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Saturday, December 3, 2022

માનસ કેવટ - 908

 

રામ કથા - 908

માનસ કેવટ

ભાવનગર, ગુજરાત

શનિવાર, તારીખ ૦૩/૧૨/૨૦૨૨ થી રવિવાર તારીખ ૧૧/૧૨/૨૦૨૨

મુખ્ય ચોપાઈ

केवट  बुध  बिद्या  बड़ि  नावा 

सकहिं    खेइ  ऐक  नहिं  आवा

मागी  नाव    केवटु  आना 

कहइ  तुम्हार  मरमु  मैं  जाना

 

 

શનિવાર, ૦૩/૧૨/૨૦૨૨

 

बिषम  बिषाद  तोरावति  धारा  भय  भ्रम  भवँर  अबर्त  अपारा

केवट  बुध  बिद्या  बड़ि  नावा  सकहिं    खेइ  ऐक  नहिं  आवा2॥

 

भयानक  विषाद  (शोक)  ही  उस  नदी  की  तेज  धारा  है  भय  और  भ्रम  (मोह)  ही  उसके  असंख्य  भँवर  और  चक्र  हैं  विद्वान  मल्लाह  हैं,  विद्या  ही  बड़ी  नाव  है,  परन्तु  वे  उसे  खे  नहीं  सकते  हैं,  (उस  विद्या  का  उपयोग  नहीं  कर  सकते  हैं)  किसी  को  उसकी  अटकल  ही  नहीं  आती  है॥2॥

 

मागी  नाव    केवटु  आना  कहइ  तुम्हार  मरमु  मैं  जाना

चरन  कमल  रज  कहुँ  सबु  कहई  मानुष  करनि  मूरि  कछु  अहई॥2॥

 

श्री  राम  ने  केवट  से  नाव  माँगी,  पर  वह  लाता  नहीं  वह  कहने  लगा-  मैंने  तुम्हारा  मर्म  (भेद)  जान  लिया  तुम्हारे  चरण  कमलों  की  धूल  के  लिए  सब  लोग  कहते  हैं  कि  वह  मनुष्य  बना  देने  वाली  कोई  जड़ी  है,॥2॥ 

પર્વત તૃણને પોતાના શિર ઉપર રાખે છે.

મોક્ષનો પણ સંન્યાસ લેવો જોઈએ.

રા – માનસ -હ્નદય, જો દિલથી આગળ વધીએ તો

 

રિ

મા

હ્નદયવાળો માણસ ચરિત નિર્વાણ થાય.

સપ્ત સિધું, ૧૪ લોક – સાત ઉપર, સાત નીચે, જ્ઞાનની ભૂમિકા પણ સાત છે, સંગીતના સુર સાત છે, દશાવતારમાં રામ સાતમો અવતાર છે, વગેરે સાતનો મહિમા છે.

આજે ગીતા જયંતિ છે.

ભગવાન એટલે જે તત્વ પૃથ્વી, આકાશ, વાયુ, અગ્નિ અને જળ માં સમાવિષ્ટ છે, ભ એટલે પૃથ્વી, ગ એટલે ગગન – આકાશ, વ એટલે વાયુ, અ એટલે અગ્નિ અને ન એટલે નીર – જળ.

મહાવીર એ છે જે મદ, મદન - કામ અને મત્સરને - ઈર્ષાને મારી શકે.

 

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Sunday, 04/12/2022

કેવટનું પાત્ર માનસમાં મધ્યમાં આવે છે, મધ્ય મહત્વનું છે.

કેવટ બનવું અઘરું છે.

બાલકાંડ્નો પ્રારંભ, અયોધ્યાકાંડ નો મધ્ય અને ઉત્તરકાંડ નો ભાગ જે સમજે છે તે સંત છે એવું અયોધ્યાવાસીઓ માને છે.

શ્રોતા વક્તા બંને જ્ઞાન નિધી છે.

મિલન માણસને પરિતૃપ્ત કરે પણ વિરહ માણસને પરિશુદ્ધ કરે. તેથી વિરહને વધારે મહત્વનો છે.

રામ કથા રામના પરમ સત્યની, ભરતના પરમ પ્રેમ અને સીતાની કરુણાની કથા છે.

 

कलिजुग सम जुग आन नहिं जौं नर कर बिस्वास

गाइ राम गुन गन बिमल भव तर बिनहिं प्रयास।।103।।

 

यदि मनुष्य विश्वास करे, तो कलियुग के समान दूसरा युग नहीं है। [क्योंकि] इस युगमें श्रीरामजीके निर्मल गुणोंसमूहों को गा-गाकर मनुष्य बिना ही परिश्रम संसार [रूपी समुद्र] से तर जाता है।।103()।।

પરંપરા પ્રવાહી હોવી જોઈએ અને પવિત્ર પણ હોવી જોઈએ.

સાધનને સાધ્ય ન બનાવવું તેમજ સાધ્યને સાધન પણ ન બનાવવું.

ન્યાધીશે ગીતા ઉપર હાથ રાખીને ન્યાય કરવો જોઈએ.

વર્તમાન જીવનમાં ઑડકાર આવવો જોઈએ.

જ્ઞાન નૌકા છે પણ કેવટ વગરની નૌકા છે.

જ્ઞાન નૌકાનો કેવટ પ્રેમ છે.

 

सोह    राम  पेम  बिनु  ग्यानू  करनधार  बिनु  जिमि  जलजानू

मुनि  बहुबिधि  बिदेहु  समुझाए  राम  घाट  सब  लोग  नहाए॥3॥

 

श्री  रामजी  के  प्रेम  के  बिना  ज्ञान  शोभा  नहीं  देता,  जैसे  कर्णधार  के  बिना  जहाज  वशिष्ठजी  ने  विदेहराज  (जनकजी)  को  बहुत  प्रकार  से  समझाया  तदनंतर  सब  लोगों  ने  श्री  रामजी  के  घाट  पर  स्नान  किया॥3॥

 

आश्रम  सागर  सांत  रस  पूरन  पावन  पाथु

सेन  मनहुँ  करुना  सरित  लिएँ  जाहिं  रघुनाथु॥275॥

 

श्री  रामजी  का  आश्रम  शांत  रस  रूपी  पवित्र  जल  से  परिपूर्ण  समुद्र  है  जनकजी  की  सेना  (समाज)  मानो  करुणा  (करुण  रस)  की  नदी  है,  जिसे  श्री  रघुनाथजी  (उस  आश्रम  रूपी  शांत  रस  के  समुद्र  में  मिलाने  के  लिए)  लिए  जा  रहे  हैं॥275॥

ગતિ કરવા માટે નૌકાએ કેવટ પાસે જવું જોઈએ.

કથા ફળ છે જેને વાગોળવાથી રસ આવે.

પ્રેમ અને કરુણામાં તેને પાર કરવાનું નથી હોતું પણ ડૂબી જવાનું હોય.

જે અનપેક્ષ છે તે જ પવિત્ર છે.

સારી ઈચ્છા પણ બંધન જ છે.

 

अनपेक्षः शुचिर्दक्ष उदासीनो गतव्यथः

सर्वारम्भपरित्यागी यो मद्भक्तः मे प्रियः।।12.16।।

 

।।12.16।।जो आकाङ्क्षासे रहित, बाहर-भीतरसे पवित्र, दक्ष, उदासीन, व्यथासे रहित और सभी आरम्भोंका अर्थात् नये-नये कर्मोंके आरम्भका सर्वथा त्यागी है, वह मेरा भक्त मुझे प्रिय है

।।12.16।। जो अपेक्षारहित, शुद्ध, दक्ष, उदासीन, व्यथारहित और सर्वकर्मों का संन्यास करने वाला मेरा भक्त है, वह मुझे प्रिय है।।

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Monday, 05/12/2022

 

अहं सर्वस्य प्रभवो मत्तः सर्वं प्रवर्तते

इति मत्वा भजन्ते मां बुधा भावसमन्विताः

 

मैं प्रत्येक पदार्थ का जनक हूँ, मुझसे सब कुछ (कर्म और गति रूप विकास में) प्रवृत्त होता है; ऐसा जानकर ज्ञानी मनुष्य हार्दिक प्रेममयी भावना के साथ मेरी भक्ति-उपासना करते हैं

નભ વાણી, શબ્દ આકાશમાંથી પ્રગટ્યો છે, નાભી વાણી – સાધુ સંતની વાણી, નિર્દંભ વાણી

અંગદ અને હનુમાનજી વચ્ચેનો સંવાદ નિર્દંભ વાણી છે, અંગદ રાજદૂત છે, હનુમાનજી રામ દૂત છે.

નારીના પાંચ સ્વરુપ છે.

માતૃ માં પાંચ કાયા - બુદ્ધિ કાયા, વિવેક કાયા, ચિત કાયા, બૌદ્ધિક કાયા, સંસ્કાર કાયા છે.

અબળામાં પ્રચંડ શક્તિ હોય છે.

 

गरुड़ सुमेरु रेनु सम ताहीराम कृपा करि चितवा जाही

अति लघु रूप धरेउ हनुमानापैठा नगर सुमिरि भगवाना॥2॥

 

और हे गरुड़जी! सुमेरु पर्वत उसके लिए रज के समान हो जाता है, जिसे श्री रामचंद्रजी ने एक बार कृपा करके देख लियातब हनुमान्जी ने बहुत ही छोटा रूप धारण किया और भगवान्का स्मरण करके नगर में प्रवेश किया॥2॥

 

मंदिर मंदिर प्रति करि सोधादेखे जहँ तहँ अगनित जोधा

गयउ दसानन मंदिर माहींअति बिचित्र कहि जात सो नाहीं॥3॥

 

उन्होंने एक-एक (प्रत्येक) महल की खोज कीजहाँ-तहाँ असंख्य योद्धा देखेफिर वे रावण के महल में गएवह अत्यंत विचित्र था, जिसका वर्णन नहीं हो सकता॥3॥

 

सयन किएँ देखा कपि तेहीमंदिर महुँ दीखि बैदेही

भवन एक पुनि दीख सुहावाहरि मंदिर तहँ भिन्न बनावा॥4॥

 

हनुमान्जी ने उस (रावण) को शयन किए देखा, परंतु महल में जानकीजी नहीं दिखाई दींफिर एक सुंदर महल दिखाई दियावहाँ (उसमें) भगवान्का एक अलग मंदिर बना हुआ था॥4॥

 

रामायुध अंकित गृह सोभा बरनि जाइ

नव तुलसिका बृंद तहँ देखि हरष कपिराई॥5॥

 

वह महल श्री रामजी के आयुध (धनुष-बाण) के चिह्नों से अंकित था, उसकी शोभा वर्णन नहीं की जा सकतीवहाँ नवीन-नवीन तुलसी के वृक्ष-समूहों को देखकर कपिराज श्री हनुमान्जी हर्षित हुए॥5॥

 

लंका निसिचर निकर निवासाइहाँ कहाँ सज्जन कर बासा

मन महुँ तरक करैं कपि लागातेहीं समय बिभीषनु जागा॥1॥

 

लंका तो राक्षसों के समूह का निवास स्थान हैयहाँ सज्जन (साधु पुरुष) का निवास कहाँ? हनुमान्जी मन में इस प्रकार तर्क करने लगेउसी समय विभीषणजी जागे॥1॥

राम राम तेहिं सुमिरन कीन्हाहृदयँ हरष कपि सज्जन चीन्हा

एहि सन सठि करिहउँ पहिचानीसाधु ते होइ कारज हानी॥2॥

 

उन्होंने (विभीषण ने) राम नाम का स्मरण (उच्चारण) कियाहनमान्जी ने उन्हें सज्जन जाना और हृदय में हर्षित हुए। (हनुमान्जी ने विचार किया कि) इनसे हठ करके (अपनी ओर से ही) परिचय करूँगा, क्योंकि साधु से कार्य की हानि नहीं होती। (प्रत्युत लाभ ही होता है)॥2॥

बिप्र रूप धरि बचन सुनाएसुनत बिभीषन उठि तहँ आए

करि प्रनाम पूँछी कुसलाईबिप्र कहहु निज कथा बुझाई॥3॥

 

ब्राह्मण का रूप धरकर हनुमान्जी ने उन्हें वचन सुनाए (पुकारा)। सुनते ही विभीषणजी उठकर वहाँ आएप्रणाम करके कुशल पूछी (और कहा कि) हे ब्राह्मणदेव! अपनी कथा समझाकर कहिए॥3॥

 

की तुम्ह हरि दासन्ह महँ कोईमोरें हृदय प्रीति अति होई

की तुम्ह रामु दीन अनुरागीआयहु मोहि करन बड़भागी॥4॥

 

क्या आप हरिभक्तों में से कोई हैं? क्योंकि आपको देखकर मेरे हृदय में अत्यंत प्रेम उमड़ रहा हैअथवा क्या आप दीनों से प्रेम करने वाले स्वयं श्री रामजी ही हैं जो मुझे बड़भागी बनाने (घर-बैठे दर्शन देकर कृतार्थ करने) आए हैं?॥4॥

 

तब हनुमंत कही सब राम कथा निज नाम

सुनत जुगल तन पुलक मन मगन सुमिरि गुन ग्राम॥6॥

 

तब हनुमान्जी ने श्री रामचंद्रजी की सारी कथा कहकर अपना नाम बतायासुनते ही दोनों के शरीर पुलकित हो गए और श्री रामजी के गुण समूहों का स्मरण करके दोनों के मन (प्रेम और आनंद में) मग्न हो गए॥6॥

 

सुनहु पवनसुत रहनि हमारीजिमि दसनन्हि महुँ जीभ बिचारी

तात कबहुँ मोहि जानि अनाथाकरिहहिं कृपा भानुकुल नाथा॥1॥

 

(विभीषणजी ने कहा-) हे पवनपुत्र! मेरी रहनी सुनोमैं यहाँ वैसे ही रहता हूँ जैसे दाँतों के बीच में बेचारी जीभहे तात! मुझे अनाथ जानकर सूर्यकुल के नाथ श्री रामचंद्रजी क्या कभी मुझ पर कृपा करेंगे?॥1॥

 

तामस तनु कछु साधन नाहींप्रीत पद सरोज मन माहीं

अब मोहि भा भरोस हनुमंताबिनु हरिकृपा मिलहिं नहिं संता॥2॥

 

मेरा तामसी (राक्षस) शरीर होने से साधन तो कुछ बनता नहीं और मन में श्री रामचंद्रजी के चरणकमलों में प्रेम ही है, परंतु हे हनुमान्‌! अब मुझे विश्वास हो गया कि श्री रामजी की मुझ पर कृपा है, क्योंकि हरि की कृपा के बिना संत नहीं मिलते॥2॥

 

जौं रघुबीर अनुग्रह कीन्हातौ तुम्ह मोहि दरसु हठि दीन्हा

सुनहु बिभीषन प्रभु कै रीतीकरहिं सदा सेवक पर प्रीति॥3॥

 

जब श्री रघुवीर ने कृपा की है, तभी तो आपने मुझे हठ करके (अपनी ओर से) दर्शन दिए हैं। (हनुमान्जी ने कहा-) हे विभीषणजी! सुनिए, प्रभु की यही रीति है कि वे सेवक पर सदा ही प्रेम किया करते हैं॥3॥

 

कहहु कवन मैं परम कुलीनाकपि चंचल सबहीं बिधि हीना

प्रात लेइ जो नाम हमारातेहि दिन ताहि मिलै अहारा॥4॥

 

भला कहिए, मैं ही कौन बड़ा कुलीन हूँ? (जाति का) चंचल वानर हूँ और सब प्रकार से नीच हूँ, प्रातःकाल जो हम लोगों (बंदरों) का नाम ले ले तो उस दिन उसे भोजन न मिले॥4॥

જેનો અવાજ સારો હોય, અક્ષર સારા હોય, જેના આંગણામાં હિંચકો હોય, ગાય હોય, તુલસી ચારો હોય, આકૃતિ સારી હોય, જેનો આવકાર સાએઓ હોય તે સજ્જન હોઈ શકે.

 

भूमिरापोऽनलो वायुः खं मनो बुद्धिरेव

अहङ्कार इतीयं मे भिन्ना प्रकृतिरष्टधा।।7.4।।

 

।।7.4 -- 7.5।।  पृथ्वी, जल, तेज, वायु, आकाश -- ये पञ्चमहाभूत और मन, बुद्धि तथा अहंकार -- यह आठ प्रकारके भेदोंवाली मेरी 'अपरा' प्रकृति हैहे महाबाहो ! इस अपरा प्रकृतिसे भिन्न जीवरूप बनी हुई मेरी 'परा' प्रकृतिको जान, जिसके द्वारा यह जगत् धारण किया जाता है

 

।।7.4।। पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और आकाश तथा मन, बुद्धि और अहंकार - यह आठ प्रकार से विभक्त हुई मेरी प्रकृति है।।

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Tuesday, 06/12/2022

માનસમાં કેવટ શબ્દ ૧૭ વાર આવ્યો છે.

“નથી તરાપો નથી તુંબડા

નથી ઊગરવાનો વારો”

આવી (ઉપરોક્ત) પરિસ્થિતિમાં કેવટની શું ભૂમિકા છે?

કેવટ એટલે સદગુરુ, કેવટ જ આપણા બેડાને પાર કરે છે. આવી પરિસ્થિતિમાં ફક્ત કેવટ જ આપણો બેડો પાર કરી શકે.

શઢ, હલેસુ, જળ, કિનારો, તોફાન વગેરે કેવટ જ છે.

ગુરુ પાસે સમિધ પાણી લઈને જવું જોઈએ. આપણે આપણી પાસેના સમિધ પાણી ને ગુરુને સમરિપ્ત કરી ખાલી થઈ જઈએ એટલે ગુરુ આપણને પાચો ભરી દે.સમિધમાં લીલા લાકડાં હોય અને સુકાં લાકડાં પણ હોય, લીલા લાકડાં એ આપણી અમંગલ કામનાઓ છે અને સુકાં લાકડા એ મંગલ કામનાઓ છે.

સદગુરુમાં – કેવટમાં પાંચ કાયા હોય છે – ભૈતિક કાયા, સંસ્કાર કાયા, વિવેક કાયા, બુદ્ધિ કાયા અને ચૈતસિક કાયા.

માતૃ શરીરમાં પણ આ પાંચ કાયા હોય છે.

બુદ્ધિ સ્વયં નારી જાતિ છે.

જો ચિતની પ્રસંશા હોય તો ખૂણે ખૂણે પ્રકાશ થાય. પણ પ્રસંશા આવે કેવી રીતે?

શંકરાચાર્ય ભગવાને પ્રસંશા કેવી રીતે આવે તેનાં સૂત્રો આપ્યા છે.

લોક અને વેદની બે ધારા વચ્ચે પ્રવાહ વહે છે.

જે પ્રમાણસર ખાય તેમજ ખાવા જેવી વસ્તું જ ખાય, રોજ થોડો સમય એકાન્તમાં રહે તે પ્રસન્ન રહી શકે.  જ્યાં એકનો પણ અંત છે તે એકાંત છે.

જે સ્વલ્પ નિંદ્રા અને વિહાર કરે તેમજ પોતે બનાવેલ નિયમો પાળે તે પ્રસન્ન રહી શકે.

દુનિયાના અભિપ્રાય પ્રમાણે જીવીએ તો ભજન ન થઈ શકે.

જેનું ચિત સાધુ ચિત હોય તે પ્રસન્ન રહી શકે.

સાધુ સહનશીલ હોય, કરુણાથી ભરેલ હોય.

ક્ષમતામ દ્રઢતા, નમ્રતા અને સમતા

સાધુની ક્ષણ અને અન્નનો કણ ન બગાડવો જોઈએ.  … કૃષ્ણશંકરદાદા

અન્ન બ્રહ્મ છે.

 

औरउ राम रहस्य अनेका। कहहु नाथ अति बिमल बिबेका॥

जो प्रभु मैं पूछा नहिं होई। सोउ दयाल राखहु जनि गोई॥2॥

 

(इसके सिवा) श्री रामचन्द्रजी के और भी जो अनेक रहस्य (छिपे हुए भाव अथवा चरित्र) हैं, उनको कहिए। हे नाथ! आपका ज्ञान अत्यन्त निर्मल है। हे प्रभो! जो बात मैंने न भी पूछी हो, हे दयालु! उसे भी आप छिपा न रखिएगा॥2॥

 

बड़े भाग मानुष तनु पावा। सुर दुर्लभ सब ग्रंथहि गावा।।

साधन धाम मोच्छ कर द्वारा। पाइ न जेहिं परलोक सँवारा।।4।।

 

बड़े भाग्य से यह मनुष्य-शरीर मिला है। सब ग्रन्थों ने यही कहा है कि यह शरीर देवताओं को भी दुर्लभ है (कठिनतासे मिलता है)। यह साधन का धाम और मोक्ष का दरवाजा है। इसे पाकर भी जिसने परलोक न बना लिया,।।4।।

 

 

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Saturday, 10/12/2022

 




सुनहु पवनसुत रहनि हमारी। जिमि दसनन्हि महुँ जीभ बिचारी॥

तात कबहुँ मोहि जानि अनाथा। करिहहिं कृपा भानुकुल नाथा॥1॥

 

(विभीषणजी ने कहा-) हे पवनपुत्र! मेरी रहनी सुनो। मैं यहाँ वैसे ही रहता हूँ जैसे दाँतों के बीच में बेचारी जीभ। हे तात! मुझे अनाथ जानकर सूर्यकुल के नाथ श्री रामचंद्रजी क्या कभी मुझ पर कृपा करेंगे?॥1॥

 

लंका निसिचर निकर निवासा। इहाँ कहाँ सज्जन कर बासा॥

मन महुँ तरक करैं कपि लागा। तेहीं समय बिभीषनु जागा॥1॥

 

लंका तो राक्षसों के समूह का निवास स्थान है। यहाँ सज्जन (साधु पुरुष) का निवास कहाँ? हनुमान्‌जी मन में इस प्रकार तर्क करने लगे। उसी समय विभीषणजी जागे॥1॥

 

 

यज्ञदानतपःकर्म न त्याज्यं कार्यमेव तत्।

यज्ञो दानं तपश्चैव पावनानि मनीषिणाम्।।18.5।।

 

।।18.5।।यज्ञ, दान और तपरूप कर्मोंका त्याग नहीं करना चाहिये, प्रत्युत उनको तो करना ही चाहिये क्योंकि यज्ञ, दान और तप -- ये तीनों ही कर्म मनीषियोंको पवित्र करनेवाले हैं।

।।18.5।। यज्ञ, दान और तपरूप कर्म त्याज्य नहीं है, किन्तु वह नि:सन्देह कर्तव्य है; यज्ञ, दान और तप ये मनीषियों (साधकों) को पवित्र करने वाले हैं।।

 

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