રામ કથા - 872
માનસ વસંત
ઈટાનગર, અરુણાચલ પ્રદેશ
શનિવાર, તારીખ ૦૫/૦૨/૨૦૨૨ થી
રવિવાર, તારીખ ૧૨/૦૨/૨૦૨૨
મુખ્ય ચોપાઈ
संतसभा चहुँ दिसि अवँराई।
श्रद्धा रितु बसंत सम गाई॥
देखहु तात बसंत सुहावा।
प्रिया हीन मोहि भय उपजावा॥
શનિવાર, ૦૫/૦૨/૨૦૨૨
सुकृती साधु नाम गुन गाना।
ते बिचित्र जलबिहग समाना॥
संतसभा चहुँ दिसि अवँराई। श्रद्धा रितु बसंत सम गाई॥6॥
બાલકાંડ
सुकृती
(पुण्यात्मा) जनों के, साधुओं के और श्री रामनाम के गुणों का गान ही विचित्र जल पक्षियों
के समान है। संतों की सभा ही इस सरोवर के चारों ओर की अमराई (आम की बगीचियाँ) हैं और
श्रद्धा वसन्त ऋतु के समान कही गई है॥6॥
राखिअ नारि जदपि उर माहीं।
जुबती सास्त्र नृपति बस नाहीं॥
देखहु तात बसंत सुहावा। प्रिया हीन मोहि भय उपजावा॥5॥
અરણ્યકાંડ
और स्त्री को चाहे हृदय में ही क्यों न रखा जाए,
परन्तु युवती स्त्री, शास्त्र और राजा किसी के वश में नहीं रहते। हे तात! इस सुंदर
वसंत को तो देखो। प्रिया के बिना मुझको यह भय उत्पन्न कर रहा है॥5॥
सरस्वती
पूजन सभी वक्ताओके लिये बहुत महत्त्व रखता हैं।
સાધુ
નો વિસ્તાર બહું હોય પણ વણગણ કોઈ ન હોય.
बुद्ध
भगवान पूर्व जन्म और पुनः जन्म में मानते हैं।
जब
तिव्रता चरसीमा पर आती हैं तब सब बाधाए दूर हो जाती हैं।
अपने
बुद्ध पुरुष से कुछ छुपाना नहीं चाहिये,वह सब कुछ जानता हैं।
संतसभा
अमराई हैं और श्रद्धा वसंत हैं।
वसंत
कृष्ण की विभूति हैं।
अस मानस मानस चख चाही।
भइ कबि बुद्धि बिमल अवगाही॥
भयउ हृदयँ आनंद उछाहू।
उमगेउ प्रेम प्रमोद प्रबाहू॥5॥
ऐसे
मानस सरोवर को हृदय के नेत्रों से देखकर और उसमें गोता लगाकर कवि की बुद्धि निर्मल
हो गई, हृदय में आनंद और उत्साह भर गया और प्रेम तथा आनंद का प्रवाह उमड़ आया॥5॥
चली सुभग कबिता सरिता सो।
राम बिमल जस जल भरित सो।
सरजू नाम सुमंगल मूला।
लोक बेद मत मंजुल कूला॥6॥
उससे
वह सुंदर कविता रूपी नदी बह निकली, जिसमें श्री रामजी का निर्मल यश रूपी जल भरा है।
इस (कवितारूपिणी नदी) का नाम सरयू है, जो संपूर्ण सुंदर मंगलों की जड़ है। लोकमत और
वेदमत इसके दो सुंदर किनारे हैं॥6॥
धूमउ तजइ सहज करुआई। अगरु
प्रसंग सुगंध बसाई॥
भनिति भदेस बस्तु भलि बरनी।
राम कथा जग मंगल करनी॥5॥
धुआँ
भी अगर के संग से सुगंधित होकर अपने स्वाभाविक कड़ुवेपन को छोड़ देता है। मेरी कविता
अवश्य भद्दी है, परन्तु इसमें जगत का कल्याण करने वाली रामकथा रूपी उत्तम वस्तु का
वर्णन किया गया है। (इससे यह भी अच्छी ही समझी जाएगी।)॥5॥
मंगल करनि कलिमल हरनि तुलसी
कथा रघुनाथ की।
गति कूर कबिता सरित की
ज्यों सरित पावन पाथ की॥
प्रभु सुजस संगति भनिति
भलि होइहि सुजन मन भावनी
भव अंग भूति मसान की सुमिरत
सुहावनि पावनी॥
तुलसीदासजी
कहते हैं कि श्री रघुनाथजी की कथा कल्याण करने वाली और कलियुग के पापों को हरने वाली
है। मेरी इस भद्दी कविता रूपी नदी की चाल पवित्र जल वाली नदी (गंगाजी) की चाल की भाँति
टेढ़ी है। प्रभु श्री रघुनाथजी के सुंदर यश के संग से यह कविता सुंदर तथा सज्जनों के
मन को भाने वाली हो जाएगी। श्मशान की अपवित्र राख भी श्री महादेवजी के अंग के संग से
सुहावनी लगती है और स्मरण करते ही पवित्र करने वाली होती है।
कथा
के दो किनारे व्याथा और वृथा को दूर करती हैं।
कविता
सविता – सूर्य और सरीता को जोडती हैं।
कीरति सरित छहूँ रितु रूरी।
समय सुहावनि पावनि भूरी॥
हिम हिमसैलसुता सिव ब्याहू।
सिसिर सुखद प्रभु जनम उछाहू॥1॥
यह
कीर्तिरूपिणी नदी छहों ऋतुओं में सुंदर है। सभी समय यह परम सुहावनी और अत्यंत पवित्र
है। इसमें शिव-पार्वती का विवाह हेमंत ऋतु है। श्री रामचंद्रजी के जन्म का उत्सव सुखदायी
शिशिर ऋतु है॥1॥
बरनब राम बिबाह समाजू।
सो मुद मंगलमय रितुराजू॥
ग्रीषम दुसह राम बनगवनू।
पंथकथा खर आतप पवनू॥2॥
श्री
रामचंद्रजी के विवाह समाज का वर्णन ही आनंद-मंगलमय ऋतुराज वसंत है। श्री रामजी का वनगमन
दुःसह ग्रीष्म ऋतु है और मार्ग की कथा ही कड़ी धूप और लू है॥2॥
बरषा घोर निसाचर रारी।
सुरकुल सालि सुमंगलकारी॥
राम राज सुख बिनय बड़ाई।
बिसद सुखद सोइ सरद सुहाई॥3॥
राक्षसों
के साथ घोर युद्ध ही वर्षा ऋतु है, जो देवकुल रूपी धान के लिए सुंदर कल्याण करने वाली
है। रामचंद्रजी के राज्यकाल का जो सुख, विनम्रता और बड़ाई है, वही निर्मल सुख देने
वाली सुहावनी शरद् ऋतु है॥3॥
रामकथा मंदाकिनी चित्रकूट
चित चारु।
तुलसी सुभग सनेह बन सिय रघुबीर बिहारु॥31॥
तुलसीदासजी
कहते हैं कि रामकथा मंदाकिनी नदी है, सुंदर (निर्मल) चित्त चित्रकूट है और सुंदर स्नेह
ही वन है, जिसमें श्री सीतारामजी विहार करते हैं॥31॥
2
Sunday, 06/02/2022
लता
दीदी का सुर और स्वर कंठ में वैकुंठ समान हैं। उनका सुर और स्वर सदाय यौवन की याद दीलायेगा।
हम
सदगुरु के मार्ग पर, सदगुरु के बताये सूत्र पर चलते हैं और हमारा सदगुरु प्रसन्न होता
हैं वह कैसे अनुभव करे?
यह
बातमें बाह्य प्रमाण का कोई मुल्य नहीं हैं, हमारी आत्मा का प्रमाण हि सही प्रमाण हैं।
सदगुरु
की याद हमें रुला देती हैं।
बुद्ध
पुरुष के सूत्रो को सुनने के बाद अगर हम दूसरों की ईर्षा, नींदा करते हैं तो हम सिर्फ
सुनते हैं, सूत्र अपनाते नहीं हैं।
ज्ञान
मोक्ष प्रद हैं – मोक्ष देता हैं।
मैं
प्रेमी हुं वह भी खत्म हो जाना चाहिये।
हम
बुद्ध पुरुष को प्रेम करते हैं और वह बुद्ध पुरुष की बात सुनकर अगर हम ईश्वरवादी बन
जाते हैं तो हम प्रेमी नहीं हैं, लेकिन कामी हैं – स्वार्थी हैं। मैं प्रेम करता हुं
वह समाप्त हो जाना चाहिये।
गुरु
का सेवन करनेके बाद ईर्षा, नींदा समाप्त हो जानी चाहिये।
मन
को तराजु बनाकर हमें अपना स्वमुल्यांकन करना चाहिये।
साधु
सदा परम तत्व के चिंतनेमें और परम की बनाई दुनिया की चिंता करनेमें जागता रहता हैं।
सहजहिं चले सकल जग स्वामी।
मत्त मंजु बर कुंजर गामी॥
चलत राम सब पुर नर नारी।
पुलक पूरि तन भए सुखारी॥3॥
समस्त
जगत के स्वामी श्री रामजी सुंदर मतवाले श्रेष्ठ हाथी की सी चाल से स्वाभाविक ही चले।
श्री रामचन्द्रजी के चलते ही नगर भर के सब स्त्री-पुरुष सुखी हो गए और उनके शरीर रोमांच
से भर गए॥3॥
जो
सहज हैं वह दुनिया का मालिक हैं।
सनातन
धर्म और शास्वत धर्म के सिवाय के अन्य धर्म नष्ट हो जायेंगे।
साधु
की ८ अनुभूति हैं।
स्वमुल्यांकन
कैसे करे?
ईर्षा,
नींदा, द्वेष को स्वमुल्यांकन करके हमें तय करना चाहिये हम अपने बुद्ध पुरुष को सुनते
हैं उसका अनुकरण भी करते हैं।
सर्वदा सर्वभावेन भजनीयो
व्रजाधिपः।
स्वस्यायमेव धर्मो हिनान्यः
क्वापि कदाचन॥१॥
सभी
समय, सब प्रकार से व्रज के राजा श्रीकृष्ण का ही स्मरण करना चाहिए। केवल यह ही धर्म
है, इसके अतिरिक्त और कुछ भी नहीं॥१॥
માન
રે મુકી ને પાનબાઈ આવો રે મેદાનમાં …………
शीलवान
साधु को बारंबार वंदन करना चाहिये, ऐसे तो एक हि हि वंदनसे भी कार्य हो जाता हैं।
बुद्ध
पुरुष कभी भी नाराज नहीं होता हैं।
सादगी
और તાજગી साधु का लक्षण हैं। सादगी जब आती हैं तब भ्जन के लिये समय हि समय होता हैं।
સાદા
રહેવામાં મોકળાશ બહું મળે છે.
ધીરે
ધીરે ક્રિયાત્મક ભજન ઓછું થઈ જાય અને ભાવાત્મક ભજન – સ્થિતિ આવતી જાય. આને મહાપુરુષો
અપાજપ કહે છે.
પ્રાપ્ત
જ પર્યાપ્ત છે, જે મળેલું છે તે પુરતું છે.
આઠે
પહોર મસ્તીમાં રહેવું એ ભક્તિનું પ્રમાણ છે. પરમને યાદ કરીએ અને જો આંસુ આવી જાય તો
તે ભક્તિનું પ્રમાણ છે.
સૌંદર્ય
ઈન્દ્રીયોથી પરનો મામલો છે.
જેમ
સૂર્યની રોશનીમાં તારાઓ દેખાતા બંધ થઈ જાય છે તેમ જ્યારે ગુરુ એક દીપક જલાવે ત્યારે
બીજા બધા દીપક અદ્રશ્ય થઈ જાય છે.
તુલસીદાસની
વિનય પત્રિકા તેમની પ્રેમ પત્રિકા છે.
નિર્દોષ
આનંદ જ પરમાત્મા છે.
मामवलोकय पंकज लोचन। कृपा
बिलोकनि सोच बिमोचन।।
नील तामरस स्याम काम अरि।
हृदय कंज मकरंद मधुप हरि।।1।।
कृपापूर्वक
देख लेनेमात्र से शोक के छुड़ानेवाले हे कमलनयन ! मेरी ओर देखिये (मुझपर भी कृपादृष्टि
कीजिये) हे हरि ! आप नीलकमल के समान श्यामवर्ण और कामदेवके शत्रु महादेवजीके हृदयकमल
के मकरन्द (प्रेम-रस) के पान करनेवाले भ्रमर हैं।।1।।
श्रद्धा
वसंत हैं।
लक्ष्मण वसंत हैं।
आगें रामु लखनु बने पाछें। तापस बेष बिराजत
काछें॥
उभय बीच सिय सोहति कैसें। ब्रह्म
जीव बिच माया जैसें॥1॥
आगे श्री रामजी हैं, पीछे लक्ष्मणजी
सुशोभित हैं। तपस्वियों
के वेष बनाए दोनों बड़ी ही शोभा पा रहे हैं। दोनों के बीच में सीताजी
कैसी सुशोभित हो रही हैं, जैसे ब्रह्म
और जीव के बीच में माया!॥1॥
1
सुकृती साधु नाम गुन गाना।
ते बिचित्र जलबिहग समाना॥
संतसभा चहुँ दिसि अवँराई।
श्रद्धा रितु बसंत सम
गाई॥6॥
सुकृती
(पुण्यात्मा) जनों के, साधुओं के और श्री रामनाम के गुणों का गान ही विचित्र जल पक्षियों
के समान है। संतों की सभा ही इस सरोवर के चारों ओर की अमराई (आम की बगीचियाँ) हैं और
श्रद्धा वसन्त ऋतु के समान कही गई है॥6॥
2
तेहि आश्रमहिं मदन जब गयऊ।
निज मायाँ बसंत निरमयऊ॥
कुसुमित बिबिध बिटप बहुरंगा।
कूजहिं कोकिल गुंजहिं भृंगा॥1॥
जब
कामदेव उस आश्रम में गया, तब उसने अपनी माया से वहाँ वसन्त ऋतु को उत्पन्न किया। तरह-तरह
के वृक्षों पर रंग-बिरंगे फूल खिल गए, उन पर कोयलें कूकने लगीं और भौंरे गुंजार करने
लगे॥1॥
3
भूप बागु बर देखेउ जाई।
जहँ बसंत रितु रही लोभाई॥
लागे बिटप मनोहर नाना।
बरन बरन बर बेलि बिताना॥2॥
उन्होंने
जाकर राजा का सुंदर बाग देखा, जहाँ वसंत ऋतु लुभाकर रह गई है। मन को लुभाने वाले अनेक
वृक्ष लगे हैं। रंग-बिरंगी उत्तम लताओं के मंडप छाए हुए हैं॥2॥
4
रितु बसंत बह त्रिबिध
बयारी। सब कहँ सुलभ पदारथ चारी॥
स्रक चंदन बनितादिक भोगा। देखि हरष बिसमय बस लोगा॥4॥
वसन्त ऋतु है। शीतल, मंद, सुगंध तीन प्रकार
की हवा बह रही है। सभी को (धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष) चारों पदार्थ सुलभ हैं। माला, चंदन, स्त्री
आदि भोगों को देखकर सब लोग हर्ष और विषाद के वश हो रहे हैं। (हर्ष तो भोग सामग्रियों को और मुनि के तप प्रभाव को देखकर होता है और विषाद इस बात से होता है कि श्री राम के वियोग में नियम-व्रत से रहने वाले हम लोग भोग-विलास में क्यों आ फँसे, कहीं इनमें आसक्त होकर हमारा मन नियम-व्रतों
को न त्याग दे)॥4॥
5
राखिअ नारि जदपि उर माहीं।
जुबती सास्त्र नृपति बस नाहीं॥
देखहु तात बसंत सुहावा। प्रिया हीन मोहि
भय उपजावा॥5॥
और स्त्री को चाहे हृदय में ही क्यों न रखा जाए,
परन्तु युवती स्त्री, शास्त्र और राजा किसी के वश में नहीं रहते। हे तात! इस सुंदर
वसंत को तो देखो। प्रिया के बिना मुझको यह भय उत्पन्न कर रहा है॥5॥
6
अति बिचित्र बाहिनी बिराजी।
बीर बसंत सेन जनु साजी॥
चलत कटक दिगसिंधुर डगहीं।
छुभित पयोधि कुधर डगमगहीं॥3॥
अत्यंत विचित्र फौज शोभित है। मानो वीर वसंत ने सेना
सजाई हो। सेना के चलने से दिशाओं के हाथी डिगने लगे, समुद्र क्षुभित हो गए और पर्वत
डगमगाने लगे॥3॥
7
सुमन बाटिका सबहिं लगाईं।
बिबिध भांति करि जतन बनाईं।।
लता ललित बहु जाति सुहाईं।
फूलहिं सदा बसंत कि नाईं।।1।।
सभी
लोगों ने भिन्न-भिन्न प्रकार की पुष्पोंकी वाटिकाएँ यत्न करके लगा रक्खी हैं, जिनमें
बहुत जातियों की सुन्दर और ललित लताएँ सदा वसंतकी तरह फूलती रहती हैं।।1।।
8
बरनब राम बिबाह समाजू।
सो मुद मंगलमय रितुराजू॥
ग्रीषम दुसह राम बनगवनू।
पंथकथा खर आतप पवनू॥2॥
श्री
रामचंद्रजी के विवाह समाज का वर्णन ही आनंद-मंगलमय ऋतुराज वसंत है। श्री रामजी का वनगमन
दुःसह ग्रीष्म ऋतु है और मार्ग की कथा ही कड़ी धूप और लू है॥2॥
9
फिरत लाज कछु करि नहिं
जाई। मरनु ठानि मन रचेसि उपाई॥
प्रगटेसि तुरत रुचिर रितुराजा। कुसुमित नव तरु राजि
बिराजा॥3॥
लौट
जाने में लज्जा मालूम होती है और करते कुछ बनता नहीं। आखिर मन में मरने का निश्चय करके
उसने उपाय रचा। तुरंत ही सुंदर ऋतुराज वसन्त को प्रकट किया। फूले हुए नए-नए वृक्षों
की कतारें सुशोभित हो गईं॥3॥
10
बहुरि कहउँ छबि जसि मन बसई। जनु मधु मदन मध्य रति लसई॥
उपमा बहुरि कहउँ जियँ जोही। जनु बुध बिधु बिच रोहिनि
सोही॥2॥
फिर जैसी छबि मेरे मन में बस रही है, उसको कहता हूँ- मानो वसंत ऋतु और कामदेव के बीच में रति (कामेदव
की स्त्री) शोभित हो। फिर अपने हृदय में खोजकर उपमा कहता हूँ कि मानो बुध (चंद्रमा के पुत्र) और चन्द्रमा के बीच में रोहिणी (चन्द्रमा
की स्त्री) सोह रही हो॥2॥
11
लखन जानकी सहित प्रभु राजत रुचिर निकेत।
सोह मदनु मुनि बेष जनु रति रितुराज समेत॥133॥
लक्ष्मणजी और जानकीजी सहित प्रभु श्री रामचन्द्रजी सुंदर घास-पत्तों के घर में शोभायमान हैं। मानो कामदेव
मुनि का वेष धारण करके पत्नी रति और वसंत ऋतु के साथ सुशोभित
हो॥133॥
12
सुनु मुनि कह पुरान श्रुति
संता। मोह बिपिन कहुँ नारि बसंता॥
जप तप नेम जलाश्रय झारी।
होइ ग्रीषम सोषइ सब नारी॥1
हे मुनि! सुनो, पुराण, वेद और संत कहते हैं कि मोह
रूपी वन (को विकसित करने) के लिए स्त्री वसंत ऋतु के समान है। जप, तप, नियम रूपी संपूर्ण
जल के स्थानों को स्त्री ग्रीष्म रूप होकर सर्वथा सोख लेती है॥1॥
3
Monday, 07/02/2022
६
ॠतु के प्रत्येक के ६ लक्षण हैं, कुल ३६ लक्षण हैं, और हर लक्षण के प्रभाव भी हैं।
वाणी
का निरोध करनेके लिये आदि शंकर भगवानने कहा हैं।
जब
चेतना सम पर आ जाती हैं तब बातचीत होती हैं लेकिन उसकी भाषा अलग होत्ती हैं।
वसंत
ले ६ लक्षण – पुष्प का खिलना – पुष्प्ति – खलित - , फलित होना, आश्रित को स्थान देना,
तीन प्रकारकी वायु – मंद, शीतल और सुगंधीत - बहती हैं।
बिना
श्रद्धा ज्ञान नहीं मिलता हैं।
व्यासपीठ
हमारा केन्द्र होना चाहिये।
गुरु
अपराध करना नहीं चाहिये लेकिन गुरु के गुरु – शंकर का अपराध कभी भी नहीं करना चाहिये,
अगर गुरु का अपराध हो जाय तो चिंता करनेकी आवश्यकता नहीं हैं।
अगर
हमें प्यास लगे तो प्यास को सहन करना, खलन करना – कूआ खोदना, गंगा के तट पर रहना यह
उपाय हैं।
शरीर
का धर्म जन्म और मरण हैं।
सुनो
सबको लेकिन चूनो सिर्फ एकको।
राम
चरित मानस गुरु का भी गुरु हैं उसका अपमान नहीं करना चाहिये।
का
का अर्थ - गुरु तोतली भाषा – काली काली भाषा में हमे अमृत पिलाता हैं।
गुरु
की बोली - जिसकी बोली व्याकरण युक्त न हो लेकिन आचरण युक्त हो।
पूर्ण
सत्य अगर झुठ बोले या तो जिसके पीछे पूर्ण सत्य हैं झुठ बोले - तो भी वह झुठ भी सत्य
हो जाता हैं।
खा
– जो सदा खाली रहे – रीक्त रहे वह गुरु हैं।
गा
– जो दुनियाभरकी गाली सुने वह गुरु हैं।
घा
– गुरु घाली न राखे – संग्रह न करे।
चा
– जिसकी चाल नखशीश निर्दोष और शुद्ध हो वह गुर हैं।
जा
– जिसका एक भी शब्द जाली न हो – गलत न हो।
झा
– झाली राखे
टा
–
डा
– डाली को न पकडे लेकिन मूलको पकडे वह गुरु हैं।
ठा
–
श्रद्धा
वसंत हैं, हमारी श्रद्धा पुष्प जैसी कोमल होनॉ चाहिये, जैसे पुष्पमें रस हैं वैसे श्रद्धा
रसमय होनी चहिये, श्रद्धा फल देती हैं, श्रद्धा लेकर हम जायेंगे तो आश्रय मिलेगा हि।
वसंत में मंद, सुगंध और शीतल वायु बहती हैं वैसे हमारी श्रद्धा भी मंद, सुगंध और शीतल
स्वभाववाली होनी चाहिये।
4
Tuesday, 08/02/2022
विवेकचुडामणि
में साधु को वसंत कहा गया हैं।
शान्ता महान्तो निवसन्ति
सन्तोवसन्तवल्लोकहितं चरन्तः।
तीर्णाः स्वयं भीमभवार्णवं
जनान् अहेतुनान् यानपि तारयन्तः॥ ३७॥
સાધુના
વેશને નીંદવે એને ધીક છે રે ……….
सो कुल धन्य उमा सुनु जगत
पूज्य सुपुनीत।
श्रीरघुबीर परायन जेहिं
नर उपज बिनीत।।127।।
हे
उमा ! सुनो। वह कुल धन्य है, संसारभरके लिये पूज्य है और परम पवित्र है, जिसमें श्रीरघुवीरपरायण
(अनन्य रामभक्त) विनम्र पुरुष उत्पन्न हो।।127।।
गुरु
स्वयं आश्रित को मार देता हैं।
सूत उवाच
यं प्रव्रजन्तमनुपेतमपेतकृत्यं
द्वैपायनो विरहकातर आजुहाव
पुत्रेति तन्मयतया तरवोऽभिनेदुस्तं
सर्वभूतहृदयं मुनिमानतोऽस्मि 2
सूतजी
ने कहा ----- जिस समय श्रीशुकदेवजी का यज्ञोपवीत - संस्कार भी नहीं हुआ था, सुतरां
लौकिक - वैदिक कर्मो के अनुष्ठान का अवसर भी नहीं आया था, उन्हें अकेले ही संन्यास
लेने के उद्देश्य से जाते देखकर उनके पिता व्यासजी विरह से कातर होकर पुकारने लगे
- 'बेटा ! बेटा ! ' उस समय तन्मय होने के कारण श्रीशुकदेवजी की ओर से वृक्षों ने उत्तर
दिया। ऐसे सबके ह्रदय में विराजमान श्रीशुकदेव मुनि को मैं नमस्कार करता हूँ ।।2।।
खुदा
सो शकता हैं, लेकिन गुरु सो नहीं शकता क्यों कि गुरु को अनेक दीया जलाना हैं। गुरुजन
व्यवस्थाके लोग हैं, वह कुछ कार्यक्रम लेकर आते हैं।
भेख
लेनेकी तीव्र भूख लगती हैं।
कौन
साधु वसंत हैं?
जो
साधु सदाय शांत रहता हैं, जो शांत हैं वहीं शांति प्रदान कर शकता हैं, - શાંતિ પમાડે
તેને સંત કહીયે – जो साधुकी आत्मा महान हैं, जो वैराग्य सहित का त्यागी हैं, जो साधु
नजदिक होते हुए बहुत दूर रहे – जो सबसे एक स्न्मानयुक्त दूरी रखता हैं, जैसे वसंत ॠतु
आती जाती रहती वैसे साधु घुमता रहता हो, साधु अपने आश्रितको खोजनेके लिये घुमता हैं
और आश्रितको खोज कर उसे भी तार देता हैं और ऐसा करनेमें साधु का कोई हेतु नहीं होता
हैं, साधु परोपकार करने के लिये घुमता रहता हैं, ऐसा साधु चिंता शुन्य होता हैं – कोई
चिंता नहीं करता हैं, ऐसा साधु जो भीक्षापात्रमें मिलता हैं वहीं खा लेता हैं, साधु
दीन बनकर भीक्षा नहीं मागता हैं लेकिन हक्क से मांगता हैं, साधु बहती नदीका पानी पीता
हैं, ऐसा साधु अपनी मस्तीमें रहता हैं और किसीके अंकुशमें नहीं रहता हैं, ऐसा साधु
योग्य आश्रितको हि वस्तु देता हैं, ऐसा साधु प्रेम वशमें रहता हैं, ऐसा साधु भयमुक्त
निंदा स्मशान या वनमें लेता हैं, ऐसा साधु ऐसा वस्त्र पहनता हैं जिसे धोना और सुकाना
न पडे, ऐसा साधु वेदांतके महावाक्योमें घुमता हैं – वेदांत की गलीमें घुमता हैं, ऐसा
साधु ब्रह्मके साथ – भजनके साथ, गानेमें, रोनेमें - के साथ क्रिडा करता हैं, ऐसा साधु वसंत रुपी साधु हैं।
वक्ताके
लिये व्यासपीठ हि विश्राम स्थान हैं।
लक्ष्मण
वसंत हैं। पुष्पवाटिकामें तीन वसंत आते हैं। लक्ष्मण, पार्वती और भतिक रुपी वसंत जो
भी वसंत हैं।
भवानी
जो श्रद्धा हैं वह वसंत हैं।
वस्त्र
वृत्तिको बदल शकनेके लिये सक्षम हैं।
नहिं दरिद्र सम दुख जग
माहीं। संत मिलन सम सुख जग नाहीं।।
पर उपकार बचन मन काया। संत सहज सुभाउ खगराया।।7।।
जगत्
में दरिद्रता के समान दुःख नहीं है तथा संतोंके मिलने के समान जगत् में सुख नहीं है।
और हे पक्षिराज ! मन, वचन और शरीर से परोपकार करना यह संतोंका सहज स्वभाव है।।7।।
आत्मा
की आवाजमें मौन होता हैं और होठोकी आवाजमें शब्द होते हैं।
5
Wednesday, 09/02/2022
निज
घरमें परम तत्व बैठा हैं और हमारा गुरु भी हमारा निज घर हैं, ऐसे परम तत्व और गुरु
एक हि हैं।
निज
घरका दरवाजा खटखटाने से हि वसंत ऋतु और उसका रस प्राप्त होगा।
अपने
घरानेका एक सुर, स्वर, ताल, वगेरे होता हैं जो सम पर आना चाहिये।
भगवान
शंकर वन हैं और ऊमा वहां वसंत बनकर आयी हैं।
एक
गुरु नाम देता हैं, एक गुरु रुप देता हैं, एक गुरु
हम
वसंत को खोज लेते हैं लेकिन वसंत बननेमें हमारी बुद्धि बाधा बनती हैं।
प्रित
तीन प्रकारसे दोषित होती है, सुग्रीव की प्रिती ईसीलिये दोषित हैं क्यों कि वह वीभिषण
को शरण में लेनेके लिये विरोध करता हैं।
अगर
प्रिति पराधीन करे या दूसरेके प्रति प्रिति करनेमें जासुसी करे वह भी प्रितिका दोष
हैं।
गोविंद
की चाल, गोविंद का हास्य और गोविंद की प्रिति अदभूत हैं, यह तीन वस्तु हि हमे कृष्ण
की तरफ आकर्षित करते हैं।
प्रेम
में हारजीत नहीं होती हैं। प्रेम हारजीतसे पर हैं।
वसंत
की खोज संतसभा में करनी चाहिये, संतसभा में वसंत कायम होती हैं। जहां साधु होता हैं
वहां वसंत होती हैं।
अगर
तीव्र प्यास हैं तो कुआ हमारे पास आयेगा हि।
लक्ष्मण
के ६ लक्षण – लक्ष्मण पुष्पित, सुगंधित, फलित हैं, आश्रित हैं, लक्ष्मण पवन नी तरफ
मंद हैं, सुगंधित हैं, शीतल हैं।
बंदउँ लछिमन पद जल जाता।
सीतल सुभग भगत सुख दाता॥
रघुपति कीरति बिमल पताका।
दंड समान भयउ जस जाका॥3॥
मैं
श्री लक्ष्मणजी के चरण कमलों को प्रणाम करता हूँ, जो शीतल सुंदर और भक्तों को सुख देने
वाले हैं। श्री रघुनाथजी की कीर्ति रूपी विमल पताका में जिनका (लक्ष्मणजी का) यश (पताका
को ऊँचा करके फहराने वाले) दंड के समान हुआ॥3॥
लक्ष्मण
सदा राम के साथ रहता हैं।
6
Thursday, 10/02/2022
ताली
की आवाज आकाशगगा तक पहुंचती हैं, राम कथा भी एक ताली हैं।
पूँछेहु रघुपति कथा प्रसंगा।
सकल लोक जग पावनि गंगा॥
तुम्ह रघुबीर चरन अनुरागी।
कीन्हिहु प्रस्न जगत हित लागी॥4॥
जो
तुमने श्री रघुनाथजी की कथा का प्रसंग पूछा है, जो कथा समस्त लोकों के लिए जगत को पवित्र
करने वाली गंगाजी के समान है। तुमने जगत के कल्याण के लिए ही प्रश्न पूछे हैं। तुम
श्री रघुनाथजी के चरणों में प्रेम रखने वाली हो॥4॥
रामकथा सुंदर कर तारी।
संसय बिहग उड़ावनिहारी॥
रामकथा कलि बिटप कुठारी।
सादर सुनु गिरिराजकुमारी॥1॥
श्री
रामचन्द्रजी की कथा हाथ की सुंदर ताली है, जो संदेह रूपी पक्षियों को उड़ा देती है।
फिर रामकथा कलियुग रूपी वृक्ष को काटने के लिए कुल्हाड़ी है। हे गिरिराजकुमारी! तुम
इसे आदरपूर्वक सुनो॥1॥
असावधानी
से सुनना, दूसरों को दोष देना, बुद्धि का भ्रमित होना, निर्णय करने में प्रमाद, लोभ
भी बिद्धि का दोष हैं, यह चार बुद्धि के दोष हैं। जब बुद्धि अपने परख का अर्थ करे वह
भी बुद्धि का दोष हैं।
बुद्धि
के अच्छे लक्षण – सुनकर विनयसे कुछ प्राप्त करने के लिये जिज्ञासा करना, सर्व का मंगल
हो ऐसी जिज्ञासा करनी चाहिये, व्यासपीठ हमें परम हित तक ले जाती हैं, सामने वालोका
ज्ञान मापनेके लिये जिज्ञासा नहीं करनी चाहिये, पारमार्थिक अर्थ मिले ऐसी बुद्धि का
एक अच्छा लक्षण हैं, प्रभुकी प्रियता की कामना जगे ऐसी बिद्धि भी बुद्धि का अच्छा लक्षण
हैं, अच्छी बिद्धि हमे एक अच्छी जगह तक पहुंचा के परत जाती रहे ऐसा लक्षण भी बुद्धिका
अच्छा लक्षण हैं – ऐसे स्थान तक पहुंचनेके बाद बुद्धि साथेमें नहीं रहती हैं।
राम
काम भी हैं और वसंत भी हैं।
कथाकर
के समान ओर कोई दानी नहीं हैं।
जिसके
पास जानेसे परम शांति प्राप्त हो, जिसके पास जाने हमें हमें लगे कि हमारे तरफ शीतल
उजाला – शीतल प्रकाश फेंका जा रहा हैं, जिसके पास जाने से अकारण हमारी आंखे भीगी हो
जाय, जिसके पास जानेसे हमारे संदेह अपनेआप समाप्त हो जाय वह गुरु हैं – ऐसे गुरुकी
चरणमें बैठ जाना चाहिये। गुरु भी सच्चे आश्रितको खोजता हैं।
हमें
सत्यके साथ रहना चाहिये, सत्य के साथ खडा रहना चाहिये, ऐसा करनेमें हिंमत की जरुर हैं।
महादेव
ने जो कथा अनेक वर्षो पहले कैलास पर गाई हैं उसकी रेंज सकल लोक तक आयी हैं।
कथा
वक्तव्य की और कथा श्रवणकी भी बहुत लंबी रेंज हैं।
रघुपति देखो आयो हनूमन्त
| लङ्केस-नगर खेल्यो बसन्त ||
श्रीराम-काजहित सुदिन सोधि
| साथी प्रबोधि लाँघ्यो पयोधि ||
ચાલ રમીયે સહી, મેલ મથવું
મહી વસંત આવ્યો વન વેલ ફૂલી,
મ્હોરિયા અંબ કોકિલા-લ
વે કદમ્બ, કુસુમ-કુસુમ રહ્યા ભ્રમર ઝુલી.
ચાલ રમીયે સહી, મેલ મથવું
મહી...
પહેર શણગાર ને હાર ગજગામિની,
ક્યારની કહું છું જે ચાલી ઊઠી,
રસિક મુખ ચુંબિએ, વળગિયે
ઝુંબીએ, આજ તો લાજની દુહાઇ છૂટી.
ચાલ રમીયે સહી, મેલ મથવું
મહી...
હેતે હરિ વશ કરી લ્હાવો
લે ઉર ધરી, કરગ્રહી કૃષ્ણજી પ્રીતે મળશે,
નરસૈયો રંગમા અંગ ઉન્મત
થયો, ખોયેલા દિવસોનો ખંગ વળશે.
ચાલ રમીયે સહી, મેલ મથવું
મહી...
નરસિંહ મહેતા
जनहि मोर बल निज बल ताही।
दुहु कहँ काम क्रोध रिपु आही॥
यह बिचारि पंडित मोहि भजहीं।
पाएहुँ ग्यान भगति नहिं तजहीं॥5॥
मेरे
सेवक को केवल मेरा ही बल रहता है और उसे (ज्ञानी को) अपना बल होता है। पर काम-क्रोध
रूपी शत्रु तो दोनों के लिए हैं।(भक्त के शत्रुओं को मारने की जिम्मेवारी मुझ पर रहती
है, क्योंकि वह मेरे परायण होकर मेरा ही बल मानता है, परन्तु अपने बल को मानने वाले
ज्ञानी के शत्रुओं का नाश करने की जिम्मेवारी मुझ पर नहीं है।) ऐसा विचार कर पंडितजन
(बुद्धिमान लोग) मुझको ही भजते हैं। वे ज्ञान प्राप्त होने पर भी भक्ति को नहीं छोड़ते॥5॥
दोहा
:
काम क्रोध लोभादि मद प्रबल
मोह कै धारि।
तिन्ह महँ अति दारुन दुखद
मायारूपी नारि॥43॥
काम,
क्रोध, लोभ और मद आदि मोह (अज्ञान) की प्रबल सेना है। इनमें मायारूपिणी (माया की साक्षात्
मूर्ति) स्त्री तो अत्यंत दारुण दुःख देने वाली है॥43॥
चौपाई
:
सुनु मुनि कह पुरान श्रुति
संता। मोह बिपिन कहुँ नारि बसंता॥
जप तप नेम जलाश्रय झारी।
होइ ग्रीषम सोषइ सब नारी॥1
हे
मुनि! सुनो, पुराण, वेद और संत कहते हैं कि मोह रूपी वन (को विकसित करने) के लिए स्त्री
वसंत ऋतु के समान है। जप, तप, नियम रूपी संपूर्ण जल के स्थानों को स्त्री ग्रीष्म रूप
होकर सर्वथा सोख लेती है॥1॥
काम क्रोध मद मत्सर भेका।
इन्हहि हरषप्रद बरषा एका॥
दुर्बासना कुमुद समुदाई।
तिन्ह कहँ सरद सदा सुखदाई॥2॥
काम,
क्रोध, मद और मत्सर (डाह) आदि मेंढक हैं। इनको वर्षा ऋतु होकर हर्ष प्रदान करने वाली
एकमात्र यही (स्त्री) है। बुरी वासनाएँ कुमुदों के समूह हैं। उनको सदैव सुख देने वाली
यह शरद् ऋतु है॥2॥
धर्म सकल सरसीरुह बृंदा।
होइ हिम तिन्हहि दहइ सुख मंदा॥
पुनि ममता जवास बहुताई।
पलुहइ नारि सिसिर रितु पाई॥3॥
समस्त
धर्म कमलों के झुंड हैं। यह नीच (विषयजन्य) सुख देने वाली स्त्री हिमऋतु होकर उन्हें
जला डालती है। फिर ममतारूपी जवास का समूह (वन) स्त्री रूपी शिशिर ऋतु को पाकर हरा-भरा
हो जाता है॥3॥
7
Friday,
11/02/2022
राम
कथा की वसंत सदा के लिये वसंत हैं।
सब जानत प्रभु प्रभुता
सोई। तदपि कहें बिनु रहा न कोई॥
तहाँ बेद अस कारन राखा।
भजन प्रभाउ भाँति बहु भाषा॥1॥
यद्यपि
प्रभु श्री रामचन्द्रजी की प्रभुता को सब ऐसी (अकथनीय) ही जानते हैं, तथापि कहे बिना
कोई नहीं रहा। इसमें वेद ने ऐसा कारण बताया है कि भजन का प्रभाव बहुत तरह से कहा गया
है। (अर्थात भगवान की महिमा का पूरा वर्णन तो कोई कर नहीं सकता, परन्तु जिससे जितना
बन पड़े उतना भगवान का गुणगान करना चाहिए, क्योंकि भगवान के गुणगान रूपी भजन का प्रभाव
बहुत ही अनोखा है, उसका नाना प्रकार से शास्त्रों में वर्णन है। थोड़ा सा भी भगवान
का भजन मनुष्य को सहज ही भवसागर से तार देता है)॥1॥
बुद्धि
के दो दोष प्रमाद और लोभ को कैसे दूर करे? स्वीकार करना दूर करनेकी शरुआत हि हैं। क्षोभ
होना, आत्म निदेवन, पादुका के पास आत्म निवेदन करनेसे यह दोष कम होंगे।
बुद्ध
पुरुष अपने आश्रित को बंधन में नहीं रखता हैं। धार्मिक लोग बंधन में रखता हैं, लेकिन
आध्यात्मिक लोग बंधनमें नहीं रखता हैं। बुद्ध पुरुष के ह्मदयमें हरि और हरि स्मरण के
सिवा ओर कोई रह नहीं शकते हैं, दूसरे को रहनेकी जगह हि नहीं हैं। बुद्ध पुरुष अपने
आश्रित को अपनी निगाह में रखता हैं।
मम गुन गावत पुलक सरीरा।
गदगद गिरा नयन बह नीरा॥
काम आदि मद दंभ न जाकें।
तात निरंतर बस मैं ताकें॥6॥
मेरा
गुण गाते समय जिसका शरीर पुलकित हो जाए, वाणी गदगद हो जाए और नेत्रों से (प्रेमाश्रुओं
का) जल बहने लगे और काम, मद और दम्भ आदि जिसमें न हों, हे भाई! मैं सदा उसके वश में
रहता हूँ॥6॥
लखन
को सीताराम ने आंख के पांपळ में रखते हैं।
जब
भी भूल हो जाय तो उसे स्वीकार करने से और वहां पर अटक जानेसे मानसिक स्वास्थ्य अच्छा
रहेगा, मनकी प्रसन्नता शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य अच्छा रहता हैं। अपनी प्रिय व्यक्तिका
स्मरण मानसिक स्वास्थ्य अच्छा रखेगा। कथा का निरंतर कहना – चलाना भी स्वास्थ्य अच्छा
रखती हैं। भजन का योग – भजन का वियोग न होना, युक्ताहार आहार, हरि नाम आहार, बेईमानीका
क्षोभ, चिद विलास, राम कथा का गान वगेरे स्वास्थ्य अच्छा रखता हैं।
दुनिया
कारण कार्य के लिये चलती हैं लेकिन व्यास पीठ की कथा बिना कोई प्रयोजन, बिना कारण होती
हैं।
श्रोता सुमति सुसील सुचि
कथा रसिक हरि दास।
पाइ उमा पति गोप्यमपि सज्जन
करहिं प्रकास।।69ख।।
हे
उमा ! सुन्दर बुद्धिवाले, सुशील, पवित्र कथा के प्रेमी और हरि के सेवक श्रोता को पाकर
सज्जन अत्यन्त गोपनीय (सबके सामने प्रकट न करने योग्य) रहस्य को प्रकट कर देते हैं।।69(ख)।।
बालकांड
की वसंत संग्रह वसंत हैं, अयोध्याकांड की वसंत परिग्रह वसंत हैं – राम लक्ष्मण और सीता
एक साथ रहकर मोज करते हैं, अरण्यकांड की वसंत अपरिग्रही वसंत हैं, किश्ग्किन्धामां
वसंत नहीं हैं, सुंदरकांद में वसंत नहीं हैं
लंकाकांड की वसंत विग्रही वसंत हैं
चलेउ निसाचर कटकु अपारा।
चतुरंगिनी अनी बहु धारा॥
बिबिधि भाँति बाहन रथ जाना।
बिपुल बरन पताक ध्वज नाना॥1॥
राक्षसों की अपार सेना चली। चतुरंगिणी सेना की बहुत
सी Uटुकडि़याँ हैं। अनेकों प्रकार के वाहन, रथ और सवारियाँ हैं तथा बहुत से रंगों की
अनेकों पताकाएँ और ध्वजाएँ हैं॥1॥
चले मत्त गज जूथ घनेरे।
प्राबिट जलद मरुत जनु प्रेरे॥
बरन बरन बिरदैत निकाया।
समर सूर जानहिं बहु माया॥2॥
मतवाले हाथियों के बहुत से झुंड चले। मानो पवन से
प्रेरित हुए वर्षा ऋतु के बादल हों। रंग-बिरंगे बाना धारण करने वाले वीरों के समूह
हैं, जो युद्ध में बड़े शूरवीर हैं और बहुत प्रकार की माया जानते हैं॥2॥
अति बिचित्र बाहिनी बिराजी।
बीर बसंत सेन जनु साजी॥
चलत कटक दिगसिंधुर डगहीं।
छुभित पयोधि कुधर डगमगहीं॥3॥
अत्यंत
विचित्र फौज शोभित है। मानो वीर वसंत ने सेना सजाई हो। सेना के चलने से दिशाओं के हाथी
डिगने लगे, समुद्र क्षुभित हो गए और पर्वत डगमगाने लगे॥3॥
उठी रेनु रबि गयउ छपाई।
मरुत थकित बसुधा अकुलाई॥
पनव निसान घोर रव बाजहिं।
प्रलय समय के घन जनु गाजहिं॥4॥
इतनी
धूल उड़ी कि सूर्य छिप गए। (फिर सहसा) पवन रुक गया और पृथ्वी अकुला उठी। ढोल और नगाड़े
भीषण ध्वनि से बज रहे हैं, जैसे प्रलयकाल के बादल गरज रहे हों॥4॥
भेरि नफीरि बाज सहनाई।
मारू राग सुभट सुखदाई॥
केहरि नाद बीर सब करहीं।
निज निज बल पौरुष उच्चरहीं॥5॥
भेरी,
नफीरी (तुरही) और शहनाई में योद्धाओं को सुख देने वाला मारू राग बज रहा है। सब वीर
सिंहनाद करते हैं और अपने-अपने बल पौरुष का बखान कर रहे हैं॥5॥
कहइ दसानन सुनहू सुभट्टा।
मर्दहु भालु कपिन्ह के ठट्टा॥
हौं मारिहउँ भूप द्वौ भाई।
अस कहि सन्मुख फौज रेंगाई॥6॥
रावण ने कहा- हे उत्तम योद्धाओं! सुनो तुम रीछ-वानरों
के ठट्ट को मसल डालो और मैं दोनों राजकुमार भाइयों को मारूँगा। ऐसा कहकर उसने अपनी
सेना सामने चलाई॥6॥
उत्तरकांड
की वसंत अनुग्रही वसंत हैं।
ધૂણી
રે ધખાવી
जीवन
में अन्य ऋतु तो आती रहती हैं लेकिन हमें जीवन के एक कोने में हमें श्रद्धाकी वसंत
सदा रखनी चाहिये – छुपाके रखनी चाहिये।
जैसे
कुकडा सुबह होते बोलता है वैसे जब गुरु की कृपा होती हैं तब हि कोई बोल शकता हैं।
9
Sunday, 13/02/2022
बुद्ध
पुरुष अपने आश्रित के प्रश्न का जवाब नहीं देता हैं लेकिन अपने आश्रित को जागृत करता
हैं।
जीवन
में कायम वसंत रहे उसके तीन सूत्र हैं।
१
जब
साधक जीवन में अखंड शांति आती हैं तब उसके जीवन में सदा वसंत रहती हैं।
२
अखंड
शांति तब आती हैं जब साधक नींदा, ईर्षा ऐर द्वेष छोड देता है। जब हम सत्य, प्रेम और
करुणा का निरंतर अनुसरे तब हि अखंड शांति आती हैं। शंकर कहते हैं अगर साधक योग में
रहता और उसका चित परम के स्मरणमें रहता हैं तब अखंड शांति आती हैं। अखंड शांति वसंतोत्सव
हैं।
३
जैसी
भी स्थिति में रहो प्रसन्न रहो तो अखंड शांति आयेगी। हर स्थितिमें सदा भजन करने से
अखंड शाति मिलती हैं। भोग से आगे महाभोग हैं उसे माणो।
ભક્તિ રે કરવી
તેણ્ર રાંક થઈને રહેવું, મેલવી મન અભિમાન
દયા ગરીબી બંદગી, સમતા શીલ સુજાણ ઐસે લક્ષણ સાધુકે કહે કબીર તું જાણ. ♥ કાયા તું બડો ધણી, ...
वसंत में बाग शोभित होता हैं, प्रकृति श्रींगारीत करती हैं, और एक वाटीका हैं जो वसंत
को श्रींगारीत करती हैं।
रावण
के अशोकवन में जानेसे वसंत भी विशेष शुशोभित होती हैं। जबसे जानकी – भक्ति – छाया रुपी
जानकी भी थोडी सी भक्ति हैं - अशोकवन में आयी तबसे अशोकवन विषेष सुशोभित हुआ हैं।
य़ोग रतोवा, भोग रतोवा ।
सगं रतोवा,सगं विहीनह्
।।
यसय बार्ह्मणी, रमते चित्हः
।
ननंदति ननंदति ननंदतेवा्
।।
चाहे
आप य़ोग में हो या भोग में हो किसी के संग मे हो, य़ा किसी के संग के बिना हो वह प्राणी
जो ब्रह्माण के रचयीता को ध्यान मे रखता है,या फिऱ ब्रहम को चित्त में रखता है वह व्य़क्ति
हमेंशा आनंद आनंद आनंदमय़ रहता है ।।
भारत
देश में सदा उत्सव आते रहते हैं ईसीलिये भारत में सदा वसंत हैं, जहां सब सदा विलास
करते रहते हैं।
अगर
हममें श्रद्धा हैं तो हमारे जीवन में सदा वसंत हैं।
सो कुल धन्य उमा सुनु जगत
पूज्य सुपुनीत।
श्रीरघुबीर परायन जेहिं
नर उपज बिनीत।।127।।
हे
उमा ! सुनो। वह कुल धन्य है, संसारभरके लिये पूज्य है और परम पवित्र है, जिसमें श्रीरघुवीरपरायण
(अनन्य रामभक्त) विनम्र पुरुष उत्पन्न हो।।127।।
मति अनुरूप कथा मैं भाषी।
जद्यपि प्रथम गुप्त करि राखी।।
तव मन प्रीति देखि अधिकाई।
तब मैं रघुपति कथा सुनाई।।1।।
मैंने
अपनी बुद्धि के अनुसार यह कथा कही, यद्यपि पहले इसको छिपाकर रक्खा था। जब तुम्हारे
मनमें प्रेमकी अधिकता देखी तब मैंने श्रीरघुनाथजीकी यह कथा तुमको सुनायी।।1।।
यह न कहिअ सठही हठसीलहि।
जो मन लाइ न सुन हरि लीलहि।।
कहिअ न लोभिहि क्रोधिहि
कामिहि। जो न भजइ सचराचर स्वामिहि।।2।।
यह
कथा उनसे न कहनी चाहिये जो शठ (धूर्त) हों, हठी स्वभावके हों और श्रीहरिकी लीलाको मन
लगाकर न सुनते हों। लोभी, क्रोधी और कामीको, जो चराचरके स्वामी श्रीरामजीको नहीं भजते,
यह कथा नहीं कहनी चाहिये।।2।।
उपरोक्त
८ व्यक्तिओ को कथा नहीं सुनानी चाहिये। ऐसे व्यक्तिओ को कथा का यजमान भी नहीं बनाना
चाहिये।
द्विज द्रोहिहि न सुनाइअ
कबहूँ। सुरपति सरिस होइ नृप जबहूँ।।
राम कथा के तेइ अधिकारी
जिन्ह कें सत संगति अति प्यारी।।3।।
ब्राह्मणों
के द्रोही को, यदि वे देवराज (इन्द्र) के समान ऐश्वर्यवान् राजा भी हो, तब भी यह कथा
कभी नहीं सुनानी चाहिये। श्रीरामजीकी कथाके अधिकारी वे ही हैं जिनको सत्संगति अत्यन्त
प्रिय है।।3।।
गुर पद प्रीति नीति रत
जेई। द्विज सेवक अधिकारी तेई।।
ता कहँ यह बिसेष सुखदाई।
जाहि प्रानप्रिय श्रीरघुराई।।4।।
जिनकी
गुरुके चरणों में प्रीति हैं, जो नीति परायण और ब्राह्मणों के सेवक हैं, वे ही इसके
अधिकारी है। और उसको तो यह कथा बहुत ही सुख देनेवाली है, जिनको श्रीरघुनाथजी प्राणके
समान प्यारे हैं।।4।।
गुरु
चरण रज मन, नयन, भवन, मस्तक, पुरा शरीर, धन – धन को लक्ष्मी में परिवर्तित करती हैं
को पवित्र करती हैं।
राम चरन रति जो चहि अथवा
पद निर्बान।
भाव सहित सो यह कथा करउ
श्रवन पुट पान।।128।।
जो
श्रीरामजीके चरणोंमें प्रेम चाहता हो या मोक्ष पद चाहता हो, वह इस कथा रूपी अमृतको
प्रेमपूर्वक अपने कानरूपी दोनेसे पिये।।128।।
एहिं कलिकाल न साधन दूजा।
जोग जग्य जप तप ब्रत पूजा।।
रामहि सुमिरिअ गाइअ रामहि।
संतत सुनिअ राम गुन ग्रामहि।।3।।
[तुलसीदासजी
कहते हैं-] इस कलिकाल में योग, यज्ञ, जप, तप, व्रत और पूजन आदि कोई दूसरा साध नहीं
है। बस, श्रीरामजीका ही स्मरण करना, श्रीरामजी का ही गुण गाना और निरन्तर श्रीरामजीके
ही गुणसमूहोंको सुनना चाहिये।।3।।
रघुबंस भूषन चरित यह नर
कहहिं सुनहिं जे गावहीं।।
कलि मल मनोमल धोइ बिनु
श्रम राम धाम सिधावहीं।।
सत पंच चौपाईं मनोहर जानि
जो नर उर धरै।
दारुन अबिद्या पंच जनित
बिकार श्री रघुबर हरै।।2।।
जो
मनुष्य रघुवंश के भूषण श्रीरामजीका यह चरित्र कहते हैं, सुनते हैं और गाते हैं, वे
कलियुगके पाप और मन के मलको धोकर बिना ही परिश्रम श्रीरामजीके परम धामको चले जाते हैं।
[अधिक क्या] जो मनुष्य पाँच-सात चौपाईयों को भी मनोहर जानकर [अथवा रामायण की चौपाइयों
को श्रेष्ठ पंच (कर्तव्याकर्तव्यका सच्चा निर्णायक) जानकर उनको] हृदय में धारण कर लेता
है, उसके भी पाँच प्रकार की अविद्याओं से उत्पन्न विकारों को श्रीरामजी हरण कर लेते
हैं, (अर्थात् सारे रामचरित्र की तो बात ही क्या है, जो पाँच-सात चौपाइयोंको भी समझकर
उनका अर्थ हृदय में धारण कर लेते हैं, उनके भी अविद्याजनित सारे क्लेश श्रीरामचन्द्रजी
हर लेते हैं)।।2।।
सुंदर सुजान कृपा निधान
अनाथ पर कर प्रीति जो।
सो एक राम अकाम हित निर्बानप्रद
सम आन को।।
जाकी कृपा लवलेस ते मतिमंद
तुलसीदासहूँ।
पायो परम बिश्रामु राम
समान प्रभु नाहीं कहूँ।।3।।
[परम]
सुन्दर, सुजान और कृपानिधान तथा जो अनाथों पर प्रेम करते हैं, ऐसे एक श्रीरामचन्द्रजी
ही हैं। इनके समान निष्काम (निःस्वार्थ) हित करनेवाला (सुह्रद्) और मोक्ष देनेवाला
दूसरा कौन है ? जिनकी लेशमात्र कृपासे मन्दबुद्धि तुलसीदासने भी परम शान्ति प्राप्त
कर ली, उन श्रीरामजीके समान प्रभु कहीं भी नहीं हैं।।3।।
मो सम दीन न दीन हित तुम्ह
समान रघुबीर।।
अस बिचारि रघुबंस मनि हरहु
बिषम भव भीर।।130क।।
हे
श्रीरघुवीर ! मेरे समान कोई दीन नहीं है और आपके समान कोई दीनों का हित करनेवाला नहीं
है। ऐसा विचार कर हे रघुवंशमणि ! मेरे जन्म-मरणके भयानक दुःखकों हरण कर लीजिये ।।130(क)।।
कामिहि नारि पिआरि जिमि
लोभिहि प्रिय जिमि दाम।।
तिमि रघुनाथ निरंतर प्रिय
लागहु मोहि राम।।130ख।।
जैसे
कामीको स्त्री प्रिय लगती है और लोभी को जैसे धन प्यारा लगता है, वैसे ही हे रघुनाथजी
! हे राम जी ! आप निरन्तर मुझे प्रिय लगिये।।130(ख)।।
श्लोक-यत्पूर्वं प्रभुणा
कृतं सुकविना श्रीशम्भुना दुर्गमं
श्रीमद्रामपदाब्जभक्तिमनिशं
प्राप्त्यै तु रामायणम्।
मत्वा तद्रघुनाथनामनिरतं
स्वान्तस्तंमःशान्तये
भाषाबद्धमिदं चकार तुलसीदासस्तथा
मानसम्।।1।।
श्रेष्ठ
कवि भगवान् शंकरजीने पहले जिस दुर्गम मानस-रामायणकी, श्रीरामजीके चरणकमलोंके नित्य-निरन्तर
[अनन्य] भक्ति प्राप्त होनेके लिये रचना की थी, उस मानस-रामायणको श्रीरघुनाथजीके नाममें
निरत मानकर अपने अन्तः करणके अन्धकारको मिटानेके लिये तुलसीदासने इस मानसके रूपमें
भाषाबद्ध किया।।1।।
पुण्यं पापहरं सदा शिवकरं
विज्ञानभक्तिप्रदं
मायामोहमलापहं सुविमलं
प्रेमाम्बुपुरं शुभम्।
श्रीमद्रामचरित्रमानसमिदं
भक्त्यावगाहन्ति ये
ते संसारपतंगघोरकिरणैर्दह्यन्ति
नो मानवाः।।2।।
यह
श्रीरामचरितमानस पुण्यरूप, पापों का हरण करने वाला, सदा कल्याणकारी, विज्ञान और भक्तिको
देनेवाला, माया, मोह और मलका नाश करनेवाला, परम निर्मल प्रेमरूपी जलसे परिपूर्ण तथा
मंगलमय है। जो मनुष्य भक्तिपूर्वक इस मानसरोवर में गोता लगाते हैं, वे संसाररूपी सूर्यकी
अति प्रचण्ड किरणोंसे नहीं जलते।।2।।
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