રામ કથા – 912
માનસ બુદ્ધત્વ
લુમ્બિની, નેપાળ
મંગળવાર, તારીખ 0૭/0૨/૨0૨૩ થી બુધવાર, તારીખ ૧૫/0૨/૨0૨૩
મુખ્ય ચોપાઈ
भाषाबद्ध करबि मैं सोई।
मोरें मन प्रबोध जेहिं
होई॥
बुध बिश्राम सकल जन रंजनि।
रामकथा कलि कलुष बिभंजनि॥
1
Saturday,
07/02/2023
तदपि कही गुर बारहिं बारा।
समुझि परी कछु मति अनुसारा॥
भाषाबद्ध करबि मैं सोई। मोरें मन प्रबोध जेहिं होई॥1॥
तो
भी गुरुजी ने जब बार-बार कथा कही, तब बुद्धि के अनुसार कुछ समझ में आई। वही अब मेरे
द्वारा भाषा में रची जाएगी, जिससे मेरे मन को संतोष हो॥1॥
बुध बिश्राम सकल जन रंजनि। रामकथा कलि कलुष बिभंजनि॥
रामकथा कलि पंनग भरनी।
पुनि बिबेक पावक कहुँ अरनी॥3॥
रामकथा
पण्डितों को विश्राम देने वाली, सब मनुष्यों को प्रसन्न करने वाली और कलियुग के पापों
का नाश करने वाली है। रामकथा कलियुग रूपी साँप के लिए मोरनी है और विवेक रूपी अग्नि
के प्रकट करने के लिए अरणि (मंथन की जाने वाली लकड़ी) है, (अर्थात इस कथा से ज्ञान
की प्राप्ति होती है)॥3॥
बुद्ध
करुणावतार हैं।
वन्दे बोधमयं नित्यं गुरुं
शंकररूपिणम्।
यमाश्रितो हि वक्रोऽपि
चन्द्रः सर्वत्र वन्द्यते॥3॥
ज्ञानमय,
नित्य, शंकर रूपी गुरु की मैं वन्दना करता हूँ, जिनके आश्रित होने से ही टेढ़ा चन्द्रमा
भी सर्वत्र वन्दित होता है॥3॥
बालकांड
का सार निर्दोषता हैं।
बालक
जन्म से निर्दोष होता हैं, हालाकि माता की वजह से वात पित और कफ के कारण बालक में उस
की असर होती हैं।
जौं बालक कह तोतरि बाता।
भगवान
बुद्ध जन्मजात निर्दोष हैं।
निर्दोष
बालक में कुसंग के कारण दोष आते हैं। और ईसी की वजह से कर्म दोष आते हैं।
भगवान
बुद्ध की जीवन यात्रा में कोई भी संग दोष या कर्म दोष नहीं हैं।
अयोध्याकांड
यौवन का कांड हैं।
राम
को युवानी में वनवास होता हैं और उदासीन होना पडता हैं।
तापस बेष बिसेषि उदासी।
चौदह बरिस रामु बनबासी॥
सुनि मृदु बचन भूप हियँ सोकू। ससि कर छुअत बिकल जिमि कोकू॥2॥
तपस्वियों के वेष में विशेष उदासीन
भाव से (राज्य
और कुटुम्ब आदि की ओर से भलीभाँति
उदासीन होकर विरक्त
मुनियों की भाँति)
राम चौदह वर्ष तक वन में निवास करें। कैकेयी
के कोमल (विनययुक्त)
वचन सुनकर राजा के हृदय में ऐसा शोक हुआ जैसे चन्द्रमा
की किरणों के स्पर्श से चकवा विकल हो जाता है॥2॥
भगवान
बुद्ध ने युवानी में गृहत्याग किया हैं।
अरण्यकांड
तपस्या का कांड होता हैं।
भगवान
बुद्ध का जीवन भी कठिन तपस्या से भरा हैं।
किषकिन्धाकांड
मैत्रीका कांड हैं।
सुंदरकांड
सुंदरता का कांड हैं।
भगवान
बुद्ध आंतर बाह्य सुंदर हैं, मासुम हैं।
जब
निर्दोषता, त्याग - उदासीनता, तपस्या, मैत्री और आंतर बाह्य सुंदरता आती हैं तो फिर
बडे संघर्ष आने लगते हैं।
उत्तरकांड
करुणा का कांड हैं।
सुंदर सुजान कृपा निधान
अनाथ पर कर प्रीति जो।
सो एक राम अकाम हित निर्बानप्रद
सम आन को।।
जाकी कृपा लवलेस ते मतिमंद
तुलसीदासहूँ।
पायो परम बिश्रामु राम समान प्रभु नाहीं कहूँ।।3।।
[परम]
सुन्दर, सुजान और कृपानिधान तथा जो अनाथों पर प्रेम करते हैं, ऐसे एक श्रीरामचन्द्रजी
ही हैं। इनके समान निष्काम (निःस्वार्थ) हित करनेवाला (सुह्रद्) और मोक्ष देनेवाला
दूसरा कौन है ? जिनकी लेशमात्र कृपासे मन्दबुद्धि तुलसीदासने भी परम शान्ति प्राप्त
कर ली, उन श्रीरामजीके समान प्रभु कहीं भी नहीं हैं।।3।।
बुद्धत्व
आते हि युद्धत्व समाप्त हो जाता हैं।
बुद्ध
पुरुष की चरन रज हमारे नेत्र दोष का निवारण करती हैं।
2
Wednesday, 08/02/2023
बुद्धत्व
क्या हैं?
जब
किसी शब्द के पीछे त्व शब्द लगता हैं तब उस शब्द की विशेष महिमा होती हैं, पुरुष से
पुरुषत्व, मनुष्य से मनुष्यत्व, स्त्री से स्त्रीत्व वगेरे।
बुद्धत्व
एक प्रकार का चुंबकत्व हैं।
व्रत
का अर्थ संयम ब्रह्मचर्य हैं।
जब
पीछले जन्म में संयम की पराकाष्टा तक की यात्रा होती हैं तब दूसरे जन्म में ब्रह्मचर्य
रहता हैं, ब्रह्मचर्य रखना बहूत कठिन हैं।
आध्यात्म
में तीन प्रकार की कामना आवकार्य हैं।
a.
बोध
की कामना
b.
निस्वार्थ
भाव से अस्त्नित्व की सेवा करनेकी कामना
c.
परम
के दर्शन की कामना
भक्ति
मार्ग में – प्रेम मार्ग में आह – चीख औषधि हैं।
दुःख
हैं, दुःख के कारण हैं और दुःख के उपाय भी हैं।
अग जग जीव नाग नर देवा।
नाथ सकल जगु काल कलेवा।।
अंड कटाह अमित लय कारी।
कालु सदा दुरतिक्रम भारी।।4।।
[क्योंकि]
हे नाथ ! नाग, मनुष्य, देवता आदि चर-अचर जीव तथा यह सारा जगत् कालका कलेवा है। असंख्य
ब्रह्माण्डोंका नाश करनेवाला काल सदा बड़ा ही अनिवार्य है।।4।।
धन
स्वयं एक दोष हैं, हालाकि धन कमाना चाहिये। लेकिन धन का अहंकार दोष हैं। धन की तृष्णा
– ज्यादा धन कमाने की लालसा दोष हैं।
समस्या
के पूर्णतः समाधान की स्थिति समाधि हैं।
बुद्धत्व
के लक्षण
a.
अध्ययन बुद्धत्व का लक्षण हैं।
b.
तपस्या
बुद्धत्व का लक्षण हैं।
c.
मौन
बुद्ध्त्व का लक्षण हैं।
d.
ध्यान
बुद्धत्व का लक्षण हैं।
e.
जिसने
बुद्धत्व पाया हैं वह उसकी हर क्रिया दूसरों को सुखी करने के लिये होती हैं। ऐसा करना
बुद्धत्व क लक्षण हैं।
f.
दूसरों
का स्वभाव जानना बुद्धत्व का लक्षण हैं।
g.
कोई
भी सूत्र की तर्क द्वारा व्याख्या करके प्रश्नकर्ता को संतुष्ट करना बुद्धत्व का लक्षण
हैं।
h.
कोई
भी उपकरण के बिना निरंतर जप करना बुद्धत्व का लक्षण हैं।
i.
जो
विलक्षण हैं ( जिस के समान ओर कोई नहीं हैं) वह बुद्धत्व पाया हुआ व्यक्ति हैं।
अगर
हम रोटी, घोडा और पान को चलाते नहीं हैं तो वह तीनो बीगड जाते हैं, वैसे साधु अगर न
चले तो वह भी बीगड जाता हैं।
मैं जानउँ निज नाथ सुभाऊ। अपराधिहु
पर कोह न काऊ॥
मो पर कृपा सनेहु बिसेषी। खेलत खुनिस न कबहूँ देखी॥3॥
अपने स्वामी
का स्वभाव मैं जानता हूँ। वे अपराधी
पर भी कभी क्रोध नहीं करते। मुझ पर तो उनकी विशेष कृपा और स्नेह है। मैंने खेल में भी कभी उनकी रीस (अप्रसन्नता)
नहीं देखी॥3॥
भजनानंदी
हरिनाम का स्वाध्याय करता हैं।
कुछ
अपराध नीम्न मुजब हैं।
1 बुद्धत्व
प्राप्त किये हुए साधु पुरुष की उपेक्षा करना अपराध हैं।
2 बुद्धत्व
प्राप्त व्यक्ति के सामने जुठ बोलना अपराध हैं।
3 अपने
आश्रय स्थान से कुछ भी छिपाना अपराध हैं, ऐसा कभी भी न करना चाहिये।
4 अपने
बुद्ध पुरुष से कभी भी द्वेष करना अपराध हैं, ऐसा कभी भी न करना चाहिये।
5 अपने बुद्ध पुरुष के परिवार जनो से कभी भी द्वेष
नहीं करना चाहिये, बुद्ध पुरुष का परिवार वैश्विक होता हैं।
6 अपने बुद्ध पुरुष में मनुष्य बुद्धि हैं ऐसा विचार
अपराध हैं, उस को एक हमारे जैसा मनुष्य समजना अपराध हैं।
7 अपना
बुद्ध पुरुष नर रुप में हरि हैं। ऐसा न मानना अपराध हैं।
8 अपने
गुरु की नकल करना अपराध हैं।
9 अपने
गुरु का कर्म न करना – उसकी कही हुई बात को न मानना अपराध हैं।
10 अपना
बुद्ध पुरुष सब से श्रेष्ठ हैं, और ऐसा न मानना अपराध हैं।
11 गुरुका दिया हुआ ग्रंथ. मंत्र का छोडना अपराध
हैं।
गुरु
के पंच शील हैं।
·
गुर
धर्म शील होता हैं।
·
क्षमा
शील
·
गुण
शील
·
बल
शील
·
धर्म
शील
·
कृपा
शील
·
करुना
शील
गुरु
की निर्दोषता को उसकी कायरता समजना अपराध हैं।
गुरु
से अगर अपना मनोरथ पूर्ण न हो तो वह हमारे हित में हैं। अगर ऐसा आश्रित नहीं मानता
हैं तो वह अपराध हैं। ऐसा अपराध नारद ने मोहिनी प्रसंग में किया था।
किसी
वैष्णव का अपराध विष्णु का अपराध हैं।
बुद्ध
पुरुष के पास किसी कि निंदा नहीं करनी चाहिये।
अगर
हम ऐसे अपराध करे तो भी हमारा गुरु हमारे सब अपराध माफ कर देता हैं और ईसे गुरु का
अपराध कहते हैं|
3
09/02/2023, Thursday
बध्ध (भाषा बध्ध मे जो बध्ध शब्द हैं) – जुड जाना, संकल्प
बद्ध होना, वचन बद्ध होना, यह बंधन वाचक नहीं हैं।
राम
चरित मानस संशय से शुरु होता हैं और शरणागति तक ले जाता हैं, यह वहम से विश्वास की
यात्रा हैं, प्रश्न से पूर्ण विराम की यात्रा हैं।
जब
प्रभु द्रविभूत हो जाय तब हि साधु संग होता हैं।
सिर्फ
प्रसाद से हि स्मृति आयेगी।
मम माया संभव संसारा। जीव
चराचर बिबिधि प्रकारा।।
सब मम प्रिय सब मम उपजाए। सब ते अधिक मनुज मोहि भाए।।2।।
यह
सारा संसार मेरी माया से उत्पन्न है। [इसमें] अनेकों प्रकार के चराचर जीव हैं। वे सभी
मुझे प्रिय हैं; क्यों कि सभी मेरे उत्पन्न किये हुए हैं। [किन्तु] मनुष्य मुझको सबसे
अधिक अच्छ लगते हैं।।2।।
कल्पवृक्ष – यह कल्पना की धारा हैं। यह कर्म मूलक
वृक्ष हैं – कर्म प्रधान लोगों के लिये कल्पवृक्ष कर्म योग हैं।
वट
वृक्ष – यह भजन मार्ग हैं, भक्ति योग हैं, प्रेम मार्ग के लोगो का वृक्ष हैं।
बोधी
वृक्ष – यह ज्ञान योग हैं, ज्ञान मार्ग हैं।
राष्ट्र
प्रेम विश्व प्रेम में बाधक नहीं होना चाहिये।
वसुधैव कुटुम्बकम्
वाणी
शस्त्र हैं, मौन शास्त्र हैं।
भोग
बुरी चिज नहीं हैं लेकिन उस वक्त ईश्वर को भूल जाना बुरी चिज हैं।
त्याग
करने के बाद भोग करो।
ईशावास्य
उपनिषद में एक सूत्र है -तेन त्यक्तेन भुंजीथा:!
इसका अर्थ है कि जो त्याग करते हैं वे ही भोग पाते हैं।
काम
के तीन प्रकार हैं।
१
भूमिगत
काम – यह स्थुल हैं, शरीर केन्द्रीत हैं, भूमिगत काम मूर्छित कर देता हैं।
२
जलगत
काम – कोई कला देखकर रस लेना जलगत काम हैं, यह काम मूर्छित नहीं करता हैं लेकिन मग्न
करता हैं।
३
गगन
गत काम – यह काम हमे राम में परिवर्तित कर देता हैं, असंग बनाता हैं, उदासिन बनाता
हैं।
दया, गरीबी, बन्दगी, समता
शील उपकार।
ईत्ने लक्षण साधु के, कहें
कबीर विचार॥
संत
कबीर दास जी कहते हैं कि सज्जन पुरुष में निम्न गुणों का होना आवश्यक है- सभी के लिए
दया भाव, अभिमान भाव की गरीबी, इश्वर की भक्ति, सभी के लिए समानता का विचार, मन की
शीतलता एवं परोपकार।
त्रिदंडी
के तीन लक्षण
a.
मौन
रहना
b.
सम्यक
बोलना
c.
शरीर
से निष्काम कर्म करना
चित
का दंड निरंतर प्राणायम करना हैं।
नव
निधि
a.
करुना
निधि
b.
रुप
निधि
c.
शील
निधि
d.
आत्म
निधि
e.
योग
निधि – सत्य, प्रेम करुना से जुड जाना
f.
वैराग्य
निधि
g.
प्रेम
निधि
4
Friday, 10/02/2023
हमारे
में सोया हुआ हनुमान कैसे जागृत करे?
हनुमान
राम कथा के रसिक हैं, ईसीलिये उन्को राम कथा सुनाने से जागृत हो जायेगें।
प्रभु चरित्र सुनिबे को
रसिया । राम लखन सीता मन बसिया ।।
श्वास
और विश्वास – प्राणवायु – कभी सोता नहीं हैं। हमारा भरोंसा – यकीन - कभी भी सो जाना
नहीं चाहिये।
विश्वास
श्रद्धा का विशेषण हैं, विशेष पहचान हैं।
आनंद
और अश्रु संक्रामक – चेपी रोग हैं।
5
Saturday, 11/02/2023
व्यासपीठ
हमें WATCH और WASH करती हैं।
व्यासपीठ
कल्याण मित्र हैं। ….. ऑशो
बुध बिश्राम सकल जन रंजनि।
रामकथा कलि कलुष बिभंजनि॥
रामकथा कलि पंनग भरनी।
पुनि बिबेक पावक कहुँ अरनी॥3॥
रामकथा
पण्डितों को विश्राम देने वाली, सब मनुष्यों को प्रसन्न करने वाली और कलियुग के पापों
का नाश करने वाली है। रामकथा कलियुग रूपी साँप के लिए मोरनी है और विवेक रूपी अग्नि
के प्रकट करने के लिए अरणि (मंथन की जाने वाली लकड़ी) है, (अर्थात इस कथा से ज्ञान
की प्राप्ति होती है)॥3॥
खेर,
खुन, खांशी, प्रेम, मधुपान वगेरे कभी भी छुपाई नहीं जाती हैं।
सब
से मुल्यवान धन साधु हैं।
साधु
के पास ध्यान का धन, प्रेम का धन, करुणा का धन होता हैं।
भगवान
बुद्ध की ८ सम्यकता
सम्यक द्रष्टि
सम्यक वाणी
सम्यक संकल्प
सम्यक कर्म
सम्यक आजीविका
सम्यक व्यायाम – योगा
सम्यक स्मृति
सम्यक समाधि
आधि,
व्याधि उपाधि चली जानेके बाद जो बचता हैं वह समाधि हैं।
गुरु
वाक्य और शास्त्र वाक्यो में विश्वास – भरोसा हि श्रद्धा हैं।
6
Sunday, 12/02/2023
पूर्णतः
सत्संग तभी आयेगा जब उस सतसंग में न स्वार्थ होगा, न परमार्थ होगा और उसमें केवल सतसंग
का रस – आनंद होगा। यह सतसंग ऐसा हैं जहां श्रोता और वक्ता निकट हि रहेगा, भले स्थुल
रुप में एक दूसरे से काफी दूर हो।
सतसंग
कालातित होता हैं।
किसी
भी साधक के पास अपने एक परम की छबी रहती हैं, जिसमें काल और स्थल मोट जाते हैं।
निंद्रा
और निंदा हमें व्यासपीठ से दूर ले जाती हैं और ईसमें कथा पवित्र और प्रवाही नहीं लगती
हैं।
सतसंग
हमें धन्य कर देता हैं।
द्विज द्रोहिहि न सुनाइअ
कबहूँ। सुरपति सरिस होइ नृप जबहूँ।।
राम कथा के तेइ अधिकारी
जिन्ह कें सत संगति अति प्यारी।।3।।
ब्राह्मणों
के द्रोही को, यदि वे देवराज (इन्द्र) के समान ऐश्वर्यवान् राजा भी हो, तब भी यह कथा
कभी नहीं सुनानी चाहिये। श्रीरामजीकी कथाके अधिकारी वे ही हैं जिनको सत्संगति अत्यन्त
प्रिय है।।3।।
सनमानि सकल बरात आदर दान
बिनय बड़ाइ कै।
प्रमुदित महामुनि बृंद
बंदे पूजि प्रेम लड़ाइ कै॥
सिरु नाइ देव मनाइ सब सन
कहत कर संपुट किएँ।
सुर साधु चाहत भाउ सिंधु
कि तोष जल अंजलि दिएँ॥1॥
आदर,
दान, विनय और बड़ाई के द्वारा सारी बारात का सम्मान कर राजा जनक ने महान आनंद के साथ
प्रेमपूर्वक लड़ाकर (लाड़ करके) मुनियों के समूह की पूजा एवं वंदना की। सिर नवाकर, देवताओं
को मनाकर, राजा हाथ जोड़कर सबसे कहने लगे कि देवता और साधु तो भाव ही चाहते हैं, (वे
प्रेम से ही प्रसन्न हो जाते हैं, उन पूर्णकाम महानुभावों को कोई कुछ देकर कैसे संतुष्ट
कर सकता है), क्या एक अंजलि जल देने से कहीं समुद्र संतुष्ट हो सकता है॥1॥
कर जोरि जनकु बहोरि बंधु
समेत कोसलराय सों।
बोले मनोहर बयन सानि सनेह
सील सुभाय सों॥
संबंध राजन रावरें हम बड़े
अब सब बिधि भए।
एहि राज साज समेत सेवक
जानिबे बिनु गथ लए॥2॥
फिर
जनकजी भाई सहित हाथ जोड़कर कोसलाधीश दशरथजी से स्नेह, शील और सुंदर प्रेम में सानकर
मनोहर वचन बोले- हे राजन्! आपके साथ संबंध हो जाने से अब हम सब प्रकार से बड़े हो गए।
इस राज-पाट सहित हम दोनों को आप बिना दाम के लिए हुए सेवक ही समझिएगा॥2॥
ए दारिका परिचारिका करि
पालिबीं करुना नई।
अपराधु छमिबो बोलि पठए
बहुत हौं ढीट्यो कई॥
पुनि भानुकुलभूषन सकल सनमान
निधि समधी किए।
कहि जाति नहिं बिनती परस्पर
प्रेम परिपूरन हिए॥3॥
इन
लड़कियों को टहलनी मानकर, नई-नई दया करके पालन कीजिएगा। मैंने बड़ी ढिठाई की कि आपको
यहाँ बुला भेजा, अपराध क्षमा कीजिएगा। फिर सूर्यकुल के भूषण दशरथजी ने समधी जनकजी को
सम्पूर्ण सम्मान का निधि कर दिया (इतना सम्मान किया कि वे सम्मान के भंडार ही हो गए)।
उनकी परस्पर की विनय कही नहीं जाती, दोनों के हृदय प्रेम से परिपूर्ण हैं॥3॥
बृंदारका गन सुमन बरिसहिं राउ जनवासेहि चले।
दुंदुभी जय धुनि बेद धुनि
नभ नगर कौतूहल भले॥
तब सखीं मंगल गान करत मुनीस
आयसु पाइ कै।
दूलह दुलहिनिन्ह सहित सुंदरि
चलीं कोहबर ल्याइ कै॥4॥
देवतागण
(बृंदारका) फूल बरसा रहे हैं, राजा जनवासे को चले।
नगाड़े की ध्वनि, जयध्वनि और वेद की ध्वनि हो रही है, आकाश और नगर दोनों में खूब कौतूहल
हो रहा है (आनंद छा रहा है), तब मुनीश्वर की आज्ञा पाकर सुंदरी सखियाँ मंगलगान करती
हुई दुलहिनों सहित दूल्हों को लिवाकर कोहबर को चलीं॥4॥
पुनि पुनि रामहि चितव सिय
सकुचति मनु सकुचै न।
हरत मनोहर मीन छबि प्रेम
पिआसे नैन॥326॥
सीताजी
बार-बार रामजी को देखती हैं और सकुचा जाती हैं, पर उनका मन नहीं सकुचाता। प्रेम के
प्यासे उनके नेत्र सुंदर मछलियों की छबि को हर रहे हैं॥326॥
दुन्दुभी
ध्वनि, शंख ध्वनि और वेद ध्वनि – यह तीन धुनी हैं – ध्वनि हैं।
हर
कथा एक नया अवसर हैं।
भूमिगत
काम मूर्छित करेगा लेकिन मार नहीं देगा।
जलगत
काम मग्न कर देगा।
मछली
जल में जीवित रहती हैं। यह जलगत काम हैं।
खल
गत काम में आंखो में संकोच हैं लेकिन मन में संकोच नहीं हैं। जानकी ऐसा करती हैं और
राम की ओर देखती हैं।
गावत ब्राह्मादिक मुनि
नारद
बालमीक विज्ञान विशारद
शुक सनकादि शेष अरु शारद
बरनि पवनसुत कीरति नीकी
आरती श्री रामायण जी की
कीरति कलित ललित सिया-पी की
गावत वेद पुरान अष्टदस
छओं शास्त्र सब ग्रन्थन
को रस
मुनि-मन धन सन्तन को सरबस
सार अंश सम्मत सबही की
आरती श्री रामायण जी की
कीरति कलित ललित सिया-पी की
गावत सन्तत शम्भू भवानी
अरु घट सम्भव मुनि विज्ञानी
व्यास आदि कविबर्ज बखानी
कागभुषुण्डि गरुड़ के ही
की
बुद्ध भगवान कहते हैं कि बुद्ध पुरुष आश्वासन देता
हैं, आशीर्वाद देता हैं और आनंद देता हैं।
सखा सोच त्यागहु बल मोरें।
सब बिधि घटब काज मैं तोरें॥5॥
शास्त्र
के अनुसार उपासन – किसी के पास कैसे बैठना, उपासना कैसे करनी चाहिये उस के ५ लक्षण
बताये हैं।
1.
विवेक
2.
विमोक
– अपनी प्रत्येक ईन्द्रीयों को महोबत से समजाने को विमोक कहते हैं, ईसे ईन्द्रीयों
को दिक्षित करना कहते हैं। आंख अगर कुछ गलत देखती हैं तो आंख को महोबत से मोडना हैं,
आंख को फोड देनी नहीं हैं।
3.
अवसाद
– शारीरिक, मानसिक और बौधिक – वैचारिक बल को निरंतर बढाना।
4.
कल्याण
– कल्याण का अर्थ जिसको स्पर्श करनेसे पवित्रता बढे, और मलिनता घटे।
5.
अपना
सदगुरु आवश्यक हैं।
7
Monday, 13/02/2023
कई
बुद्ध पुरुष की जन्म तिथि, बुद्धत्व की तिथि और निर्वाण तिथि एक हि होती हैं। यहीं
आदि, मध्य और अंत होता हैं। जिस महापुरुष के जीवन में ऐसी घटना बने वहीं बुद्धत्व हैं।
भगवान
बुद्ध की यह तिनो तिथि एक हि हैं। यशोधरा की जन्म तिथि और बुद्ध भगवान की जन्म तिथि
एक ही हैं।
बुद्ध
पुरुष समज से बाहर हैं, उसे समजने की कोशीश नहीं करनी चाहोये।
स्वामी
रामतीर्थ की यह तीनो तिथि दिपावली थी।
बुद्धत्व
प्राप्त पुरुष प्रेमी हैं और वह कर्म भी करता हैं।
राम
धर्म हैं तो सीता नीति हैं। सीता क्षमा, धैर्य, सहनशीलता की मूर्ति हैं।
जैसे
प्रेम के साथ रति हैं वैसे हि भरत के साथ मांडवी हैं, भरत प्रेम हैं, मांडवी रति हैं।
जागृति
के साथ सावधानपना होता हैं वैसे लक्ष्मण (जागृत_ के साथ उर्मिला हैं, उर्मिला सावधान
रहती हैं और पति के कार्य में अवरोध नहीं करती हैं।
शत्रुघ्न
जो मौन हैं उस के साथ श्रुतकीर्ति हैं जो दूसरो की कीर्ति सुनती हैं।
8
Tuesday, 14/02/2023
राम
चरित मानस और राम भगवान का नाम, रुप, धाम वगेरे कल्पन्ना नहीं हैं लेकिन सत्य हैं,
परम सत्य हैं।
राम
चरित मानस की परिक्रमा दरम्यान कई चेतना का संघ होता हैं और ऐसी परिक्रमा दरम्यान हम
राही हैं।
सत्य
हि शास्वत हैं, कल्पना नहीं।
रस्सी
भुजंग की तरह बुद्ध पुरुष के साथ ५ न्याय हैं।
1.
कंठ
रज्जु न्याय – ईसका उदाहरण रामक्रिश्न परमहंस हैं जिन को केन्सर हुआ था, लेकिन परमहंस
को यह केन्सर की कोई पिडा नहीं थी सिर्फ आभास था – भासित था। हकिकत में केन्सर नहीं
था। कंठ रज्जु भासित हैं. हकिकत नहीं हैं।
2.
कमर
रज्जु – करोड रज्जु – BACK PAIN PROBLEM – ईस में बुद्ध पुरुष बैठे रहते हैं, सोते
नहीं हैं। परमहंस ऐसा हि करते थे।
3.
कल्प
रज्जु – कल्पन्ना करना
4.
कृपा
रज्जु – कृपा रज्जु असलियत में रुपांतरित कर देती हैं।
5.
कर्ण
रज्जु – ईस में अनहद नाद सुनने के बाद ओर कुछ सुनने की ईच्छा नहीं होती हैं।
जब
कोई सामने हैं ओ ईशारा करो और सामने नहीं हैं तो (चला जाय) तो पुकार करो।
जो
सत्य हैं वहीं गुरु हैं, वहीं सद्गुरु हैं।
साधु
वर्णातित होता हैं।
हाथ
से छूटे वह त्याग और हार्ट से छूटे वह वैराग्य हैं।
9
Wednesday, 15/02/2023
मानस
बुद्धत्व संवाद की प्रधान पंक्त्तियो में तीन शब्द – बद्ध, बोध और बुध का उल्लेख हैं।।
यह
जीव की तीन श्रेणी हैं, १ बद्ध, २ बुध और ३ बोध, विषयी, साधक और सिद्ध।
तुलसीदासजी
कहते हैं कि ……
बिषई साधक सिद्ध सयाने।
त्रिबिध जीव जग बेद बखाने॥
राम सनेह सरस मन जासू। साधु सभाँ बड़ आदर तासू॥2॥
विषयी, साधक और ज्ञानवान
सिद्ध पुरुष- जगत में तीन प्रकार के जीव वेदों ने बताए हैं। इन तीनों में जिसका चित्त श्री रामजी के स्नेह से सरस (सराबोर) रहता है, साधुओं
की सभा में उसी का बड़ा आदर होता है॥2॥
शास्त्र
आत्मा और जीव को जोडता हैं और कभी अलग भी करता हैं।
श्वास
आत्मा और शरीर को जोडता हैं।
आत्मा
और शरीर एक नहीं हैं।
जब
तक प्राण हैं तब तक हि यह शरीर चलता हैं, जब प्राण चला जाता हैं तब यह शरीर भी चलना
बंध कर देया हैं।
वेद
में कर्म योग, उपासना योग और ध्यान योग का उल्लेख हैं।
परमहंस
जो वेद में नहीं लीखा हैं वह भी कभी कभी बोलते हैं।
राम
चरित मानस, राम नाम, कृष्ण नाम सार हैं।
कर्म
योग में बंधन आता हैं। कर्म बांधता हैं।
उपासना
योग करनार साधक हैं।
ज्ञान
योगी सिद्ध हैं।
बद्ध
विषयी जीव हैं।
जिसे
बोध हो गया हैं वह सिद्ध हैं।
बुध
जानने की कोशीश करता हैं।
हम
सत्य के आधिन हैं।
राम
सत्य संकल्प हैं।
प्रेम
साधक हैं।
सिद्ध
करुणा हैं, जिस को बोध हो गया हो वह कठोर नहीं बन शकता हैं।
संन्यास
का मतलब सबसे अभिन्न हो जाना हैं, भिन्न होना नहीं हैं।
कथाकथित
संन्यास अलग करता हैं जब कि असली संन्यास जोडता हैं।
करुणा
सिद्धता हैं।
करुणा
कठोर व्यक्ति को भी कोमल बना देती हैं। भगवान बुद्ध की करुणा अंगुलिमान जैसे कठोर व्यक्ति
को भी कोमल बना देती हैं।
संसार
में रहकर संसार से अभिन्न रहना संन्यास हैं।
जो
शुद्ध हैं वह सिद्ध से भी उपर हैं। एसा वेद में नहीं कहा गया हैं, यह चोथी अवस्था हैं।
शुद्ध
में सत्य, प्रेम और करुणा तीनो समाहित हैं।
राम
चरित मानस के हरेक कांड में विषयी, साधक और सिद्ध पात्र हैं।
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