રામ કથા - 911
માનસ અભંગ
દેહુ ગામ, પુના, મહારાષ્ટ્ર
શનિવાર, તારીખ 21/01/2023
થી રવિવાર 29/01/2023
મુખ્ય ચોપાઈ
अबिरल भगति बिरति सतसंगा।
चरन सरोरुह प्रीति अभंगा॥
धन्य घरी सोइ जब सतसंगा।
धन्य जन्म द्विज भगति अभंगा।।4।।
1
Saturday,
21/01/2023
अबिरल भगति बिरति सतसंगा। चरन सरोरुह प्रीति अभंगा॥
जद्यपि ब्रह्म अखंड अनंता।
अनुभव गम्य भजहिं जेहि संता।6॥
मुझे प्रगाढ़
भक्ति, वैराग्य, सत्संग और आपके चरणकमलों में अटूट प्रेम प्राप्त हो। यद्यपि आप अखंड
और अनंत ब्रह्म हैं, जो अनुभव से ही जानने में आते हैं और जिनका संतजन भजन करते हैं॥6॥
सो धन धन्य प्रथम गति जाकी।
धन्य पुन्य रत मति सोइ पाकी।।
धन्य घरी सोइ जब सतसंगा। धन्य जन्म द्विज भगति अभंगा।।4।।
वह धन धन्य
है जिसकी पहली गति होती है (जो दान देनेमें व्यय होता है।) वही बुद्धि धन्य और परिपक्य
है जो पुण्य में लगी हुई है। वही घड़ी धन्य है जब सत्संग हो और वही जन्म धन्य है जिसमें
ब्राह्मणकी अखण्ड भक्ति हो।।4।। [धनकी तीन गतियाँ होती है-दान भोग और नाश। दान उत्तम
है, भोग मध्यम है और नाश नीच गति है जो पुरुष न देता है, न भोगता है, उसके धन को तीसरी
गति होती है।]
यहां कोई आया
हैं और ठहरा भी हैं, जिस का यह उजाला हैं …………. किशन बिहारी
विष्णु के गुणगान
से वैष्णव का गुणगान ठाकुर ज्यादा राजी होते हैं।
मानस में अभंग
– अभंगा ५ बार आया हैं।
तुकाराम भगवान
की जीवनगाथा में सात पडाव – अध्याय आया हैं।
आध्यात्म की
घटना तर्क से पर होती हैं।
तुकाराम का
बाल्य काल बालकांड हैं।
तुकारम के जीवन
में सांसारिक घटनाए – संघर्ष अयोध्याकांड हैं।
जगद्गुरु शास्वत
होता हैं।
तमेकमद्भुतं प्रभुं। निरीहमीश्वरं
विभुं॥
जगद्गुरुं च शाश्वतं। तुरीयमेव
केवलं॥9॥
उन (आप) को
जो एक (अद्वितीय), अद्भुत (मायिक जगत से विलक्षण), प्रभु (सर्वसमर्थ), इच्छारहित, ईश्वर
(सबके स्वामी), व्यापक, जगद्गुरु, सनातन (नित्य), तुरीय (तीनों गुणों से सर्वथा परे)
और केवल (अपने स्वरूप में स्थित) हैं॥9॥
अस कहि चला बिभीषनु जबहीं।
आयू हीन भए सब तबहीं॥
साधु अवग्या तुरत भवानी।
कर कल्यान अखिल कै हानी॥1॥
ऐसा कहकर विभीषणजी
ज्यों ही चले, त्यों ही सब राक्षस आयुहीन हो गए। (उनकी मृत्यु निश्चित हो गई)। (शिवजी
कहते हैं-) हे भवानी! साधु का अपमान तुरंत ही संपूर्ण कल्याण की हानि (नाश) कर देता
है॥1॥
तुकाराम क्षमाशील
थे।
जगदगुरु क्षमाशील
होता हैं।
सब गुण का अर्क
शील हैं।
तुकाराम के
जीवन में विरती के प्रती चित का जाना – संसार और सन्यास का आना अरण्यकांड हैं।
तुकारम के जीवन
में सब के प्रति मैत्री भाव जागना किष्किन्धाकांड हैं।
तुकाराम का
पवित्र जीवन सुंदरकांड हैं।
साधु का भजन
प्रमाण हैं।
सांसारिक जीवन
में मृत्यु – तुकाराम का महानिर्वाण उत्तरकांड हैं।
जाकी कृपा लवलेस ते मतिमंद
तुलसीदासहूँ।
पायो परम बिश्रामु राम
समान प्रभु नाहीं कहूँ।।3।।
[परम] सुन्दर,
सुजान और कृपानिधान तथा जो अनाथों पर प्रेम करते हैं, ऐसे एक श्रीरामचन्द्रजी ही हैं।
इनके समान निष्काम (निःस्वार्थ) हित करनेवाला (सुह्रद्) और मोक्ष देनेवाला दूसरा कौन
है ? जिनकी लेशमात्र कृपासे मन्दबुद्धि तुलसीदासने भी परम शान्ति प्राप्त कर ली, उन
श्रीरामजीके समान प्रभु कहीं भी नहीं हैं।।3।।
गुरु के अनेक
प्रकार हैं।
शरीरधारी –
देहधारी गुरु
अशरीरी गुरु
– चेतना के रुप में गुरु
कभी कभी स्वप्न
में कोई संकेत के रुप में भी गुरु मिल जाते हैं।
मूर्ति के रुप
में गुरु – एकलव्य को मूर्ति के रुप में गुरु मिलते हैं।
पहाड भी गुरु
हैं – रमण महर्षि अरुणाचल को गुरु मानते थे।
कभी कभी गुरु
रास्ते में मिल जाता हैं।
ग्रंथ भी गुरु
हैं।
2
Sunday,
22/01/2023
मानस में चार
अभंग की मांग हैं – प्रिति अभंग, अनुराग – ओरेम अभंग, भक्ति अभंग और सुहाग अभंग
सतसंग से ख्ल
सुधरता हैं लेकिन शठ नहीं सुधरता हैं।
सो सुधारि हरिजन जिमि लेहीं।
दलि दुख दोष बिमल जसु देहीं॥
खलउ करहिं भल पाइ सुसंगू।
मिटइ न मलिन सुभाउ अभंगू॥2॥
भगवान के भक्त
जैसे उस चूक को सुधार लेते हैं और दुःख-दोषों को मिटाकर निर्मल यश देते हैं, वैसे ही
दुष्ट भी कभी-कभी उत्तम संग पाकर भलाई करते हैं, परन्तु उनका कभी भंग न होने वाला मलिन
स्वभाव नहीं मिटता॥2॥
तुकारम भी यहीं
चार अभंग की मांग करते हैं।
शब्द ब्रह्म
हैं।
मन को स्थिर
करने के लिये मूर्ति जरुरी हैं।
भक्ति में आयुध
जरुरी नहीं हैं।
अभंग भक्ति
के लिये परमात्मा को प्रिय हो ऐसा कार्य करो।
अन्न ब्रह्म
हैं।
संगत और पंगत
कभी भी न छोडो।
ब्रह्मर्षि,
देवर्षि और महर्षि, उस में तलगाजरडा की ओर से प्रेमर्षि भी हैं।
प्रेमर्षि में
ब्रह्मर्षि, देवर्षि और महर्षि समाहित हैं।
सत्ता, शन और
काम का वैराग्य होता हैं।
धर्म में सत्ता
नहीं लेकिन सत्य होना चाहिये।
धर्म में सत्ता
आते हि उसके पीछे खटपट आती हैं।
जगतभर की सात
समस्या हैं।
1.
शारीरिक
समस्या
2.
मानसिक
समस्या
3.
पारिवारिक
समस्या
4.
सामाजिक
समस्या
5.
धार्मिक
समस्या
6.
राष्टिय
समस्या
7. वैश्विक
समस्या
अकारण क्रोध
करनार पापी हैं।
निंदा करनार
पापी हैं।
निंदा सुननार
पापी हैं।
हरिनाम न लेनार
पापी हैं।
सो धन धन्य प्रथम गति जाकी।
धन्य पुन्य रत मति सोइ पाकी।।
धन्य घरी सोइ जब सतसंगा।
धन्य जन्म द्विज भगति अभंगा।।4।।
वह धन धन्य
है जिसकी पहली गति होती है (जो दान देनेमें व्यय होता है।) वही बुद्धि धन्य और परिपक्य
है जो पुण्य में लगी हुई है। वही घड़ी धन्य है जब सत्संग हो और वही जन्म धन्य है जिसमें
ब्राह्मणकी अखण्ड भक्ति हो।।4।। [धनकी तीन गतियाँ होती है-दान भोग और नाश। दान उत्तम
है, भोग मध्यम है और नाश नीच गति है जो पुरुष न देता है, न भोगता है, उसके धन को तीसरी
गति होती है।]
दो.-सो कुल धन्य उमा सुनु
जगत पूज्य सुपुनीत।
श्रीरघुबीर परायन जेहिं
नर उपज बिनीत।।127।।
हे उमा ! सुनो।
वह कुल धन्य है, संसारभरके लिये पूज्य है और परम पवित्र है, जिसमें श्रीरघुवीरपरायण
(अनन्य रामभक्त) विनम्र पुरुष उत्पन्न हो।।127।।
3
Monday,
23/01/2023
अभंगा प्रीति
के बारे में संवाद
अवतार के प्रकार
a.
ईश्वर
अवतार
b.
देव
अवतार – ईन्द्र, वरूण, अग्नि वगेरे के विषेश अवतार
c.
आचार्य
अवतार – आदि शंकर, तुकाराम वगेरे
d.
साधु
अवतार
अभंग प्रीति
का प्रमाण – व्याख्या साधु अवतार दे शकते हैं।
जो किसी से
कभी भी तंत – संघर्ष नहीं करता है वह साधु हैं।
हिस का अंत
नहीं हैं वह साधु हैं।
जो कोई भी संस्था
का महंत नहीं बनना चाहता हैं वह साधु हैं।
जो खंत से –
अखंड भाव से हरि भजता हैं वह संत हैं।
जो हर घटना
को सहन कर लेता हैं वह साधु हैं।
तुकाराम कहते
हैं कि जिस ने गीता का उपदेश दिया हैं वही विठ्ठल भगवान हैं।
अनुभव और व्याख्या
में फर्क हैं, अनुभव अपना होता हैं, व्याख्या पराई होती हैं।
उमा कहउँ मैं अनुभव अपना।
सत हरि भजनु जगत सब सपना॥
पुनि प्रभु गए सरोबर तीरा।
पंपा नाम सुभग गंभीरा॥3॥
हे उमा! मैं
तुम्हें अपना अनुभव कहता हूँ- हरि का भजन ही सत्य है, यह सारा जगत् तो स्वप्न (की
भाँति झूठा) है। फिर प्रभु श्री रामजी पंपा नामक सुंदर और गहरे सरोवर के तीर पर गए॥3॥
निज अनुभव अब कहउँ खगेसा।
बिनु हरि भजन न जाहिं कलेसा।।
राम कृपा बिनु सुनु खगराई।
जानि न जाइ राम प्रभुताई।।3।।
हे पक्षिराज
गरुड़ ! अब मैं आपसे अपना निज अनुभव कहता हूँ। [वह यह है कि] भगवान् के भजन के बिना
क्लेश दूर नहीं होते। हे पक्षिराज ! सुनिये, श्रीरामजी की कृपा बिना श्रीरामजी की प्रभुता
नहीं जानी जाती।।3।।
पंडित और प्रेमी
में क्या फर्क है?
पंडित वह हैं
जो विचार करके जीता हैं।
प्रेमी वह हैं
जो पहले जी लेता हैं और उस के बाद विचार करता हैं।
वक्ता और साधु
विनोदी होते हैं।
साधु और ग्रंथ
में जो दोष देखता हैं वह सब से नीच हैं।
विवेक्चूडामणि
में भगवान शंकर कहते हैं कि ………..
सहनं सर्वदुः खानामप्रतीकारपूर्वकम्।
चिन्ताविलापरहितं सा तितिक्षा
निगद्यते॥ २५॥
चिन्ता और शोकसे
रहित होकर बिना कोई प्रतिकार किये सब प्रकारके कष्टोका सहन करना ' तितिक्षा" कहलाती
है।
परिपाकके बिना
प्राप्त हो ही नहीं सकते।
अविरल भक्ति,
विरक्ति – वैराग्य और सरसंग, यह तीन आ जाय तो हमारी भक्ति में अभंग प्रीति आ शकती हैं।
आदि शंकर भगवान
कहते हैं कि ……
दुर्लभं त्रयमेवैतद्देवानुग्रहहेतुकम्
।
मनुष्यत्वं मुमुश्चत्वं
महापुरुषसंश्रयः ॥ ३॥
भगवत्कृपा ही
जिनकी प्राप्तका कारण है वे मनुष्यत्व, मुमुक्षुत्व (मुक्त होनेकी इच्छा) और महान्
पुरुषोंका संग- ये तीनों ही दुर्लभ हैं।
निष्काम कर्म
सरसंग हैं।
भूखे को रोटी
देना सतसंग हैं।
दीन हिन की
सेवा करना सतसंग हैं।
कुदरत का द्रश्य
माणना सतसंग हैं।
જીવન જેવું જીવું છું,
એવું કાગળ પર ઉતારું છું,
ઉતારું છું, પછી થોડું
ઘણું એને મઠારું છું.
તફાવત એ જ છે, તારા અને
મારા વિષે, જાહિદ!
વિચારીને તું જીવે છે,
હું જીવી ને વિચારું છું.
…… અમૃત ઘાયલ
अभंग प्रीति
के लिये ………
१
पहले
अभंग प्रीति के बारे में सुनो – श्रवण करो।
२
सुनने
के बाद उसका दर्शन करो
३
दर्शन
करने के बाद उसके दिवाने बन जाव
४
फिर
उस के चरण स्पर्श करो
५
उस
के बाद वह हमारे साथ बात करे ऐसा करो
६
उसे
सुनने से नोह उत्पन्न होने का खतरा हैं
७
मोह
उत्पन्न होने के बाद आकर्षण हो शकता हैं
८
आकर्षण
अंधा हो शकता हैं
९
आकर्षण
होने से आसक्ति पेदा हो शकती हैं
१०
उसके
बाद उसकी जानकारी मिलती हैं
११
उसके
बाद भरोंसा होता हैं
१२
और
ऐसा भरोंसा आने के बाद प्रीति आती हैं जिसे अभंग प्रीति कहते हैं। और जब ऐसी प्रीति
प्राप्त होगी तब भगवान विष्णु गरुड पर सवार हो कर हमें उगारेगा – बचायेगा।
श्रवणं कीर्तनं विष्णोः
स्मरणं पादसेवनम्।
अर्चनं वंदनं दास्यं सख्यमात्मनिवेदनम्॥
सुनहु राम अब कहउँ निकेता। जहाँ बसहु सिय लखन समेता॥
जिन्ह के श्रवन समुद्र
समाना। कथा तुम्हारि
सुभग सरि नाना॥2॥
हे रामजी!
सुनिए, अब मैं वे स्थान बताता हूँ, जहाँ आप, सीताजी और लक्ष्मणजी समेत निवास कीजिए।
जिनके कान समुद्र
की भाँति आपकी सुंदर कथा रूपी अनेक सुंदर नदियों
से-॥2॥
बुद्ध पुरुष
आश्रित को स्वातंत्र्य देता हैं।
MAKE UP से WAKE UP अच्छा हैं।
जो भिक्षा के
रुप में – भिक्षा भाव से भोजन करता हैं वह सदा उपवासी हैं।
जो घर में मंदिर
की तरह रहता हैं वह घर मंदिर हैं।
सतकर्म करने
में अगर स्वार्थ नही हैं तो वह संन्यास हैं। परहित के लिये कार्य करना संन्यास हैं।
जो विधी पूर्वक
संसार निभाता हैं वह संसारी होते हुए संन्यासी हैं।
निरंतर निष्काम
भावसे हरिनाम जटनार मौनी हैं।
संस्कृति के
लिये, राष्ट्र के लिये हत्या करना क्षात्र धर्म हैं, हत्या नहीं हैं।
निष्काम भाव
से कार्य करनार कर्म से मुक्त हैं।
4
Tuesday,
24/01/2023
अभंग प्रेम
– अखंड प्रेम पर संवाद
मानस में अबिरल
शब्द ९ बार आया हैं।
हमें बिना मांगे
परमात्माने सब कुछ दिया हैं।
परमात्माने
हमें बिना मां गे सूर्य, चंद्र, पृथ्वी, गंगा, यमुना, वृक्ष, फग, रस, गुरु वगेरे दिया
हैं।
गुरु परम का
दिया हुआ परम दान हैं।
अबिरल भगति बिरति सतसंगा।
चरन सरोरुह प्रीति अभंगा॥
गुरु की नजर उसके आश्रित पर रहती हैं और यह सब से
बडी उपलब्धि हैं।
जानें बिनु न होइ परतीती।
बिनु परतीति होइ नहिं प्रीति।।
प्रीति बिना नहिं भगति
दिढ़ाई। जिमि खगपति जल कै चिकनाई।।4।।
प्रभुता जाने
बिना उनपर विश्वास नहीं जमता, विश्वास के बिना प्रीति नहीं होती और प्रीति बिना भक्ति
वैसे ही दृढ़ नहीं होती जैसे हे पक्षिराज ! जलकी चिकनाई ठहरती नहीं।।4।।
अभंग प्रेम
– अखंड प्रेम में गिरानेवाले ५ बिन्दु हैं।
१
कुसंग
२
व्यसन
३
गुरु
निष्ठा में भंग
४
जुठ
बोलना
५
दंभ
करना
सतसंग मार्ग
में भी कुसंग हो शकता हैं। सतसंग में कई वक्ता – साधु पाखंडी हो शकते हैं जो हमें कुसंग
की तरफ ले जा शकते हैं। तुकाराम भगवान ने ऐसे ढोंगी साधुओ की बहूत आलोचना की हैं।
बरु भल बास नरक कर ताता।
दुष्ट संग जनि देइ बिधाता॥
अब पद देखि कुसल रघुराया।
जौं तुम्ह कीन्हि जानि जन दाया॥4॥
हे तात! नरक
में रहना वरन् अच्छा है, परंतु विधाता दुष्ट का संग (कभी) न दे। (विभीषणजी ने कहा-)
हे रघुनाथजी! अब आपके चरणों का दर्शन कर कुशल से हूँ, जो आपने अपना सेवक जानकर मुझ
पर दया की है॥4॥
उदासीन नित रहिअ गोसाईं।
खल परिहरिअ स्वान की नाईं।।
मैं खल हृदयँ कपट कुटिलाई।
गुर हित कहइ न मोहि सोहाई।।8।।
हे गोसाईं
! उससे तो सदा उदासीन ही रहना चाहिये। दुष्ट को कुत्ते की तरह दूरसे ही त्याग देना
चाहिये। मैं दुष्ट था, हृदय में कपट और कुटिलता भरी थी। [इसलिये यद्यपि] गुरु जी हित
की बात कहते थे, पर मुझे वह सुहाती न थी।।8।।
अपने गुरुने
दिये हुए मंत्र की आलोचना करनार को सुनना कुसंग हैं।
गुरु मंत्र
को छुडानेकी चेष्ठा कुसंग हैं।
राम कृपाँ नासहिं सब रोगा।
जौं एहि भाँति बनै संजोगा।।
सदगुर बैद बचन बिस्वासा।
संजम यह न बिषय कै आसा।।3।।
यदि श्रीरामजीकी
कृपा से इस प्रकार का संयोग बन जाये तो ये सब रोग नष्ट हो जायँ।सद्गुरुरूपी वैद्य के
वचनमें विश्वास हो। विषयों की आशा न करे, यही संयम (परहेज) हो।।3।।
गुरु निष्ठा
भंग से बचने के लिये हमें अपनी गुरु प्रत्ये की निष्ठा कम नहीं होने देनी हैं, अपने
ग्रंथ के प्रति निष्ठा कम नहीं होने देनी हैं, नाम निष्ठा कम नहीं होने देनी हैं, मंत्र
निष्ठा कम नहीं होने देनी हैं और अपने गुरु बचन की निष्ठा कम नहीं होने देनी हैं।
जुठ बोलने से
हमारे पून्य खत्म हो जाते हैं।
अस जियँ जानि दसानन संगा।
चला राम पद प्रेम अभंगा॥
मन अति हरष जनाव न तेही।
आजु देखिहउँ परम सनेही॥4॥
हृदय में ऐसा
समझकर वह रावण के साथ चला। श्री रामजी के चरणों में उसका अखंड प्रेम है। उसके मन में
इस बात का अत्यन्त हर्ष है कि आज मैं अपने परम स्नेही श्री रामजी को देखूँगा, किन्तु
उसने यह हर्ष रावण को नहीं जनाया॥4॥
अभंग प्रेम
और अभंग प्रीति में क्या फर्क हैं?
अभंग प्रीति
में शर्त हैं जब कि अभंग प्रेम में कोई शर्त नहीं होती हैं।
अगर तेरे चरन
कमल की तरह असंग हो तो हि मैं तुझ से प्रीति करुं ऐसी शर्त अभंग प्रीति में हैं।
निर्मल चरन
कमल की पूजा करने की भी शर्त हैं।
सरोरुह – सरोवर
से नीकलते हुए चरन कमल कि शर्त प्रीति में हैं।
गुलाबी रंग
के चरन की भी शर्त हैं।
प्रेम में कोई
शर्त नहीं होती हैं।
माबाप पूज्य
हैं लेकिन उस के साथ माबाप प्रिय भी होने चाहिये।
5
Wednesday,
25/01/2023
मारीच दुष्ट
हैं और प्रेमी भी हैं।
दुष्ट को भी
प्रेमी बननेका अधिकार हैं।
दुष्ट भी ईष्ट
बन शकता हैं।
बुद्धि हिन,
जड वगेरे की उपेक्षा नहीं करनी चाहिये।
पतित के लिये
कभी न कभी कोई विश्वामिते आयेगा और परम को उस पतित का उद्धार करने को कहेगा, और ऐसे
पतित को मुक्ति मिल जायेगी।
गौतम नारि श्राप बस उपल
देह धरि धीर।
चरन कमल रज चाहति कृपा
करहु रघुबीर॥210॥
गौतम मुनि की
स्त्री अहल्या शापवश पत्थर की देह धारण किए बड़े धीरज से आपके चरणकमलों की धूलि चाहती
है। हे रघुवीर! इस पर कृपा कीजिए॥210॥
जब हम अपनी
आवक से दशांश निकालते हैं तब उस दशांश का उपयोग अपने परिवार जनो ले लिये करना नहीं
चाहिये, ऐसा करना एक चालाकी हैं।
अभंग प्रेम
के ५ सलामत स्थान हैं।
1.
शरणागति
2.
नाम
की शरणागति
3.
गुरु
पादूकाकी शरणागति
4.
क्षमा
की शरण में जाना
5.
मौन
की शरण में जाना
शरणागति – हरि
के शरण में जाना
सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं
शरणं व्रज।
अहं त्वा सर्वपापेभ्यो
मोक्षयिष्यामि मा शुचः।।18.66।।
।।18.66।।सम्पूर्ण
धर्मोंका आश्रय छोड़कर तू केवल मेरी शरणमें आ जा। मैं तुझे सम्पूर्ण पापोंसे मुक्त
कर दूँगा, चिन्ता मत कर।
सुखी मीन जे नीर अगाधा।
जिमि हरि सरन न एकऊ बाधा॥
फूलें कमल सोह सर कैसा।
निर्गुन ब्रह्म सगुन भएँ जैसा॥1॥
जो मछलियाँ
अथाह जल में हैं, वे सुखी हैं, जैसे श्री हरि के शरण में चले जाने पर एक भी बाधा नहीं
रहती। कमलों के फूलने से तालाब कैसी शोभा दे रहा है, जैसे निर्गुण ब्रह्म सगुण होने
पर शोभित होता है॥1॥
भक्ति स्वंतंत्र
हैं।
हरि शरणागति
और संत शरणागति एक हि हैं।
गुरु पादूका
की शरण में गुरु पादूका का संपूर्ण श्रद्धा से सेवन करना हैं।
क्षमा की शरण
में जाने में जब कोई गलती हो गई हो तो क्षमा मांगना और किसी को क्षमा देना दोनों समाहित
हैं।
क्षमा से मोक्ष
का रास्ता मिल शकता हैं।
जय रघुबंस बनज बन भानू।
गहन दनुज कुल दहन कृसानू॥
जय सुर बिप्र धेनु हितकारी।
जय मद मोह कोह भ्रम हारी॥1॥
हे रघुकुल रूपी
कमल वन के सूर्य! हे राक्षसों के कुल रूपी घने जंगल को जलाने वाले अग्नि! आपकी जय हो!
हे देवता, ब्राह्मण और गो का हित करने वाले! आपकी जय हो। हे मद, मोह, क्रोध और भ्रम
के हरने वाले! आपकी जय हो॥1॥
मौन की शरण
में जाने के लिये हमें मौन हो जाना हैं।
ईस तरह यह पांच
सलामत स्थान हमें अभंग प्रेम की ओर ले जायेंगे।
ताल के कई प्रकार
हैं।
एक ताल में
एक हि हरि को भजना हैं।
दुसरा ताल जप
ताल हैं।
सत्य, प्रेम
करुणा त्रिताल हैं।
चोथा ताल
एक गज ताल भी
हैं जिस में जैसे हाथी चलता हैं तो कुत्ते भोंकते रहते हैं, लेकिन हाथी उस तरफ कोई
ध्यान नहीं देता हैम ऐसे लोग निंदा करते रहेगें लेकिन हमें अपनी हरि मार्ग की चाल चालु
हि रखनी हैं।
ऐसा करने से
तेज बढता हैं।
तप से तेज बढता
हैं।
तेज बढाने के
लिये हमें ताल, त्याग, तप करना हैं और तृप्ति बढानी हैं, तृप्ति का अर्थ आकांक्षा कम
करना हैं।
जो प्राप्त
हैं वहीं पर्याप्त हैं।
तितिक्षा –
सहनशीलता से तेज बढता हैं।
6
Thursday,
26/01/2023
7
Friday,
27/01/2023
8
Saturday,
28/01/2023
राजापुर – तुलसी
की जन्म भूमि और देहा – तुकाराम भगवान की जन्म भूमि को तीर्थ स्थन घोषित करना चाहिये।
तीर्थ स्थान
वह स्थळ हैं जहां पहाड हो – विचारो की ऊंचाई हो, नदी या समुद्र हो, वन – वृक्ष हो,
कोई महापुरुष का जन्म/ महा प्रयाण हुआ हो।
अभंग सुहाग
संवाद
दीन्हि असीस हरषि मन गंगा।
सुंदरि तव अहिवात अभंगा॥
सुनत गुहा धायउ प्रेमाकुल।
आयउ निकट परम सुख संकुल॥5॥
गंगाजी ने मन
में हर्षित होकर आशीर्वाद दिया- हे सुंदरी! तुम्हारा सुहाग अखंड हो। भगवान् के तट
पर उतरने की बात सुनते ही निषादराज गुह प्रेम में विह्वल होकर दौड़ा। परम सुख से परिपूर्ण
होकर वह प्रभु के समीप आया,॥5॥
गंगा भक्ति
हैं और सीता भी भक्ति हैं, यहां एक भक्ति दूसरी भक्ति को अखंड सुहाग का वरदान देती
हैं।
हामारी वैष्णवी
भक्ति अखंड रहे वह अभंग सुहाग हैं।
गुरु शिष्य
के बीच, विष्णु वैष्णव के बीच, पति पत्नी के बीच अखंड सुहाग होना चाहिये।
प्रणय के बिना
प्रीति नहीं हो शकती हैं।
भागवत में प्रणय
गीत का उल्लेख हैं।
प्रेम, भक्ति
में प्रणय ग्रंथी होती हैं और ऐसी ग्रंथी अखंड होनी चाहिये।
हर ग्रंथी का
भंग होना चाहिये लेकिन प्रणय ग्रंथी का भंग नहीं होना चाहिये।
प्रणय ग्रंथी
मुक्ति से भी ज्यादा अच्छी हैं।
ग्रंथी के कई
प्रकार हैं।
1.
लघुता
ग्रंथी
2.
पूर्व
ग्रंथी
3.
पाप
ग्रंथी
4.
भव
ग्रंथी
5.
लग्न
ग्रंथी
6.
जड
चेतन की ग्रंथी
7.
कथाकथित
ग्रंथ की ग्रंथी
8.
कथा
कथित गुरु की ग्रंथी
9.
ब्रह्म
ग्रंथी
राम भगवान शबरी
की लघुता ग्रंथी को तोडते हैं।
अधम ते अधम अधम अति नारी।
तिन्ह महँ मैं मतिमंद अघारी॥
कह रघुपति सुनु भामिनि
बाता। मानउँ एक भगति कर नाता॥2॥
जो अधम से भी
अधम हैं, स्त्रियाँ उनमें भी अत्यंत अधम हैं, और उनमें भी हे पापनाशन! मैं मंदबुद्धि
हूँ। श्री रघुनाथजी ने कहा- हे भामिनि! मेरी बात सुन! मैं तो केवल एक भक्ति ही का संबंध
मानता हूँ॥2॥
शबरी अधम जाति
की होते हुए राम भगवान को मार्गदर्शन देती हैं और पंपा सरोवर तरफ नाजे को कहती हैं
लेकिन राम के जाने से पहले खुद महाप्रयाण कर देती हैं।
नवधा भगति कहउँ तोहि पाहीं।
सावधान सुनु धरु मन माहीं॥
प्रथम भगति संतन्ह कर संगा।
दूसरि रति मम कथा प्रसंगा॥4॥
मैं तुझसे अब
अपनी नवधा भक्ति कहता हूँ। तू सावधान होकर सुन और मन में धारण कर। पहली भक्ति है संतों
का सत्संग। दूसरी भक्ति है मेरे कथा प्रसंग में प्रेम॥4॥
मम दरसन फल परम अनूपा।
जीव पाव निज सहज सरूपा॥
जनकसुता कइ सुधि भामिनी।
जानहि कहु करिबरगामिनी॥5॥
मेरे दर्शन
का परम अनुपम फल यह है कि जीव अपने सहज स्वरूप को प्राप्त हो जाता है। हे भामिनि! अब
यदि तू गजगामिनी जानकी की कुछ खबर जानती हो तो बता॥5॥
पंपा सरहि जाहु रघुराई।
तहँ होइहि सुग्रीव मिताई॥
सो सब कहिहि देव रघुबीरा।
जानतहूँ पूछहु मतिधीरा॥6॥
(शबरी ने कहा-)
हे रघुनाथजी! आप पंपा नामक सरोवर को जाइए। वहाँ आपकी सुग्रीव से मित्रता होगी। हे देव!
हे रघुवीर! वह सब हाल बतावेगा। हे धीरबुद्धि! आप सब जानते हुए भी मुझसे पूछते हैं!॥6॥
पूर्व ग्रंथी
में किसी को दाढ में रखनेको कहते हैं, पहलेसे कुछ निर्णय कर लेना भी पूर्व ग्रथी हैं।
जप से ग्रंथी
छूटती हैं।
यहां कोई किसी
का स्पर्धक नहिं हैं।
अहल्या पाप
ग्रंथी से पिडीत थी।
मैं नारि अपावन प्रभु जग
पावन रावन रिपु जन सुखदाई।
राजीव बिलोचन भव भय मोचन
पाहि पाहि सरनहिं आई॥2॥
फिर उसने मन
में धीरज धरकर प्रभु को पहचाना और श्री रघुनाथजी की कृपा से भक्ति प्राप्त की। तब अत्यन्त
निर्मल वाणी से उसने (इस प्रकार) स्तुति प्रारंभ की- हे ज्ञान से जानने योग्य श्री
रघुनाथजी! आपकी जय हो! मैं (सहज ही) अपवित्र स्त्री हूँ, और हे प्रभो! आप जगत को पवित्र
करने वाले, भक्तों को सुख देने वाले और रावण के शत्रु हैं। हे कमलनयन! हे संसार (जन्म-मृत्यु)
के भय से छुड़ाने वाले! मैं आपकी शरण आई हूँ, (मेरी) रक्षा कीजिए, रक्षा कीजिए॥2॥
गुरु हमें हरि
के साथ लग्न ग्रंथी से बांध देता हैं।
जीव चेतन हैं
और माया जड हैं, और यह दिनो कें बीच में गांठ हैं। और यह ग्रंठि छूटती नहीं हैं। ऐसी
ग्रंथी ज्ञान ज्यिति से छूटती हैं।
कथा कथित गुरु
भी आश्रित को ग्रंथी में बांध देता हैं।
भारत ऐसा देश
हैं जहां शस्त्र भी शास्त्र बन जाते हैं। कई देवी देवता के हाथ में शस्त्र हैं।
देश प्रेम विश्व
प्रेम में बाधक न्नहीं होना चाहिये। …… विनोबा भावे
मानस में भंग
शब्द १८ बार आया हैं।
RISKY
FACTORS के मानस में उदाहरण
कुसंग का प्रमाण
कैकेयी हैं।
जप, तर्पण
(अपने बुझर्गो को तृप्त करना), हवन करना, मार्जन (पवित्र वस्तु से अपने आप को पवित्र
करना), ब्रह्म भोजन कराना – यह पांच पंच कर्म हैं।
व्यसन का प्रमाण
कुंभकर्ण हैं।
जुठ न बोलनेका
प्रमाण सती हैं जो जुठ बोलती हैं।
दंभ करने का
प्रमाण नारद हैं।
सेफ फेक्टर
में भरत पादूका का प्रमाण हैं।
परशुराम क्षमा
का प्रमाण हैं।
9
Sunday,
29/01/2023
बापु ने कहा
कि मैंने आटा के साथ ब्रह्म की भी भिक्षा मांगी हैं।
सत्य जहां से
मिले स्वीकारना चाहिये।
मधुकर सरिस संत गुनग्राही॥
हमारा घर शरीर
हैं और हम यह शरीर रुपी घर की खिडकीयां बंध कर के बैठे हैं।
तुकाराम के
अभंग में केवल शब्द नहीं हैं लेकिन शब्द ब्रह्म हैं।
तुकाराम की
शब्द बानी नाभी बानी हैं।
शब्द व्यक्ति
के लिये छुपानेका एक परदा हैं।
भजनानंदी के
शरीर की गंध नुरानी होती हैं, उस में विशेष खुश्बु होती हैं।
बड़े भाग मानुष तनु पावा।
सुर दुर्लभ सब ग्रंथहि गावा।।
साधन धाम मोच्छ कर द्वारा।
पाइ न जेहिं परलोक सँवारा।।4।।
बड़े भाग्य
से यह मनुष्य-शरीर मिला है। सब ग्रन्थों ने यही कहा है कि यह शरीर देवताओं को भी दुर्लभ
है (कठिनतासे मिलता है)। यह साधन का धाम और मोक्ष का दरवाजा है। इसे पाकर भी जिसने
परलोक न बना लिया,।।4।।
यह शरीर सुर
दुर्लभ हैं।
शरीर के पास
शब्द, रस (आकार), रुप, गंध, स्पर्श हैं।
जगत स्फुर्ति
हैं। ……. विनोबा भावे
एहिं कलिकाल न साधन दूजा।
जोग जग्य जप तप ब्रत पूजा।।
रामहि सुमिरिअ गाइअ रामहि।
संतत सुनिअ राम गुन ग्रामहि।।3।।
[तुलसीदासजी
कहते हैं-] इस कलिकाल में योग, यज्ञ, जप, तप, व्रत और पूजन आदि कोई दूसरा साध नहीं
है। बस, श्रीरामजीका ही स्मरण करना, श्रीरामजी का ही गुण गाना और निरन्तर श्रीरामजीके
ही गुणसमूहोंको सुनना चाहिये।।3।।
गुरु शिष्य
के बिच अद्वैत नहीं होना चाहिये।