे मार्गदर्शक
के हम शिष्य,
हमारा मार्गदशक
समजदार होना चाहिये – जिसको कुछ बोध हुआ हैं, चतुर – होंशियार नहीं होना चाहिये,
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