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Saturday, October 29, 2022

માનસ વિશ્વાસ સ્વરુપમ્‌ - 906


રામ કથા – ૯0૬

માનસ વિશ્વાસ સ્વરુપમ્‌

નાથદ્વારા

શનિવાર, તારીખ ૨૯/૧0/૨0૨૨ થી રવિવાર, તારીખ 0૬/૧૧/૨0૨૨

મુખ્ય ચોપાઈ

भवानीशंकरौ वन्दे श्रद्धाविश्वासरूपिणौ।

याभ्यां विना न पश्यन्ति सिद्धाः स्वान्तःस्थमीश्वरम्‌॥2॥

वन्दे बोधमयं नित्यं गुरुं शंकररूपिणम्‌।

यमाश्रितो हि वक्रोऽपि चन्द्रः सर्वत्र वन्द्यते॥3॥



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 1

Saturday, 29/10/2022

भवानीशंकरौ वन्दे श्रद्धाविश्वासरूपिणौ।

याभ्यां विना न पश्यन्ति सिद्धाः स्वान्तःस्थमीश्वरम्‌॥2॥

 

श्रद्धा और विश्वास के स्वरूप श्री पार्वतीजी और श्री शंकरजी की मैं वंदना करता हूँ, जिनके बिना सिद्धजन अपने अन्तःकरण में स्थित ईश्वर को नहीं देख सकते॥2॥

 

वन्दे बोधमयं नित्यं गुरुं शंकररूपिणम्‌।

यमाश्रितो हि वक्रोऽपि चन्द्रः सर्वत्र वन्द्यते॥3॥

 

ज्ञानमय, नित्य, शंकर रूपी गुरु की मैं वन्दना करता हूँ, जिनके आश्रित होने से ही टेढ़ा चन्द्रमा भी सर्वत्र वन्दित होता है॥3॥

2

Sunday, 30/10/2022

भवानी माता हैं, शंकर पिता हैं, श्रद्धा और विश्वास हैं।

श्रद्धा चरणमें रखे और विश्वास अपने बुद्ध पुरुष के वचन में रखे। मा के चरण में पिता के बोल में श्रद्धा रखे।

भरोसा एक ऐसा शब्द हैं जिसमें श्रद्धा और विश्वास एक हो जाते हैं।

भरोसो द्रढ ईन चरनन केरो

 

दृढ इन चरण कैरो भरोसो, दृढ इन चरणन कैरो ।

श्री वल्लभ नख चंद्र छ्टा बिन, सब जग माही अंधेरो ॥

साधन और नही या कलि में, जासों होत निवेरो ॥

सूर कहा कहे, विविध आंधरो, बिना मोल को चेरो ॥

दृढ इन चरण कैरो भरोसो, दृढ इन चरणन कैरो ।

श्री वल्लभ नख चंद्र छ्टा बिन, सब जग माही अंधेरो ॥

साधन और नही या कलि में, जासों होत निवेरो ॥

सूर कहा कहे, विविध आंधरो, बिना मोल को चेरो

 

विवेक,

बिनु सत्संग बिबेक

बिनु सतसंग बिबेक न होई। राम कृपा बिनु सुलभ न सोई॥

सतसंगत मुद मंगल मूला। सोई फल सिधि सब साधन फूला॥4॥

 

सत्संग के बिना विवेक नहीं होता और श्री रामजी की कृपा के बिना वह सत्संग सहज में मिलता नहीं। सत्संगति आनंद और कल्याण की जड़ है। सत्संग की सिद्धि (प्राप्ति) ही फल है और सब साधन तो फूल है॥4॥

मौन भी एक सतसंग हैं।

किसी भी कला जो शील की घातक न हो की आराधना सतसंग हैं।

हम अपने आप में विशेष हैं, विरल हैं।

साधु प्रहार करके हमें विरक्त करता हैं।

जो प्राप्त हैं वही पर्याप्त हैं।

धन, पद, वृत्ति, वेश, विज्ञान की विशेष खोज करने से विशेष बना जा शकाता हैं लेकिन ऐसी वशेषता कोई महत्व नहीं हैं।

हम जब विश्वास से विशेष बने उसका महत्व हैं।

साधक विवेक -जो  सतसंग से प्राप्त होता हैं, धैर्य, (धीरज की कसोटी आपत काल में हि होती हैं), और आश्रय  से विश्वास को आत्मसात कर शकते हैं।

हमें लंबी ऊंमर साधु संग  करनेके लिये मिलनी चाहिये।

मोह – अज्ञानता हि धनुष हैं जिसको तोडना हैं। मैं मैं करना अज्ञानता है जिसे अहंकार कहते हैं हिसे तोडनेसे सीता प्राप्ति होती हैं।

भाई रे सो गुरु सत्य कहावें

कोई नयनन अलख लखावै

डोलत डिगे न बोलत बिसरे

अस उपदेस दृदावएं

जप तप जोग क्रिया ते न्यारा सहज

समाधि सिखावें

सो गुरु सत्य कहावें

काया-कष्ट भूली नहीं देवें

नहीं संसार छुडावै

ये मन जाए जहँ जहँ

तहाँ तहाँ परमात्मा दरसावै

सो गुरु सत्य कहावें

कर्म करे निष्कर्म रहे कछु ऐसी जुगुति बतावें

सदा बिलास त्रास नहीं मन में, भोग में जोग

जगावे

भीतर बाहर एक ही देखें दूजा दृष्टी न आवें

कहे कबीर कोई सत गुरु ऐसा आवागमन छुडावै

सो गुरु सत्य कहावें

जो बुद्ध पुरुष से डरता हैं वह दुनिया में अभय हो जाता हैं।

 

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3

Monday, 31/10/2022

श्रीनाथ, महादेव और रघुनाथ कथा का समन्वय हैं।

परमात्माके स्वरुप का लोकार्पण केवल एक व्यक्ति द्वारा नहीं हुआ हैं।

भवानी श्रद्धा हैं, शंकर विश्वास हैं।

श्रद्धा के बिना ज्ञान और विश्वास के बिना भक्ति प्राप्त नहीं मिलती हैं।

महादेव नित्य बोध और नित्य गुरु हैं।

गुरु के नव प्रकार हैं।

नित्य बोध मुश्किल हैं।

नित्य गुरु

अनित्य गुरु – कामचलाउ गुरु

काल केतु का मतलब अवसरवादी होता हैं।

एक गुरु नित्य गुरु, शास्वत गुरु होता हैं।

 

नित नूतन गुरु भी होता हैं।

रोज नूतन रहना चाहिये, रोज नया होना चाहिये।

प्रवासी गुरु नूतन गुरु हैं। प्रवासी गुरु वासी नहीं होता हैं। गुरु प्रमादी नहीं होना चाहिये।

भगवान शंकर जो अष्टमूर्ति हैं उसे आठ दाग लगे हैं और ऐसा आक्षेप लगानेवाला सप्तऋषि हैं।

 

 

4

Tuesday, 01/11/2022

मंथन न करो लेकिन सेतु बनावो।

साधु समाज को जोडता हैं, साधु को एकांत प्रिय होता हैं, साधु मौन रहता हैं, साधु अपरिग्रही रहता हैं, साधु भीड में रहते हुए असंग रहता हैं, साधु विवेक पूर्ण रीतसे अपनी ईन्द्रीयों को नियंत्रित करता हैं,  साधु श्रम करता हैं – प्रमादी नहीं रहता हैं, साधु सहन करके तप करता हैं, साधु तपस्वी होता हैं, साधु अपनी क्रिया में मस्त रहता हैं, साधु सब की सेवा करता हैं लेकिन स्मरण हरि का करता हैं, यह लक्षण विश्वास के लक्षण भी हैं।

सब में शांति, भक्ति हैं, सिर्फ उसका वर्धन करना आवश्यक हैं।

निरव शांति त्याग से आती हैं।

श्रवण और किर्तन करने से भक्ति का वर्धन होता हैं।

भक्ति प्रती क्षण वर्धन होनी चाहिये।

यह शिव प्रतिमा में शिव का दाया चरण परम पद हैं, बाया चरण चरम पद – अंतिम उपलब्धि हैं – विश्राम हैं, बाया हाथ अभय प्रदान करता हैं, दाया हाथ वरद हाथ हैं, सर्प मृत्यु के भय को दूर करने का प्रतीक हैं, त्रिशुल हमारे तीनो प्रकार के शूल को मिटा ने का प्रतीक हैं, जटा जिंदगी की जंजाल हैं जो संकेते करते हैं कि जंजाल को शोभा बनाओ, आंख सूर्य, चंद्र और अग्नि हैं – प्रेम की अग्नि ज्वाला हैं, गंगा भव से भीगी बुद्धि हैं।

शिव साधु हैं तो भवानी साधुता हैं।

 

मम दरसन फल परम अनूपा। जीव पाव निज सहज सरूपा॥

जनकसुता कइ सुधि भामिनी। जानहि कहु करिबरगामिनी॥5॥

 

 मेरे दर्शन का परम अनुपम फल यह है कि जीव अपने सहज स्वरूप को प्राप्त हो जाता है। हे भामिनि! अब यदि तू गजगामिनी जानकी की कुछ खबर जानती हो तो बता॥5॥

 

 

5

Wednesday, 02/11/2022

वदन्तु शास्त्राणि यजन्तु देवान

कुर्वन्तु कर्माणि भजन्तु  देवताः |

आत्मैक्य बोधेन विना विमुक्ति:

न सिध्यते ब्रह्मशतान्तरे अपि ||

 

भले ही कोई सभी शास्त्रों का वर्णन करे , सभी देवताओ का पूजन करे , चाहे सभी कर्मो को अच्छे से करे , अपने इष्ट का अछे से भजन करे  परन्तु जब तक जीव ब्रह्म के एकत्व का बोध नहीं हो जाता तब तक मुक्ति नहीं मिल सकती भले ही सौ ब्रह्माओ की आयु क्यों न बीत जावे |

[विवेक चूड़ा मणि ||६||]

बिना आअत्मबोध कभी भी मुक्ति नहीं मिलती हैं।

 

आत्मा त्वं गिरिजा मतिः सहचराः प्राणाः शरीरं गृहं

पूजा ते विषयोपभोग-रचना निद्रा समाधि-स्थितिः।

सञ्चारः पदयोः प्रदक्षिणविधिः स्तोत्राणि सर्वा गिरो

यद्यत्कर्म करोमि तत्तदखिलं शम्भो तवाराधनम्॥

 

हे शम्भो, मेरी आत्मा तुम हो, बुद्धि पार्वतीजी हैं, प्राण आपके गण हैं, शरीर आपका मन्दिर है, सम्पूर्ण विषयभोगकी रचना आपकी पूजा है, निद्रा समाधि है, मेरा चलना-फिरना आपकी परिक्रमा है तथा सम्पूर्ण शब्द आपके स्तोत्र हैं। इस प्रकार मैं जो-जो कार्य करता हूँ, वह सब आपकी आराधना ही है।

 

विश्वास का कोई अंत नहीं हैं।

शब्द हमें छिपा शकता हैं।

गुरु और वेदांत के वाक्यो में विश्वास करना हि श्रद्धा हैं।

हिमालय अटल विश्वास का प्रतीक हैं जहां से श्रद्धा उत्पन्न हुई हैं।

जो अपनी गलतीओ से कुछ शीखता नहीं हिं वह गलतीओ का अपमान करते हैं, गलती को भी गुरु बनाना चाहिये।

विश्वास का कोई पर्याय नहीं हैं।

शंकर आठ बार आया हैं।

विश्वास – शंकर के १० लक्षण …….

शिव आत्मा हैं, शिव बोध हैं।

 

सैल सुलच्छन सुता तुम्हारी। सुनहु जे अब अवगुन दुइ चारी॥

अगुन अमान मातु पितु हीना। उदासीन सब संसय छीना॥4॥

 

हे पर्वतराज! तुम्हारी कन्या सुलच्छनी है। अब इसमें जो दो-चार अवगुण हैं, उन्हें भी सुन लो। गुणहीन, मानहीन, माता-पिताविहीन, उदासीन, संशयहीन (लापरवाह)॥4॥

दोहा :

 

जोगी जटिल अकाम मन नगन अमंगल बेष।

अस स्वामी एहि कहँ मिलिहि परी हस्त असि रेख॥67॥

 

योगी, जटाधारी, निष्काम हृदय, नंगा और अमंगल वेष वाला, ऐसा पति इसको मिलेगा। इसके हाथ में ऐसी ही रेखा पड़ी है॥67॥

नारद यह लक्षण बताते हैं।

अगुण

विश्वास में सतो गुण, रजो गुण, तमो गुण नहीं हैं।

श्रद्धा में तीनो गुण हैं।

साधु हि विश्वास हैं।

ब्रह्म एक हैं लेकिन उपनुषदने पांच ब्रह्म बताये हैं।

अन्न ब्रह्म हैं …….. उपनिषद

प्राण ब्रह्म हैं

मन, विज्ञान, आनंद ब्रह्म हैं।

 

अन्नं ब्रह्मेति व्यजानात्‌।

अन्नाद्‌ध्येव खल्विमानि भुतानि जायन्ते।

अन्नेन जातानि जीवन्ति।

अन्नं प्रयन्त्यभिसंविशन्तीति।

तद्विज्ञाय।पुनरेव वरुणं पितरमुपससार।

अधीहि भगवो ब्रह्मेति।तं होवाच। तपसा ब्रह्म विजिज्ञासस्व।

तपो ब्रह्मेति।स तपोऽतप्यत। स तपस्तप्त्वा॥

 

He knew food for the Eternal. For from food alone, it appeareth, are these creatures born and being born they live by food, and into food they depart and enter again. And when he had known this, he came again to Varouna his father and said “Lord, teach me the Eternal.” And his father said to him “By askesis do thou seek to know the Eternal, for concentration in thought is the Eternal.” He concentrated himself in thought and by the energy of his brooding

 

उन्होंने जाना कि अन्न ही 'ब्रह्म ' है। क्योंकि ऐसा प्रतीत होता है कि अन्न से ही समस्त प्राणी उत्पन्न होते हैं तथा उत्पन्न होकर ये अन्न के द्वारा ही जीवित रहते हैं तथा अन्न में ही ये पुनः लौटकर समाविष्ट हो जाते हैं। जब उन्होंने यह जान लिया तो वे पुनः अपने पिता वरुण के पास आये और बोले ''हे भगवन् मुझे 'ब्रह्म' की शिक्षा दीजिये।'' उनके पिता ने उनसे कहा, ''तप के द्वारा तुम 'ब्रह्म' को जानने का प्रयास करो, क्योंकि मनन में एकाग्रता ही 'ब्रह्म' है।'' भृगु अपने मनन में एकाग्र हो गये तथा अपने मनन की तपऊर्जा से...

 

 

 शिव अन्न हैं।

 

प्राणो ब्रह्मेति व्यजानात्‌।

प्राणाद्‌ध्येव खल्विमानि भूतानि जायन्ते।प्राणेन जातानि जीवन्ति।

प्राणं प्रयन्त्यभिसंविशन्तीति।

तद्विज्ञाय। पुनरेव वरुणं पितरमुपससार।

अधीहि भगवो ब्रह्मेति।

तं होवाच।

तपसा ब्रह्म विजिज्ञासस्व। तपो ब्रह्मेति।

स तपोऽतप्यत। स तपस्तप्त्वा॥

 

He knew Prana for the Eternal. For from Prana alone, it appeareth, are these creatures born and being born they live by Prana and to Prana they go hence and return. And when he had known this, he came again to Varuna his father and said “Lord, teach me the Eternal.” But his father said to him “By askesis do thou seek to know the Eternal, for askesis in thought is the Eternal.” He concentrated himself in thought and by the energy of his brooding

 

उन्होंने जाना कि 'प्राण' ही 'ब्रह्म' है। क्योंकि ऐसा प्रतीत होता है कि प्राणी से ही इन समस्त प्राणियों का जन्म होता है तथा उत्पन्न होकर ये प्राणों के द्वारा ही जीवित रहते हैं तथा प्राणों में ही ये पुनः लौटकर समाविष्ट हो जाते हैं। और जब उन्होंने यह जान लिया, वे पुनः अपने पिता वरुण के पास आये और बोले, ''हे भगवन् मुझे 'ब्रह्म' की शिक्षा दीजिये। किन्तु उनके पिता ने कहा, ''तुम तप के द्वारा 'ब्रह्म' को जानने का प्रयास करो, क्योंकि मनन में तप ही 'ब्रह्म' है।'' भृगु ने मनन में स्वयं को एकाग्र किया तथा अपने मनन को तप-ऊर्जा से...

 

आनन्दो ब्रह्मेति व्यजानात्।

आनन्दाध्येव खल्विमानि भूतानि जायन्ते।

आनन्देन जातानि जीवन्ति।

आनन्दं प्रयन्त्यभिसंविशन्तीति।

सैषा भार्गवी वारुणी विद्या।

परमे व्योमन्प्रतिष्ठिता।

स य एवं वेद प्रतितिष्ठति।

अन्नवानन्नादो भवति।

महान्भवति प्रजया पशुभिर्ब्रह्मवर्चसेन अहान्‌ कीर्त्या॥

 

He knew Bliss for the Eternal. For from Bliss alone, it appeareth, are these creatures born and being born they live by Bliss and to Bliss they go hence and return. This is the lore of Bhrigu, the lore of Varouna, which hath its firm base in the highest heaven. Who knoweth, getteth his firm base, he becometh the master of food and its eater, great in progeny, great in cattle, great in the splendour of holiness, great in glory.

 

उन्होंने जाना कि 'आनन्द' ही 'ब्रह्म' है। क्योंकि ऐसा प्रतीत होता है कि केवल 'आनन्द' से ही ये समस्त प्राणी उत्पन्न हुए हैं तथा उत्पन्न होकर आनन्द के द्वारा ही ये जीवित रहते हैं तथा प्रयाण करके 'आनन्द' में ही ये समाविष्ट हो जाते है। यही है भार्गवी (भृगु की) विद्या, यही है वारुणी (वरुण की) विद्या जिसकी परम व्योम द्युलोकः में सुदृढ प्रतिष्ठा है। जो यह जानता है, उसको भी सुदृढ प्रतिष्ठा मिलती है। वह अन्न का स्वामी (अन्नवान्) एवं अन्नभोक्ता बन जाता है। वह प्रजा सन्ततिः से, पशुधन से, ब्रह्मतेज से महान हो जाता है, वह कीर्ति से महान् बन जाता है।

 

विश्वासो ब्रमेति व्यजानाम्‌

विश्वास गुणातित हैं।

अमान

विश्वास अयोनीज हैं, स्वयंभू हैं, मातापिता हिना हैं।

उदासिन

संशय छिना

जोगी

विश्वास किसीका शोषण नहीं करता हाइ< विश्वास योगीश्वर हैं, योगी हैं।

जटा जुट

अकाम

विश्वास कोई कामना नहीं करता हैं।

 

दिगंबर

विश्वास मे जैसा हैं वैसा दिखाना, आंतर बाह्य कोई कपट नहीं हैं।

अमंगल वेश

 

जपहु जाइ संकर सत नामा। होइहि हृदयँ तुरत बिश्रामा॥

कोउ नहिं सिव समान प्रिय मोरें। असि परतीति तजहु जनि भोरें॥3॥

 

(भगवान ने कहा-) जाकर शंकरजी के शतनाम का जप करो, इससे हृदय में तुरंत शांति होगी। शिवजी के समान मुझे कोई प्रिय नहीं है, इस विश्वास को भूलकर भी न छोड़ना॥3॥

6

Thursday, 03/11/2022

मानस में शंकर शब्द ८ बार आया हैं जो विश्वास स्वरुपम का संकेत हैं।

मंगलाचरण में ७ बार और रुद्राष्टकम्‌ में १ बार आया हैं।

श्रद्धा और विश्वास मे क्या फर्क हैं?

शिवका गुरु रुप …….

गुरु के १२ रुप हैं।

 

वन्दे बोधमयं नित्यं गुरुं शंकररूपिणम्‌।

यमाश्रितो हि वक्रोऽपि चन्द्रः सर्वत्र वन्द्यते॥3॥

 

ज्ञानमय, नित्य, शंकर रूपी गुरु की मैं वन्दना करता हूँ, जिनके आश्रित होने से ही टेढ़ा चन्द्रमा भी सर्वत्र वन्दित होता है॥3॥

अंतःकरण जब पूर्ण तरफ पवित्र होता हैं तब कुछ अनुभूति होती हैं।

बुद्ध पुरुष के पास मौन बैठने में - अव्यक्त रहने में बहुत आनंद आता हैं।

धातुवादी गुरु

खनीज शास्त्री धातु नीकालता हैं। ऐसे हि गुरु अपने आश्रित की अंतःकरण को खोदता हैं और इस तरफ उस को बोध देता हैं।

चंदन गुरु

ऐसे गुरु के पास आनेसे ऐसा गुरु अपनी खुशबु अपने आश्रितमें डालता हैं।

विचार गुरु

ऐसा गुरु शास्वत कया हैं और नाशवंत क्या हैं वह बताता हैं।

ऐसा गुरु आश्रित को विचार की छूट देता हैं
अनुग्रह गुरु

ऐसा गुरु अनुग्रह करता हैं, कृपा करता है

पारसमणि गुरु

कछुआ गुरु जो अवलोकनसे अपने आश्रित को चेतना से जागृत करता हैं।

चंद्र गुरु

ऐसे गुरु के पास कभी बादल आ जाता हैं।

दर्पण गुरु

ऐसा गुरु गुढ रहस्यका दर्शन दर्पण बनकर दीखाता हैं।

छायाबिधी गुरु

छाया पक्षी की छाया जिस पर पडे वह राजा बन जाता हैं।

ऐसा गुरु अपने आश्रित को श्वत्व का बोध  करता हैं।

१०

नादविधी गुरु

11

12

कौंच गुरु जो चिंतनसे पने आश्रित को बोध करता हैं।

श्रीरुप शंकर

यस्यांके    विभाति  भूधरसुता  देवापगा  मस्तके

भाले  बालविधुर्गले    गरलं  यस्योरसि  व्यालराट्।

सोऽयं  भूतिविभूषणः  सुरवरः  सर्वाधिपः  सर्वदा

शर्वः  सर्वगतः  शिवः  शशिनिभः  श्री  शंकरः  पातु  माम्‌॥1॥

 

जिनकी  गोद  में  हिमाचलसुता  पार्वतीजी,  मस्तक  पर  गंगाजी,  ललाट  पर  द्वितीया  का  चन्द्रमा,  कंठ  में  हलाहल  विष  और  वक्षःस्थल  पर  सर्पराज  शेषजी  सुशोभित  हैं,  वे  भस्म  से  विभूषित,  देवताओं  में  श्रेष्ठ,  सर्वेश्वर,  संहारकर्ता  (या  भक्तों  के  पापनाशक),  सर्वव्यापक,  कल्याण  रूप,  चन्द्रमा  के  समान  शुभ्रवर्ण  श्री  शंकरजी  सदा  मेरी  रक्षा  करें॥1॥

यह मूर्ति आभा रुप शंकर हैं।

 

स्वयंभू शंकर

मूलं धर्मतरोर्विवेकजलधेः पूर्णेन्दुमानन्ददं

वैराग्याम्बुजभास्करं ह्यघघनध्वान्तापहं तापहम्‌।

मोहाम्भोधरपूगपाटनविधौ स्वःसम्भवं शंकरं

वंदे ब्रह्मकुलं कलंकशमनं श्री रामभूपप्रियम्‌॥1॥

 

धर्म रूपी वृक्ष के मूल, विवेक रूपी समुद्र को आनंद देने वाले पूर्णचन्द्र, वैराग्य रूपी कमल के (विकसित करने वाले) सूर्य, पाप रूपी घोर अंधकार को निश्चय ही मिटाने वाले, तीनों तापों को हरने वाले, मोह रूपी बादलों के समूह को छिन्न-भिन्न करने की विधि (क्रिया) में आकाश से उत्पन्न पवन स्वरूप, ब्रह्माजी के वंशज (आत्मज) तथा कलंकनाशक, महाराज श्री रामचन्द्रजी के प्रिय श्री शंकरजी की मैं वंदना करता हूँ॥1॥

 

शंखेन्द्वाभमतीवसुन्दरतनुं शार्दूलचर्माम्बरं

कालव्यालकरालभूषणधरं गंगाशशांकप्रियम्‌।

काशीशं कलिकल्मषौघशमनं कल्याणकल्पद्रुमं

नौमीड्यं गिरिजापतिं गुणनिधिं कन्दर्पहं शंकरम्‌॥2॥

 

 शंख और चंद्रमा की सी कांति के अत्यंत सुंदर शरीर वाले, व्याघ्रचर्म के वस्त्र वाले, काल के समान (अथवा काले रंग के) भयानक सर्पों का भूषण धारण करने वाले, गंगा और चंद्रमा के प्रेमी, काशीपति, कलियुग के पाप समूह का नाश करने वाले, कल्याण के कल्पवृक्ष, गुणों के निधान और कामदेव को भस्म करने वाले, पार्वती पति वन्दनीय श्री शंकरजी को मैं नमस्कार करता हूँ॥2॥

 

यो ददाति सतां शम्भुः कैवल्यमपि दुर्लभम्‌।

खलानां दण्डकृद्योऽसौ शंकरः शं तनोतु मे॥3॥

 

 जो सत्‌ पुरुषों को अत्यंत दुर्लभ कैवल्यमुक्ति तक दे डालते हैं और जो दुष्टों को दण्ड देने वाले हैं, वे कल्याणकारी श्री शम्भु मेरे कल्याण का विस्तार करें॥3॥

प्रियम्‌ शंकर – सर्वनाथ शंकर

चलत्कुंलं भ्रू सुनेत्रं विशालं। प्रसन्नानं नीलकंठं दयालं।।

मृगाधीशचरमाम्बरं मुण्डमालं। प्रियं शंकरं सर्वनाथं भजामि।।4।।

 

जिनके कानों के कुण्डल हिल रहे हैं, सुन्दर भृकुटी और विशाल नेत्र हैं; जो प्रसन्नमुख, नीलकण्ठ और दयालु हैं; सिंहचर्म का वस्त्र धारण किये और मुण्डमाला पहने हैं; उन सबके प्यारे और सबके नाथ [कल्याण करनेवाले] श्रीशंकरजी को मैं भजता हूँ।।4।।

 

 

7

Friday, 04/11/2022

विश्वास एक हि हैं, एक आश विश्वास हैं।

सत्य भी एक होते हुए उसे कई द्रष्टि - तरह देखा गया हैं।

हाथी का संपूर्ण परिचय चार अंधे अलग अलग रुप से देते हैं।

अपनी गुरु की आंख से परिचय संपूर्ण परिचय मिल शकता हैं।

जिस गुरु में आठ प्रकार का बोध हैं उसकी आंखसे देल्हने से संपूर्ण परिचय मिलता हैं।

 

गुरु पद रज मृदु मंजुल अंजन। नयन अमिअ दृग दोष बिभंजन॥

तेहिं करि बिमल बिबेक बिलोचन। बरनउँ राम चरित भव मोचन॥1॥

 

श्री गुरु महाराज के चरणों की रज कोमल और सुंदर नयनामृत अंजन है, जो नेत्रों के दोषों का नाश करने वाला है। उस अंजन से विवेक रूपी नेत्रों को निर्मल करके मैं संसाररूपी बंधन से छुड़ाने वाले श्री रामचरित्र का वर्णन करता हूँ॥1॥

 

बंदऊँ गुरु पद पदुम परागा। सुरुचि सुबास सरस अनुरागा॥

अमिअ मूरिमय चूरन चारू। समन सकल भव रुज परिवारू॥1॥

 

मैं गुरु महाराज के चरण कमलों की रज की वन्दना करता हूँ, जो सुरुचि (सुंदर स्वाद), सुगंध तथा अनुराग रूपी रस से पूर्ण है। वह अमर मूल (संजीवनी जड़ी) का सुंदर चूर्ण है, जो सम्पूर्ण भव रोगों के परिवार को नाश करने वाला है॥1॥

 

हमारा जीवन ग्रंथ सिर्फ गुरु हि पढ शकता हैं।

गुरु की आंख हमारी पंख हैं।

ऐसी आंख जिस में किसी से विरोध न हो, जिस में सिर्फ बोध हि हो।

जो आंख पुजारी हो कर हमें दिखे, शिकारी कि तरफ न देखे, विकारी न हो।

गुरु सदा जागता हि रहता हैं, उसे अपने आश्रित की प्रतिक्षा सदा रहती हैं।

बोध स्वरुप. नित्य स्वरुप गुरु होता हैं।

गुरु वह हैं जो नित्य गुरु, शास्वत गुरु, विशुद्ध बोध विग्रह जो विकल्प रहित हैं, निर्विकल्प हैं, व्यापक स्वरुप, वेद स्वरुप,  अमित बोध स्वरुप, यथार्थ बोध, अमित बोध, सुबोध, सम्यक बोध,

 

षट बिकार जित अनघ अकामा। अचल अकिंचन सुचि सुखधामा॥

अमित बोध अनीह मितभोगी। सत्यसार कबि कोबिद जोगी॥4॥

 

 वे संत (काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद और मत्सर- इन) छह विकारों (दोषों) को जीते हुए, पापरहित, कामनारहित, निश्चल (स्थिरबुद्धि), अकिंचन (सर्वत्यागी), बाहर-भीतर से पवित्र, सुख के धाम, असीम ज्ञानवान्‌, इच्छारहित, मिताहारी, सत्यनिष्ठ, कवि, विद्वान, योगी,॥4॥

 

बिरति बिबेक बिनय बिग्याना। बोध जथारथ बेद पुराना॥

दंभ मान मद करहिं न काऊ। भूलि न देहिं कुमारग पाऊ॥3॥

 

 तथा वैराग्य, विवेक, विनय, विज्ञान (परमात्मा के तत्व का ज्ञान) और वेद-पुराण का यथार्थ ज्ञान रहता है। वे दम्भ, अभिमान और मद कभी नहीं करते और भूलकर भी कुमार्ग पर पैर नहीं रखते॥3॥

 

तदपि कही गुर बारहिं बारा। समुझि परी कछु मति अनुसारा॥

भाषाबद्ध करबि मैं सोई। मोरें मन प्रबोध जेहिं होई॥1॥

 

तो भी गुरुजी ने जब बार-बार कथा कही, तब बुद्धि के अनुसार कुछ समझ में आई। वही अब मेरे द्वारा भाषा में रची जाएगी, जिससे मेरे मन को संतोष हो॥1॥

8

Saturday, 05/11/2022

आदि शंकर भगवानने समाधि में कुछ विघ्न का निर्देश किया हैं।

ग्रम्थि मुक्त बुद्ध पुरुष ग्रंथ का रोज नया अर्थ निकालते हैं।

अनुसंधान राहित्य – बारबार अनुसंधान तूट जाते हैं।

आलस प्रमाद आने लगे।

भोग विलास की लालसा

लयस्य आना- नींद आ जाना।

प्रगाढ अंधकार दिखाई ए

कई प्रकारके भय का अक्रमण

रसका स्वाद लेनए की ईच्छा

शून्यता

 

समाधि के पांच प्रकार हैं।

विश्वास समाधि आखिरी समाधि हैं। ईस समाधि में उपरोक्त विघ्न सहायक होते हैं।

विचार समाधि एक प्रकार हैं – विचारो में डूब जाना यह विचार समाधि हैं।

बुद्ध पुरुष की प्रत्येक चेष्टा समाधि हैं।

हरि के विचार में डूब जाना समाधि हैं, अन्य के लिये शुभ विचार में डूब जाना भी सम्माधि हैं।

किसीके प्रेम में डूब जाना भी समाधि हैं।

सर्वे भवन्तु सुखिन भी समाधि हैं।

विचार शुन्यता भी समाधि हैं।

जिस को कुछ नहीं चाहना बादशाही हैं।

अपने गुरु पर स्वप्न में शंका न कर वह डोवोटी हैं।

वेदान्त विचार में डूब रहना बादशाही हैं, समाधि हैं।

विवेक समाधि – अपनी टिका सुनकर भी अपने विवेक को बरकार रखकर कुछ न कहना समाधि हैं, अपनी टिकाको भूल जाना, मनमें न लाना समाधि हैं।

हमारी ईच्छा के अनुसार परिणाम आये तो हरि कृपा

विलास समाधि -चैतस्तिक विलास में रहना समाधि हैं।

पूज पाठ में मग्न रहना भक्ति हैं।

परम के वियोग में विहवल रहना भक्ति हैं।

अपने आप भजन बढाते हुए अमुक वस्तु अपने आप छूट जाय वह भी समाधि हैं।

व्रजगाण के आंसु समाधि हैं।

प्रसन्नतामें डूब जाना समाधि हैं।

सहज में सब छूटने लगे वह समाधि हैं।

संसार से भागने से कुछ नहीं होगा, संसार में जागने से सब कुछ होगा।

भरोसि ड्रढ इन चरणन केरो ……..

विश्वास के आश्रय में नीद्रा स्माधि हैं।

अत्यंत प्रकाश हमे कुछ दिखने नहीं देता हैं लेकिन अत्यंत अंधेरे में कुछ दिखाई देता हैं, भनानंदी को अम्धेरे में ज्यादा आनंद आता हैं।

परम विश्वासु को कोई भय नहीं लगता हैं।

हरिनाम का रसास्वाद समाधि हैं।

विश्वास की यात्रामें रस लेना चाहिये।

शून्यता भीतर से हमें खाली कर देता हैं।

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Sunday, 06/11/2022

राम कथा विश्वास से शुरु और विश्राम में विराम की यात्रा हैं।

सब को विवेक, धैर्य और आश्रय रखना चाहिये।

भगवान शिव पंच मुख हैं।

विश्वास स्वरुपम्‌ शिव के पंच मुख सन्मुख – सन्मुख रहकर सब का कल्याण करनेवाला, गुरु मुख, वेद मुख, गोमुख जहां से गंगा नीकली हैं, जो गाय जैसे भोले हैं।


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