રામ કથા – 871
માનસ
લક્ષદ્વીપ
શનિવાર, તારીખ ૨૨/0૧/૨0૨૨
થી રવિવાર, તારીખ ૨૩/0૧/૨0૨૨
મુખ્ય ચોપાઈ
जद्यपि ताहि कामना नाहीं॥
सागर निज मरजादाँ रहहीं।
डारहिं रत्न तटन्हि नर
लहहीं।।
1
Saturday, 22/01/2022
सुनि बोले गुर अति सुखु
पाई। पुन्य पुरुष कहुँ महि सुख छाई॥
जिमि सरिता सागर महुँ जाहीं। जद्यपि ताहि कामना नाहीं॥1॥
………………………………………………………………………………………
बालकांड
सब
समाचार सुनकर और अत्यन्त सुख पाकर गुरु बोले- पुण्यात्मा पुरुष के लिए पृथ्वी सुखों
से छाई हुई है। जैसे नदियाँ समुद्र में जाती हैं, यद्यपि समुद्र को नदी की कामना नहीं
होती॥1॥
सागर निज मरजादाँ रहहीं। डारहिं रत्न तटन्हि नर लहहीं।।
सरसिज संकुल सकल तड़ागा।
अति प्रसन्न दस दिसा बिभागा।।5।।
……………………………………………………………………………… उत्तरकांड
समुद्र
अपनी मर्यादा में रहते हैं। वे लहरों के द्वारा किनारों पर रत्न डाल देते हैं, जिन्हें
मनुष्य पा जाते हैं। सब तालाब कमलों से परिपूर्ण हैं। दसों दिशाओं के विभाग (अर्थात्
सभी प्रदेश) अत्यन्त प्रसन्न हैं।।5।।
मानस
एक स्वयं सागर हैं।
वारिदुर्ग
को सब तरफ से सागर एक किल्ला रहकर रक्षा करता हैं – वारि दुर्ग – किल्ला बनता हैं।
सात
सागर – खांड सागर, मध सागर, दहीं सागर, दूध सागर, शेरडी के रसका सागर, घी का सागर,
पानी का सागर।
सागर
की तीन घटना - सागर की उत्पत्ति कब हुई, सागर परमात्माका उदर हैं, सागर मंथन की घटना
और अगत्स्य तीन अंजलिमें सागर निग्रह करते हैं।
परमात्माके
उदर रुपी सागरसे कौन से १४ रत्न नीकले हैं?
सात
अबज लोंगो हमारा ह्मदय प्रेम करनेके लिये सक्षम हैं।
बालकांड
के सात मंत्र सप्त समुद्र हैं।
प्रथम
मंत्र शेरडी के रस का सागर हैं जो मंगलकारक हैं।
वर्णानामर्थसंघानां रसानां
छन्दसामपि।
मंगलानां च कर्त्तारौ वन्दे
वाणीविनायकौ॥1॥
अक्षरों,
अर्थ समूहों, रसों, छन्दों और मंगलों को करने वाली सरस्वतीजी और गणेशजी की मैं वंदना
करता हूँ॥1॥
भवानीशंकरौ वन्दे श्रद्धाविश्वासरूपिणौ।
याभ्यां विना न पश्यन्ति
सिद्धाः स्वान्तःस्थमीश्वरम्॥2॥
श्रद्धा
और विश्वास के स्वरूप श्री पार्वतीजी और श्री शंकरजी की मैं वंदना करता हूँ, जिनके
बिना सिद्धजन अपने अन्तःकरण में स्थित ईश्वर को नहीं देख सकते॥2॥
यह दहीं का सागर हैं।
वन्दे बोधमयं नित्यं गुरुं
शंकररूपिणम्।
यमाश्रितो हि वक्रोऽपि
चन्द्रः सर्वत्र वन्द्यते॥3॥
ज्ञानमय,
नित्य, शंकर रूपी गुरु की मैं वन्दना करता हूँ, जिनके आश्रित होने से ही टेढ़ा चन्द्रमा
भी सर्वत्र वन्दित होता है॥3॥
यह
मधका समुद्र हैं, बुद्ध पुरुष की बानी मध जैसी होती हैं।
सीतारामगुणग्रामपुण्यारण्यविहारिणौ।
वन्दे विशुद्धविज्ञानौ
कवीश्वरकपीश्वरौ॥4॥
श्री
सीतारामजी के गुणसमूह रूपी पवित्र वन में विहार करने वाले, विशुद्ध विज्ञान सम्पन्न
कवीश्वर श्री वाल्मीकिजी और कपीश्वर श्री हनुमानजी की मैं वन्दना करता हूँ॥4॥
उद्भवस्थितिसंहारकारिणीं
क्लेशहारिणीम्।
सर्वश्रेयस्करीं सीतां
नतोऽहं रामवल्लभाम्॥5॥
उत्पत्ति,
स्थिति (पालन) और संहार करने वाली, क्लेशों को हरने वाली तथा सम्पूर्ण कल्याणों को
करने वाली श्री रामचन्द्रजी की प्रियतमा श्री सीताजी को मैं नमस्कार करता हूँ॥5॥
यह
दूध का सागर हैं।
यन्मायावशवर्ति विश्वमखिलं
ब्रह्मादिदेवासुरा
यत्सत्त्वादमृषैव भाति
सकलं रज्जौ यथाहेर्भ्रमः।
यत्पादप्लवमेकमेव हि भवाम्भोधेस्तितीर्षावतां
वन्देऽहं तमशेषकारणपरं
रामाख्यमीशं हरिम्॥6॥
जिनकी
माया के वशीभूत सम्पूर्ण विश्व, ब्रह्मादि देवता और असुर हैं, जिनकी सत्ता से रस्सी
में सर्प के भ्रम की भाँति यह सारा दृश्य जगत् सत्य ही प्रतीत होता है और जिनके केवल
चरण ही भवसागर से तरने की इच्छा वालों के लिए एकमात्र नौका हैं, उन समस्त कारणों से
पर (सब कारणों के कारण और सबसे श्रेष्ठ) राम कहलाने वाले भगवान हरि की मैं वंदना करता
हूँ॥6॥
यह जल का सागर हैं।
नानापुराणनिगमागमसम्मतं
यद्
रामायणे निगदितं क्वचिदन्यतोऽपि।
स्वान्तःसुखाय तुलसी रघुनाथगाथा
भाषानिबन्धमतिमंजुलमातनोति॥7॥
अनेक
पुराण, वेद और (तंत्र) शास्त्र से सम्मत तथा जो रामायण में वर्णित है और कुछ अन्यत्र
से भी उपलब्ध श्री रघुनाथजी की कथा को तुलसीदास अपने अन्तःकरण के सुख के लिए अत्यन्त
मनोहर भाषा रचना में विस्तृत करता है॥7॥
गणेश
पंचामृत घी हैं।
विष्णु
भगवान सागर में रहते हैं।
गुरु
में पंचामृत के पांच द्रव्य हैं – दूध, दहीं, मध, घी और साकर। गुरु हमारा मंथन करके
घी नीकालता हैं।
तुलसी
का आत्मनिवेदन ……..
धूत कहौ, अवधूत कहौ, रजपूतु
कहौ, जोलहा कहौ कोऊ।
काहू की बेटी सों, बेटा
न ब्याहब, काहू की जाति बिगार न सोऊ।
तुलसी सरनाम गुलामु है
राम को, जाको, रुचै सो कहै कछु ओऊ।
माँगि कै खैबो, मसीत को
सोईबो, लैबो को, एकु न दैबे को दोऊ॥
चाहे
कोई मुझे धूर्त कहे अथवा परमहंस कहे, राजपूत कहे या जुलाहा कहे, मुझे किसी की बेटी
से तो बेटे का ब्याह करना नहीं है, न मैं किसी से संपर्क रखकर उसकी जाति ही बिगाड़ूँगा।
तुलसीदास तो श्रीराम का प्रसिद्ध ग़ुलाम है, जिसको जो रुचे सो कहो। मुझको तो माँग के
खाना और मसजिद (देवालय) में सोना है, न किसी से एक लेना है, न दो देना है।
मेरे जाति पाँति, न चहौं
काहू की जाति पाँति,
मेरे कोऊ काम को न हौं
काहू के काम को।
लोक परलोक रघुनाथ ही के
हाथ सब,
भारी है भरोसो तुलसी के
एक नाम को॥
अति ही अयाने उपखानो नहिं
बूझैं लोग,
साहही को गोत गोत होत है
गुलाम को।
साधु कै असाधु, के भला
कै पोच, सोच कहा, काहूके द्वार परौं जो हैं। सा हैंराम को ॥
मेरी
कोई जाति-पाँति नहीं है, और न मैं किसी की जाति-पाँति चाहता हूँ: न कोई मेरे काम का
है, न मैं किसी के काम का; लोक-परलोक सब रामचन्द्र के हाथ है। तुलसी को एक राम नाम
ही का भारी भरोसा है। लोग बड़े बेशऊर हैं जो इस कथा को नहीं जानते हैं कि साह ( मालिक
) का गीत ही गुलाम का गोत होता है। साधु हूँ तो, असाधु हूँ तो, भला हूँ या बुरा, किसी
को क्या मतलब ? क्या मैं किसी के दरवाजे पर पड़ा हूँ ? जो हूँ, राम का हूँ।
कोऊ कहै करत कुसाज दगाबाज
बड़ो, कोऊ कहै राम को गुलाम खरो खूब है।
साधु जानै महासाधु, खल
जाने महाखल, बानी झूठी साँची कोटि उठत हबूब है ॥
चाहत न काहू सों, न कहत
काहू की कछु, सबकी सहत उर अंतर न ऊब है।
तुलसी को भलो पोच हाथ रघुनाथ
ही के, राम की भगति भूमि, मेरी मति दूब है ॥
बाज़
लोग कहते हैं कि मैं बड़ा दगाबाज़ हूँ, कुसाज अर्थात् धोखा देने को बुरी सामग्रो इकट्ठा
करता हूँ, और बाज़ लोग कहते हैं कि खूब रामचन्द्र का भक्त हूँ; मुझे साधु भला जानते
हैं, खल महाखल, करोड़ों तरह की झूठी-सच्ची बातें मेरे लिए पानी फैसे बुदबुदे की सरह
उठती हैं (कही जाती हैं)। न मैं किसी से कुछ चाहता हूँ, और न किसी से कुछ कहता हूँ,
सब की सहता हूँ। मेरे मन में कुछ अब नहीं है यानी सहते-सहते थका नहीं हूँ। तुलसी का
भला और बुरा रघुनाथ के हाथ है, राम की भक्ति रूपी दूब मेरी देह रूपी भूमि में सब जगह
विद्यमान है।
बुद्ध
पुरुष आश्रित को मथ कर नवनीत नीकालता हैं।
गुरु
का पंचामृत पानेके लिये छठा अमृत – निष्ठामृत की आवश्यकता हैं।
सनातन
धर्म में स का मतलब सनकादिक हैं जो कुमार अवस्थामें हि रहता हें, ना का अर्थ नारद,
त का अर्थ तेजस्वी और तपस्वी हैं, और न का अर्थ किसीका नकार न करना हैं।
2
Sunday, 23/01/2022
राम
चरित मानस में ६४ बार सागर शब्द आया हैं।
समुद्र
को सरिता की कोई जरुरत नहीं हैं।
कामनाहिन
जो होता हैं वहीं उदार होता हैं।
रामनाम
का सुबह में उच्चारण करने से दिन भरी कामना, क्रोध नष्ट करता हैं ……….. गांधीजी
रामनाम
कामना से दूर करता हैं और हमें उदार बनाता हैं। रामनाम संग्रहखोर को उदार बनाता हैं।
संग्रहखोर
का मंथन करनेसे रत्न – धन नीकलता हैं।
सुनहु भानुकुल केतु जामवंत
कर जोरि कह।
नाथ नाम तव सेतु नर चढ़ि
भव सागर तरहिं॥
जाम्बवान् ने हाथ जोड़कर कहा- हे सूर्यकुल के ध्वजास्वरूप
(कीर्ति को बढ़ाने वाले) श्री रामजी! सुनिए। हे नाथ! (सबसे बड़ा) सेतु तो आपका नाम
ही है, जिस पर चढ़कर (जिसका आश्रय लेकर) मनुष्य संसार रूपी समुद्र से पार हो जाते हैं।
कई
लोग सफेद कपडे में बहुत कपटी होते हैं – संग्रहखोर होते हैं, चार दांत वाले होते हैं
और यह चार दांत दिखाई नहीं देते हैं, अंदर होते हैं।
साधु
की अवज्ञा करनेसे – अपमान करने से - चार नुकशान होते हैं – चार वस्तु में संताप पेदा
होते हैं – मनमें संताप पेदा होता हैं यह सावधानी हैं श्राप नहीं हैं, तन, मन, धन और
भवन में संताप पेदा होता हैं
भगवान
के साथ - साधु के साथ अपनी रुची के अनुरुप संबंध बांधो। परमात्मा के साथ सखा का संबंध
रखना अच्छा हैं। सखाभाव के सम्बंध में बहुत स्वतंत्रता मिलती हैं। अगर भगवान सखा बनते
हैं तो यह सखा विपत काल में हमें छोडेगा नहीं।
भगवान
राम के ६ सखा हैं – स्वार्थ रहित सखा – अयोध्या के बालक, गुह, रिछ, बंदर, सुग्रीव,
विभीषण।
सखा समुझि अस परिहरि मोहू। सिय रघुबीर
चरन रत होहू॥
कहत राम गुन भा भिनुसारा। जागे जग मंगल सुखदारा॥1॥
हे सखा! ऐसा समझ, मोह को त्यागकर श्री सीतारामजी के चरणों में प्रेम करो। इस प्रकार
श्री रामचन्द्रजी के गुण कहते-कहते
सबेरा हो गया! तब जगत का मंगल करने वाले और उसे सुख देने वाले श्री रामजी जागे॥1॥
सेवक सठ नृप कृपन कुनारी।
कपटी मित्र सूल सम चारी॥
सखा सोच त्यागहु बल मोरें। सब बिधि घटब काज मैं तोरें॥5॥
मूर्ख
सेवक, कंजूस राजा, कुलटा स्त्री और कपटी मित्र- ये चारों शूल के समान पीड़ा देने वाले
हैं। हे सखा! मेरे बल पर अब तुम चिंता छोड़ दो। मैं सब प्रकार से तुम्हारे काम आऊँगा
(तुम्हारी सहायता करूँगा)॥5॥
सदगुरु
को छोड दो या सदगुरु पर सब छोड दो।
गंगा
औषधि हैं और औषधि को भी गंगा मानना चाहिये।
भूतकाल
की हरी छोडो – भूतकाल की घटना की चिंता छोडो – खेद छोडो, भविष्यकाल की वरी – WORRY
- छोडो सिर्फ वर्तमान में हरि हरि करो।
जो
बहुत विचार करता हैं वह विराट से वंचित हो जाता हैं।
लोभ पाँस जेहिं गर न बँधाया।
सो नर तुम्ह समान रघुराया॥
यह गुन साधन तें नहिं होई। तुम्हरी कृपा पाव कोइ कोई॥3॥
और
लोभ की फाँसी से जिसने अपना गला नहीं बँधाया, हे रघुनाथजी! वह मनुष्य आप ही के समान
है। ये गुण साधन से नहीं प्राप्त होते। आपकी कृपा से ही कोई-कोई इन्हें पाते हैं॥3॥
सुर
सागर संगीत का सागर हैं।
विरोध
चार प्रकार से होता हैं – कई लोग सत्य का विरोध करते हैं, कई लोग छूठ का विरोध करते
हैं, कई लोग सत्य और छूठ दोंनो का विरोध करते हैं, कई लोग किसी का भी विरोध नहीं करते
हैं ……. स्वामी सस्चिदानंद
जो
अपने दुश्मन को माफ कर दे – प्रेम करे वहीं जिसस हैं।
तुहूँ सराहसि
करसि सनेहू। अब सुनि मोहि भयउ संदेहू॥
जासु सुभाउ अरिहि अनूकूला। सो किमि करिहि मातु प्रतिकूला॥4॥
तू स्वयं भी राम की सराहना
करती और उन पर स्नेह किया करती थी। अब यह सुनकर मुझे संदेह हो गया है (कि तुम्हारी प्रशंसा
और स्नेह कहीं झूठे तो न थे?) जिसका स्वभाव
शत्रु को भी अनूकल है, वह माता के प्रतिकूल
आचरण क्यों कर करेगा?॥4॥
राम
सागर अद्भूत सागर हैं।
परिश्रम
की प्रक्रिया में अगर कपट हैं तो एंसे परिश्रम से झहर नीकलता हैं।
3
Monday, 24/01/2022
नील सरोरुह स्याम तरुन
अरुन बारिज नयन।
करउ सो मम उर धाम सदा छीरसागर
सयन॥3॥
जो
नीलकमल के समान श्यामवर्ण हैं, पूर्ण खिले हुए लाल कमल के समान जिनके नेत्र हैं और
जो सदा क्षीरसागर पर शयन करते हैं, वे भगवान् (नारायण) मेरे हृदय में निवास करें॥3॥
कोई
कहे कि हम परम धर्म से आगे है तो वह झेर हैं। परम धर्म को छोटा बनान हि झहर हैं।
बंदउँ बिधि पद रेनु भव
सागर जेहिं कीन्ह जहँ।
संत सुधा ससि धेनु प्रगटे
खल बिष बारुनी॥14च॥
मैं
ब्रह्माजी के चरण रज की वन्दना करता हूँ, जिन्होंने भवसागर बनाया है, जहाँ से एक ओर
संतरूपी अमृत, चन्द्रमा और कामधेनु निकले और दूसरी ओर दुष्ट मनुष्य रूपी विष और मदिरा
उत्पन्न हुए॥14
तुलसी
कली पावनावतार हैं।
मानस
सरोवरमे निरंतर लहर आती रहती हैं।
मानस
सागर में जो स्नान करता हैं उसे और स्नान करने की जरुरत नहीं हैं, हालाकि शारीरिक स्नान
तो करना हि चाहिये।
राम
महा मंत्र, शिव महा मंत्र, विष्णु मंत्र मिल जाय तो ओर मंत्र की आवश्यकता नहीं हैं।
बानि बिनायकु अंब रबि गुरु
हर रमा रमेस।
सुमिरि करहु सब काज सुभ,
मंगल देस बिदेस॥१॥
भगवती
सरस्वती, श्रीगणेशजी, श्रीपार्वतीजी, श्रीसूर्यभगवान, गुरुदेव, भगवान शंकर,
भगवती
लक्ष्मी करो, स्वदेश और विदेशमें सब कहीं कल्याण होगा॥१॥
जो
सबके लिये सुगम हो वह साधु हैं। जो समन्वय करे – संगम करे - वह साधु हैं। जो समग्र
जगत के लिये खुद को समर्पण करे वह साधु हैं।
महामोहु महिषेसु बिसाला।
रामकथा कालिका कराला॥3॥
यह
जगत हि ईश्वर हैं,जगत प्रभु का विग्रह हैं।
ब्रह्म
सत्य, जगत स्फुर्ति …………. विनोबाजी
नौकारूढ़ चलत जग देखा।
अचल मोह बस आपुहि लेखा।।
बालक भ्रमहिं न भ्रमहिं गृहादी। कहहिं परस्पर मिथ्याबादी।।3।।
नौका
पर चढ़ा हुआ मनुष्य जगत् को चलता हुआ देखता है और मोह वश अपने को अचल समझता है।।3।।
मही पादाघाताद् व्रजति
सहसा संशयपदं।
पदं विष्णोर्भ्राम्यद्
भुज-परिघ-रुग्ण-ग्रह-गणम्।।
मुहुर्द्यौर्दौस्थ्यं यात्यनिभृत-जटा-ताडित-तटा।
जगद्रक्षायै त्वं नटसि
ननु वामैव विभुता।। १६।।
जब
संसार के कल्याण हेतु आप तांडव करने लगते हैं तब समग्र सृष्टि भय के मारे कांप उठती
है, आपके पदप्रहार से पृथ्वी अपना अंत समीप देखती है ग्रह नक्षत्र भयभीत हो उठते हैं।
आपकी जटा के स्पर्श मात्र से स्वर्गलोग व्याकुल हो उठता है और आपकी भुजाओं के बल से
वैंकुंठ में खलबली मच जाती है। हे महादेव! आश्चर्य ही है कि आपका बल अतिशय कष्टप्रद
है।
यह
महादेवनी कठोर कृपा हैं।
जब
वासना मुक्त साधु हम पर नजर डाले तब सब कलेश दूर हो हाते हैं।
जब
कल्पनातित घटना बनती हैं तब परम तत्व हमें देखने आता हैं।
साधु
की आंख औषधि हैं।
साधु
स्वयं अमृत हैं, स्वयं चंद्र छे।
जो
बहुत प्रकार की – कई प्रकार की बोली बोलता हो उसका संग नहीं करना चाहिये।
जो
सनातन धर्म के शास्त्र के विरुद्ध वर्णन करे तो ऐसे शास्त्र का पठन नहीं करना चाहिये।
साधु
गर्भसे, धर्मसे और कर्मसे साधु होता हैं। धर्म का साधु का मतलब स्वभावका साधु हैं।
ईश्वर,
जीवन, प्रेम, पृथ्वी, सौदर्य, प्रेम करनार प्रेमी और प्रेमीका – जिसको प्रेम करनेका
हैं - ऐसे सात शब्द को पसंद करना चाहिये।
प्रेम
में कुरुप भी सुरुप दिखाई देता हैं।
संत
कामदुर्गा गाय हैं। संत गाय समान गरीब होता हैं।
4
Tuesday, 25/12/2022
साधु
की कोई जाति, वर्ग, आश्रम, नहीं होता हैं। साधु की गहराई बहुत होती हैं, साधु जो बाहर
दीखाई देता हैं वह तो बहुत छोटा हैं। बुद्ध पुरुष आश्रय हि साधु का आश्रम हैं, द्रढाश्रय
– भरोंसा- हि साधु का आश्रम हैं। साधु जहां
होगा वहां ज्योति फेलायेगा जैसे सूर्य प्रकाश फेलाता रहता हैं।
जनक
और गुह विदेह हैं। यह दोंनो ने राम के चरण प्रक्षालन किया हैं।
साधना
और किसी बुद्ध पुरुष का संग – बुद्ध पुरुष का आश्लेष हमें विदेह बना शकते हैं।
सत्य
हि स्वर्ग हैं, पृथ्वी प्रेम हैं – पृथ्वी पर हि प्रेम होता हैं, पाताल की बहुत गहराई
हैं, करूना की गहराई बहुत हैं।
करुना
मरण धर्मा नहीं हैं, करुणा अमरणा हैं।
माता
का गर्भ एक दैहिक गर्भ हैं लेकिन गुरु का गर्भ सच्चा गर्भ हैं।
पृथ्वी
योनीगर्भा हैं।
हमें
गुरु का गोत्र लगता हैं।
दशरथ
गुरु गृह जाते हैं, राम भी पढाई के लिये गुरु गृह जाते हैं।
साधु
की सबसे बडी मुडी उसका शील हैं। शीलवान सामने वाले का शील बचाता हैं।
जो
सुक्ष्म हैं वह बहुत ताकातवर हैं, गोड पार्टिकल सुक्ष्म हैं लेकिन बहुत ताकतवर हैं।
जिसका
सारथी अच्छा हो वह जित जाता हैं। अर्जुन उसके सारथी की वजह से जित जाता हैं। हमारा
सारथी हमारा गुरु हैं।
कर्ण
में सब गुण हैं लेकिन उसका शील कभी कभी लडखडाया हैं।
गुण
अलंकार हैं लेकिन शील वस्त्र हैं, सब अलंकार धारण करो और अगर वस्त्र न हो तो उसका
– अलंकार का -कोई मतलब नहीं हैं।
दुःख
सागर
दुःख
सागर हैं, उसका गुरु आश्रित साधक जब मंथन करने से तीन प्रकार का अमृत नीकलता हैं, दुःख
सागर अमृतसे हि भरा हुआ हैं। मंथन करना का अर्थ मनन करना हैं।
जब
दुःख पडता हैं तब नम्रता का पहला अमृत नीकलता हैं, दुःख हमें नम्र बनाता हैं, सुख अहंकार
पेदा करता हैं, सुख और दुःख सापेक्ष हैं ईसीलिये सुख और दुःख को मनमें लेना नहीं चाहिये।
नरसिंह महेता यही कहता हैं।
दुःख
सागर का मंथन - चिंतन मनन करने से परम तत्वका
– राम का सतत स्मरण रहता हैं, कुंता बहुत दुःख मांगती हैं। स्मरण का अभाव हि दुःख हैं,
लौकिक वस्तु का अभाव दुःख नहीं हैं।
दुःख
सागर का तीसरा अमृत एकता हैं, सुख में भाई भाई भी अलग हो जाते हैं, सुख का स्वभाव अलग
करना – अदालत में जाना हैं लेकिन दुःख में सब एक हो जाता हैं।
दुःख
हमे गुरु गृह – आश्रय स्थान की तरफ ले जाता हैं, दशरथ राजा पुत्र न होनेके दुःख से
हि गुरु गृह जाते हैं।
કિસી
કી યાદ – સ્મૃતિ આપણને આપણા દિલ માં દુઃખ પેદા કરે છે.
गुरु
शरण का चोथा अमृत दुःख सागर से नीकलता है।
कृपासागर
का – किसी की कृपा का - कभी भी मंथन नहीं करना चाहिये। जो प्राप्त हि पर्याप्त हैं।
सुखसागर
सुखसागर का मंथन करने से पहले हमें सोचना चाहिये
कि सुख का केन्द्र क्या हैं?
अगर
धन सुख का केन्द्र हैं तो धनवान कोई दिन सुखी नहीं होता हैं। धनवान सिर्फ संग्रह हि
करता हैं। वित जब वस्तु में रुपांतरित होता हैं तभी हि सुख प्राप्त होता हैं।
संग्रह
किये हुए धन का दूसरों के लिये उपयोग करते हैं।
कई लोग मोक्ष को धन मानते हैं, धार्मिक होना ऐसा व्यवहार
करना हैं।
रावण
बहुत धनी था, धार्मिक भी हैं, पूजापाठ भी करवाता था, मुक्ति भी मिलनेवाली थी लेकिन
उसके सुख का एक मात्र केन्द्र काम हि था।
जप जोग बिरागा तप मख भागा
श्रवन सुनइ दससीसा।
आपुनु उठि धावइ रहै न पावइ
धरि सब घालइ खीसा॥
अस भ्रष्ट अचारा भा संसारा
धर्म सुनिअ नहिं काना।
तेहि बहुबिधि त्रासइ देस
निकासइ जो कह बेद पुराना॥
जप,
योग, वैराग्य, तप तथा यज्ञ में (देवताओं के) भाग पाने की बात रावण कहीं कानों से सुन
पाता, तो (उसी समय) स्वयं उठ दौड़ता। कुछ भी रहने नहीं पाता, वह सबको पकड़कर विध्वंस
कर डालता था। संसार में ऐसा भ्रष्ट आचरण फैल गया कि धर्म तो कानों में सुनने में नहीं
आता था, जो कोई वेद और पुराण कहता, उसको बहुत तरह से त्रास देता और देश से निकाल देता
था।
રાવણના
સુખનું કેન્દ્ર કામ છે.
રાવણના
પુત્રનું નામ કામ છે. ઈન્દ્રજીત કામ છે.
बारिदनाद जेठ सुत तासू।
भट महुँ प्रथम लीक जग जासू॥
जेहि न होइ रन सनमुख कोई।
सुरपुर नितहिं परावन होई॥4॥
मेघनाद रावण का बड़ा लड़का था, जिसका जगत के योद्धाओं
में पहला नंबर था। रण में कोई भी उसका सामना नहीं कर सकता था। स्वर्ग में तो (उसके
भय से) नित्य भगदड़ मची रहती थी॥4॥
काम
जागृत पुरुष को भी बेहोश कर देता हैं, ईन्द्र्जीत जो काम हैं वह लक्ष्मण जैसे जागृत
को भी बेहोश कर देता हैं।
हमारे
सुख का केन्द्र क्या हैं उसका मंथन करना चाहिये।
जिसके
सुख का केन्द्र भजन होना चाहिये।
भक्ति
भजन के मंथन का अमृत हैं।
ईस भजनु सारथी सुजाना।
बिरति चर्म संतोष कृपाना॥
दान परसु बुधि सक्ति प्रचंडा।
बर बिग्यान कठिन कोदंडा॥4॥
ईश्वर का भजन ही (उस रथ को चलाने वाला) चतुर सारथी
है। वैराग्य ढाल है और संतोष तलवार है। दान फरसा है, बुद्धि प्रचण्ड शक्ति है, श्रेष्ठ
विज्ञान कठिन धनुष है॥4॥
भजन
की व्याख्या करने में “भ” का अर्थ जिस के केन्द्रमां सिर्फ भगवान हैं, जिस के केन्द्रमें
भगवता से लबालब भरा हुआ कोई महापुरुष हो, ज का अर्थ जन्मोजन्म की भगवता जिसमें हो,
न का अर्थ नम्रता हैं।
भगवान
वह हैं जिस में जो दर्शनीय लगे, जिसकी बोली, दरेक मुद्रा दर्शनीय हो।
तु
का अर्थ राम, ल का अर्थ लक्ष्मण, सी अर्थ सीता हैं।
भजन
भक्ति बिना सब व्यंजन फिका हैं।
राम
भजन, भगवत कथा श्रवण किर्तन, कथा का कहना हमारे सुख का केन्द्र होना चाहिये।
हरि
भजन हमारे सुख का केन्द्र बनना चाहिये। यह सुखसागर का मंथन हैं।
5
Thursday, 26/01/2022
हमारे
तिरंगे में केसरी रंग सत्य का प्रतीक हैं, सफेद रंग प्रेम हैं – प्रेम धवल – निष्कलंक
- होना चाहिये, हरा रंग करुना - धरती हरीभरी होती हैं - का प्रतीक हैं। ध्रती पुत्री जानकी करुना हैं। बिच
का चक्र देशका विश्वमें सुदर्शन – सुंदर दर्शन – सु दर्शन हैं।
खासी
सिर्फ वस्त्र नहीं हैं लेकिन विचार हैं।
कृपा
का मंथन नहीं करना चाहिये
करुनासागर
कृपाकी
माग की जाती हैं, जब कि करुना बिना मागे मिलती हैं, करुना बहाई जाती हैं, करुना बहती
हैं, कृपा स्थिर – थोस - रहती हैं।
किसी
बुद्ध पुरुष को देखना सबसे बडी मुलाकात हैं।
करुना
बिनुं पद चलती हैं, बिना कान सुन लेती हैं, बिना देखे कार्य हो जाता हैं।
भगवान
राम, भगवान शंकर करुणावतार हैं।
बिनु पद चलइ सुनइ बिनु
काना। कर बिनु करम करइ बिधि नाना॥
आनन रहित सकल रस भोगी।
बिनु बानी बकता बड़ जोगी॥3॥
वह
(ब्रह्म) बिना ही पैर के चलता है, बिना ही कान के सुनता है, बिना ही हाथ के नाना प्रकार
के काम करता है, बिना मुँह (जिव्हा) के ही सारे (छहों) रसों का आनंद लेता है और बिना
ही वाणी के बहुत योग्य वक्ता है॥3॥
तन बिनु परस नयन बिनु देखा।
ग्रहइ घ्रान बिनु बास असेषा॥
असि सब भाँति अलौकिक करनी।
महिमा जासु जाइ नहिं बरनी॥4॥
वह
बिना ही शरीर (त्वचा) के स्पर्श करता है, बिना ही आँखों के देखता है और बिना ही नाक
के सब गंधों को ग्रहण करता है (सूँघता है)। उस ब्रह्म की करनी सभी प्रकार से ऐसी अलौकिक
है कि जिसकी महिमा कही नहीं जा सकती॥4॥
करुना
को हमारी खुशबु आती हैं कि मेरा साधक कहां तक पहुंचा हैं।
करुना
अलौलिक करनी करती हैं।
कुहाडा
बहार फेंकता हैं जब कि वांसलो अपनी तरफ फेंकता हैं।
कथा
मंडप में आना कृपा हैं और रस पूर्वक कथा श्रवण करना करुना का परिणाम हैं।
जो
बेजोश हि जाता हि उसको पता नहीं है कि वह बेहोश हो गया हैं, जो सो जाता हैं उसे भी
पता हि नहीं हैं को वह सोया हुआ हैं।
करुना
का प्रवाह जहां खड्डा होता वहां पहले जाता हैं और जब तक खड्डा पुरा भर न जाय तब तक
आगे बढता नहीं हैं।
परमहंस
की करुना हमें सुधार देती हैं।
सीता
करुना हैं राम कारुण्यरुप हैं।
चरनपीठ करुनानिधान
के। जनु जुग जामिक प्रजा प्रान के॥
संपुट भरत सनेह रतन के। आखर जुग जनु जीव जतन के॥3॥
करुणानिधान श्री रामचंद्रजी के दोनों ख़ड़ाऊँ
प्रजा के प्राणों
की रक्षा के लिए मानो दो पहरेदार
हैं। भरतजी के प्रेमरूपी रत्न के लिए मानो डिब्बा
है और जीव के साधन के लिए मानो राम-नाम
के दो अक्षर हैं॥3॥
पादुका और रामनाम रात दिन हमारी चोकी करते हैं।
भरत
को संभालने के लिये पादुका २४ घंटे चोकीदारी करती हैं, जागती हैं।
कृपा
और करुना में थोडा फर्क हैं।
प्रकृति
के सभी तत्व बोलते हैं लेकिन हम समज नहीं शकते हैं।
श्रीमद्भागवत
के सप्तम स्कन्ध में सनातन धर्म के तीस लक्षण बतलाये हैं और वे बड़े ही महत्त्व के
हैं :
सत्यं दया तप: शौचं तितिक्षेक्षा
शमो दम:।
अहिंसा ब्रह्मचर्यं च त्याग:
स्वाध्याय आर्जवम्।।
संतोष: समदृक् सेवा ग्राम्येहोपरम:
शनै:।
नृणां विपर्ययेहेक्षा मौनमात्मविमर्शनम्।।
अन्नाद्यादे संविभागो भूतेभ्यश्च
यथार्हत:।
तेषात्मदेवताबुद्धि: सुतरां
नृषु पाण्डव।।
श्रवणं कीर्तनं चास्य स्मरणं
महतां गते:।
सेवेज्यावनतिर्दास्यं सख्यमात्मसमर्पणम्।।
नृणामयं परो धर्म: सर्वेषां
समुदाहृत:।
त्रिशल्लक्षणवान् राजन्
सर्वात्मा येन तुष्यति।। (७-११-८ से १२ )
सनातन
धर्म श्रेष्ठ हैं क्यों कि ईस धर्ममें ३० लक्षण हैं, सत्य, दया, तप, मन की शांति, ईन्द्रीय
दमन, अहिंसा, ब्रह्मचर्य, त्याग, स्वाध्याय,
सरल स्वभाव, पुरुषार्थ करने के बाद जो फल मिले उसमें संतोष मानना, जिसमें सम
द्रष्टि हि उसकी सेवा करना, मौन, जिसको जरुत हो उसे अन्न देना, श्रवण, किर्तन, स्मरण,
वगेरे।
भजन
– प्रेम सर्व श्रेष्ठ हैं। भजन की, प्रेम की मूति नहीं बन शकती हैं।
करुना
का अमृत कल्याण करना हैं, कमाल करना हैं।
सुख
सागर जो मिले उसे बांटकर भोगना सुखसागर का अमृत हैं।
બસ એટલી સમજ મને પરવરદિગાર
દે
સુખ જ્યારે જ્યાં મળે ત્યાં
બધાના વિચાર દે
આવીને આંગળીમાં
ટકોરા રહી ગયા
સંકોચ આટલો
ન કોઈ બંધ દ્વાર દે
સૌ પથ્થરોના બોજ તો ઊંચકી લીધા અમે
અમને નમાવવા
હો તો ફૂલોનો
ભાર દે
પીઠામાં મારું
માન સતત હાજરીથી
છે
મસ્જિદમાં રોજ જાઉં તો કોણ આવકાર
દે!
દુનિયામા કંઇકનો
હું કરજદાર છું ‘મરીઝ’
ચૂકવું બધાનું
દેણુ જો અલ્લાહ
ઉધાર દે
માની લીધું
કે પ્રેમની કોઈ દવા નથી
જીવનના દર્દની
તો કોઈ સારવાર
દે
ચાહ્યું બીજું બધું તે ખુદાએ મને દીધું
એ શું કે તારા માટે ફક્ત ઈન્તિઝાર દે
નવરાશ છે હવે જરા સરખામણી કરું
કેવો હતો અસલ હું મને એ ચિતાર દે
તે બાદ માંગ મારી
બધીયે સ્વતંત્રતા
પહેલાં જરાક તારી ઉપર ઈખ્તિયાર દે
આ નાનાં નાનાં
દર્દ તો થાતાં નથી
સહન
દે એક મહાન દર્દ અને પારાવાર
દે
………………………………….. મરીઝ
सुखसागर
एक अमृत सहन करना हैं – सुख को पचाना हैं। सुख के बाद दुःख आयेगा हि एसा मानना चाहिये।
Friday, 27/01/2022
कृपापात्र
और करुनापात्र में क्या फर्क हैं?
कृपा
आंख हैं तो आंसु करुना हैं।
क्रुना
निराकार हैं, आंख का आकार एक हि रहता हैं – कृपा भी एक हि आअकार की हैं, किसी के आंसु
को पहचानना सत्य हैं। आंसु कई बार आते हैं, आंसु के कई प्रकार हैं, नकली आंसु भी होते
हैं। आंसु की पहचान ज्ञानवान कर शकता हैं। सिर्फ बुद्ध पुरुष हि आंसु को पहचान शकता
हैं, आंसु को पोंछना प्रेम हैं।
कथामें
दिल की बात होती हैं।
किसीकी
आंख में आंसु न आये एअसी दुआ करना करुना हैं।
कृपापात्र
बनने के लिये कुछ करना भी पडे, करुना पानेके लिये कुछ करना नहीं पडता हैं, किसी की
कृपासे हमें करुना प्राप्त होती हैं।
कभी
कभी करुना कठोर भी होती हैं, नवसर्जन के लिये प्रलय करना पदती हैं।
नवसर्जन
के लिये विसर्जन – विशेष सर्जन - करना पडता हैं। शिवजी नवसर्जन के लिये विसर्जन – प्रलय
करते हैं।
परम
तत्व अपने भक्त की प्रतिज्ञा पूर्ण करने के लिये अपनी प्रतिज्ञा तोड देता हैं। कृष्ण
भीष्म की प्रतिज्ञा पूर्ण करने के लिये शस्त्र धारण करते हैं।
व्यक्तिको
मारना आसान हैं लेकिन उसकी वृत्तिको मारना कठिन हैं।
रामको
रावण को मारना नहीं था लेकिन रावण्त को मारना था ईसीलिये ईतना बडा युद्ध करना पडा।
दहीं
में से मख्खन नीकालनेके मथानी घुमनी चाहिये।
विचार
गतिशील होना चाहिये। सिर्फ विचार करनेसे कुछ नही होता हैं।
बुद्ध
पुरुष और आश्रित को क्रियाशील बनना चाहिये, गतिशील बनना चाहिये। जब अपने आराध्य उपर
मुसीबत आये तब उसको आश्रित को गतिशील बनना चाहिये।
गुणसागर
गुणसागर
के अमृत
गीताना
१६ वा अध्याय में २६ अमृत का वर्णन हैं।
सौरज धीरज तेहि रथ चाका।
सत्य सील दृढ़ ध्वजा पताका॥
बल बिबेक दम परहित घोरे।
छमा कृपा समता रजु जोरे॥3॥
शौर्य
और धैर्य उस रथ के पहिए हैं। सत्य और शील (सदाचार) उसकी मजबूत ध्वजा और पताका हैं।
बल, विवेक, दम (इंद्रियों का वश में होना) और परोपकार- ये चार उसके घोड़े हैं, जो क्षमा,
दया और समता रूपी डोरी से रथ में जोड़े हुए हैं॥3॥
ईस भजनु सारथी सुजाना।
बिरति चर्म संतोष कृपाना॥
दान परसु बुधि सक्ति प्रचंडा।
बर बिग्यान कठिन कोदंडा॥4॥
ईश्वर का भजन ही (उस रथ को चलाने वाला) चतुर सारथी
है। वैराग्य ढाल है और संतोष तलवार है। दान फरसा है, बुद्धि प्रचण्ड शक्ति है, श्रेष्ठ
विज्ञान कठिन धनुष है॥4॥
अमल अचल मन त्रोन समाना।
सम जम नियम सिलीमुख नाना॥
कवच अभेद बिप्र गुर पूजा।
एहि सम बिजय उपाय न दूजा॥5॥
निर्मल
(पापरहित) और अचल (स्थिर) मन तरकस के समान है। शम (मन का वश में होना), (अहिंसादि)
यम और (शौचादि) नियम- ये बहुत से बाण हैं। ब्राह्मणों और गुरु का पूजन अभेद्य कवच है।
इसके समान विजय का दूसरा उपाय नहीं है॥5॥
सखा धर्ममय अस रथ जाकें।
जीतन कहँ न कतहुँ रिपु ताकें॥6॥
हे सखे! ऐसा धर्ममय रथ जिसके हो उसके लिए जीतने को
कहीं शत्रु ही नहीं है॥6॥
महा अजय संसार रिपु जीति
सकइ सो बीर।
जाकें अस रथ होइ दृढ़ सुनहु
सखा मतिधीर॥80 क॥
हे धीरबुद्धि वाले सखा! सुनो, जिसके पास ऐसा दृढ़
रथ हो, वह वीर संसार (जन्म-मृत्यु) रूपी महान् दुर्जय शत्रु को भी जीत सकता है (रावण
की तो बात ही क्या है)॥80 (क)॥
कथा
फल नहीं हैं लेकिन कथा रस हैं।
वक्ता
कई फलो का रस नीकालकर श्रोता को पिलाता हैं। कथा वक्ता के लिये फल हैं लेकिन श्रोता
के लिये रस हैं।
कथा
अमृत हैं।
सदगुरु
के पास प्रश्न लेकर मत जाओ लेकिन प्यास लेकर जाना चाहिये।
7
Friday, 28/01/2022
प्रेमी,
प्रेमिका और प्रेम
प्रेम
साध्य हैं, प्रेमि और प्रेमिका मिट जाय उस के बाद जो रहता हैं वह प्रेम हैं।
प्रेमी
या प्रेमिका एक दुसरे का चित्र बना शकता हैं, लेकिन प्रेम का चित्र बन नहीं शते हैं।
प्रेम के लिये प्रेम पात्र होना चाहिये।
गुरु
और आश्रित का होना आवश्यक हैं, दोंनो के बिच में एक लगाव हैं लेकिन लगाव लगाम नहीं
बनना चाहिये।
सुक्ष्मता
आने से हि विराट समज में आता हैं।
लताभवन तें प्रगट भे तेहि
अवसर दोउ भाइ।
तकिसे जनु जुग बिमल बिधु
जलद पटल बिलगाई॥232॥
उसी
समय दोनों भाई लता मंडप (कुंज) में से प्रकट हुए। मानो दो निर्मल चन्द्रमा बादलों के
परदे को हटाकर निकले हों॥232॥
शादी
होने के बाद स्वातंत्र्य छीना जाता हैं, पराधीनता आती हैं, एक दुसरे के प्रति का स्नेह
और सन्मान छीन लिया जाता हैं।
हमारी
आबरु, ईज्जत और सब कुछ जब छीन जाता हैं तब हि परम प्रेम प्रगट होता हैं।
महारस
हि महारास हैं। महारस परम रस हैं। नरसिंह भोगी होने के बाद भी महारस को जानता हैं।
कबीर
कहते हैं कि ………..
सो गुरु सत्य कहावै
काया कष्ट भूल नहीं देवें
नहीं संसार छुडावैं
यह मन जाये जहाँ जहाँ तहाँ तहाँ
परमात्मा दरसावें।
जो
खुद को खा शकता हैं वही प्रेम कर शकता हैं।
दा. त. लल्लादेवी (काश्मिर)
परम
का आश्रय हि आश्रम हैं।
गुरु
साधक जीवन में अंधेरा आये उससे पहले दिया जलाता हैं। एक पवित्र मुस्कहारट भी दिया जला
शकता हैं। खुदा सो शकता हैं लेकिन बिद्ध पुरुष दिया जलाने के लिये जागता रहता हैं।
मन,
बुद्धि, चित्त और अहंकार जब मिट जाता हैं तब हि भक्त और भगवान एक दुसरेको भेटते हैं।
साधु
स्वर से, सुर से, आंसु से, मुस्कहराट से दीपक जलाता हैं।
प्रेम
समस्त कर्मो को शुन्य कर देता हैं।
महारास
हि सही वैराग्य हैं।
रामहि केवल प्रेमु पिआरा।
जानि लेउ जो जान निहारा॥
करुना
सागर
करुना
सागर मंथन से जो अमृत नीकलता हैं वह एकाग्रता
आती है, अनन्यता – दूसरा न कोई – आती हैं, हम अमुल्य हो जाते हैं, आरोग्य अच्छा होने
लगता हैं, आयुष्य बढ जाती हैं – जीबन जीनेका आनंद आयेगा, शांति मिलेगी, वगेरे।
8
Saturday, 29/01/2022
हमारा
देश विश्व की फार्मसी बन गई हैं।
हमारा
यह सागर मंथन संवाद का हैं, संवाद अमृत हैं, विवाद झहर हैं।
हलाहल,
गरल और कालकूत झहर के प्रकार हैं।
सुद्ध सच्चिदानंदमय
कंद भानुकुल केतु।
चरितकरत नर अनुहरत
संसृति सागर सेतु॥87॥
शुद्ध (प्रकृतिजन्य
त्रिगुणों से रहित, मायातीत दिव्य मंगलविग्रह) सच्चिदानंद-कन्द स्वरूप
सूर्य कुल के ध्वजा रूप भगवान श्री रामचन्द्रजी मनुष्यों
के सदृश ऐसे चरित्र करते हैं, जो संसार रूपी समुद्र के पार उतरने के लिए पुल के समान हैं॥87॥
राम
एक सेतु हैं, सबको मिलानेवाले हैं।
दुर्वाद
गरल हैं, दूसरों का अपवाद हलाहल झहर हैं, दूसरों के साथ अकारण विवाद कालकूट हैं।
राम
कथा अमृत हैं।
महाभारत
में विवाद हैं। रामायण संवाद हैं।
श्रवण
पहली भक्ति हैं।
सर्व
भूत हिताय, सर्व भूत सुखाय, सर्व भूत प्रेमाय।
पत्थर सुलग रहे थे कोई
नक़्शे-पा न था
हम जिस तरफ चले थे, उधर
रास्ता न था
परछाईयो के शहर में तन्हाईयां
न पूछ
अपना शरीके-गम कोई अपने
सिवा न था
यु देखती है गुमशुदा लम्हों
के मोड से
इस जिंदगी से जैसे कोई
वास्ता न था
चेहरों पे जम गई थी खयालो
की उलझने
लफ्जो की जुस्तजू में कोई
बोलता न था
पत्तों के टूटने की सदा
घुट के रह गयी
जंगल में दूर-दूर हवा का
पता न था
'राशिद' किसे सुनाते गली
में तिरी ग़ज़ल
उसके मकां का कोई दरीचा
खुला न था
- मुमताज़ राशिद
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सत्य,
प्रेम और करुना का कोई संविधान – बंधारण नहीं हैं।
जो
बात कहो वह सत्य होनी चाहिये, वह बात कहने में जिसकी बात हो उसका भला होना चाहिये और
यह बात कहनेमें कहनेवालेका और सुननेवालेका भला होना चाहिये।
सागर
को कोई कामना नहीं हैं ईसीलिये मर्यादामें रहता हैं। कामी व्यक्ति मर्यादामें रह हि
नहीं शकता हैं।
विरह
सागर
राम बिरह सागर महँ भरत
मगन मन होत।
बिप्र रूप धरि पवनसुत आइ
गयउ जनु पोत।।1क।।
श्रीरामजी
के विरह-समुद्र में भरत जी का मन डूब रहा था, उसी समय पवन पुत्र हनुमान् जी ब्राह्मण
का रूप धरकर इस प्रकार आ गये, मानो [उन्हें डूबने से बचाने के लिये] नाव आ गयी हो।।1(क)।।
प्रेम
प्रेम हि हैं उसका कोई नाम नहीं होता हैं।
रामावतार
के ४ कार्य - ताडका का उद्धार, अहल्या का उद्धार, धनुष्य भंग और परशुराम के लिये धनुष्य
चढाना हैं।
ताडका
मन का दुर्वासना हैं, अहल्या बुद्धि का सही करना हैं, शंकर का धनुष्य अहंकार का प्रतीक
हैं और परशुराम का प्रसंग चित हैं; ताडका – दुर्वासना, अहल्या - बुद्धि, परशुराम – चित और शिव धनुष्य अहंकार हैं।
सीता
शांति हैं, भक्ति हैं, वह जिस भवनमें रहती हैं वह भवन सुंदर होता हैं।
पद पाताल सीस अज धामा।
अपर लोक अँग अँग बिश्रामा॥
भृकुटि बिलास भयंकर काला।
नयन दिवाकर कच घन माला॥1॥
पाताल
(जिन विश्व रूप भगवान् का) चरण है, ब्रह्म लोक सिर है, अन्य (बीच के सब) लोकों का
विश्राम (स्थिति) जिनके अन्य भिन्न-भिन्न अंगों पर है। भयंकर काल जिनका भृकुटि संचालन
(भौंहों का चलना) है। सूर्य नेत्र हैं, बादलों का समूह बाल है॥1॥
हमसे
जो श्रेष्ठ हैं उससे डरना परम स्वातंत्र्य हैं।
9
Sunday, 30/01/2022
जब जब रामु अवध सुधि करहीं।
तब तब बारि बिलोचन भरहीं॥
सुमिरि मातु पितु परिजन भाई। भरत सनेहु सीलु सेवकाई॥2॥
जब-जब श्री रामचन्द्रजी अयोध्या
की याद करते हैं, तब-तब उनके नेत्रों
में जल भर आता है। माता-पिता, कुटुम्बियों
और भाइयों तथा भरत के प्रेम, शील और सेवाभाव
को याद करके-॥2॥
प्रेम
परमात्मा की तरफ सर्व व्यापक हैं।
सच्चे
प्रेम की खोजमें प्रकृति भी सहायभूत होती हैं।
मंदिर मंदिर प्रति करि
सोधा। देखे जहँ तहँ अगनित जोधा॥
गयउ दसानन मंदिर माहीं।
अति बिचित्र कहि जात सो नाहीं॥3॥
उन्होंने
एक-एक (प्रत्येक) महल की खोज की। जहाँ-तहाँ असंख्य योद्धा देखे। फिर वे रावण के महल
में गए। वह अत्यंत विचित्र था, जिसका वर्णन नहीं हो सकता॥3॥
निज भवन गवनेउ सिंधु श्रीरघुपतिहि
यह मत भायऊ।
यह चरित कलि मल हर जथामति
दास तुलसी गायऊ॥
सुख भवन संसय समन दवन बिषाद
रघुपति गुन गना।
तजि सकल आस भरोस गावहि
सुनहि संतत सठ मना॥
समुद्र
अपने घर चला गया, श्री रघुनाथजी को यह मत (उसकी सलाह) अच्छा लगा। यह चरित्र कलियुग
के पापों को हरने वाला है, इसे तुलसीदास ने अपनी बुद्धि के अनुसार गाया है। श्री रघुनाथजी
के गुण समूह सुख के धाम, संदेह का नाश करने वाले और विषाद का दमन करने वाले हैं। अरे
मूर्ख मन! तू संसार का सब आशा-भरोसा त्यागकर निरंतर इन्हें गा और सुन।
विरह
सागर
विरह
का पहला रत्न द्रढ बिंदु हैं अश्रु– गरीब के रत्न हैं, एकाग्रता, जडता (अत्यंत विरहमें
कुछ जडता आ जाती हैं) प्रियतम तरफ संदेह, वगेरे।
राम बिरह सागर महँ भरत
मगन मन होत।
बिप्र रूप धरि पवनसुत आइ
गयउ जनु पोत।।1क।।
श्रीरामजी
के विरह-समुद्र में भरत जी का मन डूब रहा था, उसी समय पवन पुत्र हनुमान् जी ब्राह्मण
का रूप धरकर इस प्रकार आ गये, मानो [उन्हें डूबने से बचाने के लिये] नाव आ गयी हो।।1(क)।।
राम
चरित मानस स्वयं सागर हैं जिस में से अपसरा के रुप में गनिका का रत्न, कल्प वृक्ष,
अश्व जैसे कान खोलखर सुननेवाले, रम कथा शंख
ध्वनि, रामचंद्र जैसा राम, साधु रुपी सुधा – साधु अमृत हैं – राम अमीत गुन का सागर
हैं, वगेरे।
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