રામ કથા – 894
માનસ ગુરુકુલ
હરદ્વાર
શનિવાર, તારીખ 0૨/0૪/૨0૨૨
થી રવિવાર, ૧0/0૪/૨0૨૨
મુખ્ય ચોપાઈ
गुर गृह गयउ तुरत महिपाला।
चरन लागि करि बिनय बिसाला॥
गुरगृहँ गए पढ़न रघुराई।
अलप काल बिद्या सब आई॥
1
Saturday, 02/04/2022
भए कुमार जबहिं
सब भ्राता। दीन्ह जनेऊ गुरु पितु माता॥
गुरगृहँ गए पढ़न रघुराई। अलप काल बिद्या सब आई॥2॥
ज्यों
ही सब भाई कुमारावस्था के हुए, त्यों ही गुरु, पिता और माता ने उनका यज्ञोपवीत संस्कार
कर दिया। श्री रघुनाथजी (भाइयों सहित) गुरु के घर में विद्या पढ़ने गए और थोड़े ही समय
में उनको सब विद्याएँ आ गईं॥2॥
एक बार भूपति मन माहीं।
भै गलानि मोरें सुत नाहीं॥
गुर गृह गयउ तुरत महिपाला। चरन लागि करि बिनय बिसाला॥1॥
एक
बार राजा के मन में बड़ी ग्लानि हुई कि मेरे पुत्र नहीं है। राजा तुरंत ही गुरु के घर
गए और चरणों में प्रणाम कर बहुत विनय की॥1॥
अनेक
व्यक्ति भाग्य विधाता हो शकते हैं।
विकास
विश्रामदायी होना चाहिये।
साधुका
प्रहार भी प्रसाद हैं।
Personally
reasonless vison
भगवान
राम ब्रह्म विद्याके साक्षात विग्रह हैं।
राम ब्रह्म
परमारथ रूपा। अबिगत अलख अनादि अनूपा॥
सकल बिकार रहित गतभेदा।
कहि नित नेति निरूपहिं बेदा॥4॥
श्री रामजी परमार्थस्वरूप (परमवस्तु)
परब्रह्म हैं। वे अविगत (जानने
में न आने वाले) अलख (स्थूल दृष्टि
से देखने में न आने वाले), अनादि
(आदिरहित), अनुपम (उपमारहित)
सब विकारों से रहति और भेद शून्य हैं, वेद जिनका नित्य
'नेति-नेति' कहकर निरूपण
करते हैं॥4॥
उत्तिष्ठत जाग्रत प्राप्य
वरान्निबोधत।
क्षुरस्य धारा निशिता दुरत्यया
दुर्गं पथस्तत्कवयो वदन्ति ॥
Arise,
awake, find out the great ones and learn of them; for sharp as a razor's edge,
hard to traverse, difficult of going is that path, say the sages.
''उठो,
जागो, वरिष्ठ पुरुषों को पाकर उनसे बोध प्राप्त करो। छुरी की तीक्ष्णा धार पर चलकर
उसे पार करने के समान दुर्गम है यह पथ-ऐसा ऋषिगण कहते हैं।
भरत
योग विद्याके साक्षात विग्रह हैं।
शत्रुघ्न
महाराज वेद विद्या के स्वरुप – मूर्तिमंत रुप हैं।
बिस्व भरन पोषन कर जोई।
ताकर नाम भरत अस होई॥
जाके सुमिरन तें रिपु नासा।
नाम सत्रुहन बेद प्रकासा॥4॥
जो
संसार का भरण-पोषण करते हैं, उन (आपके दूसरे पुत्र) का नाम 'भरत' होगा, जिनके स्मरण
मात्र से शत्रु का नाश होता है, उनका वेदों में प्रसिद्ध 'शत्रुघ्न' नाम है॥4॥
लक्ष्मण आद्यात्म विद्या के विग्रह - मूर्तिमंत रुप हैं।
विद्वान
बहुत परिश्रम करते हैं।
को कहि सकइ प्रयाग
प्रभाऊ। कलुष पुंज कुंजर मृगराऊ॥
अस तीरथपति
देखि सुहावा। सुख सागर रघुबर सुखु पावा॥1॥
पापों के समूह रूपी हाथी के मारने के लिए सिंह रूप प्रयागराज
का प्रभाव (महत्व-माहात्म्य) कौन कह सकता है। ऐसे सुहावने तीर्थराज
का दर्शन कर सुख के समुद्र रघुकुल
श्रेष्ठ श्री रामजी ने भी सुख पाया॥1॥
रचि महेस निज मानस राखा।
पाइ सुसमउ सिवा सन भाखा॥
तातें रामचरितमानस बर।
धरेउ नाम हियँ हेरि हरषि हर॥6॥
श्री
महादेवजी ने इसको रचकर अपने मन में रखा था और सुअवसर पाकर पार्वतीजी से कहा। इसी से
शिवजी ने इसको अपने हृदय में देखकर और प्रसन्न होकर इसका सुंदर 'रामचरित मानस' नाम
रखा॥6॥
गुरु
और शास्त्रोके वाक्योमें विश्वास हि श्रद्धा हैं।
जानकी,
भरत, लक्ष्मण, बंदर भालु और सुग्रीव मानस के पंचप्राण हैं जिसाकी रक्षा हनुमान करते
हैं।
2
Sunday, 03/04/2022
गुरुकुल
क्या देता हैं?
गुरुकुल
धर्म प्रदान करता हैं, गुरुकुल परमार्थिक अर्थ, कुच करनेका काम और मोक्ष भी देता हैं।
मानस
में गुरु गृह शब्द हैं।
गृह
गर और गुरु गृह में अंतर हैं, संसारई के गृहमें भोगकी प्रधानता हैं और गुरु गृजमएं
योग कॉ प्रधानता ह्तोती हैं।
संसारी
गृहमें संघर्ष, रिस्ते, संबंध होते हैं। गुरु गृह विश्राम देता हैं – शांति देता हैं।
गुरु
गृह आध्यात्मिक संबंध देता हैं।
चाकरी
करना का अर्थ सेवा करना हैं।
नोकरी
मजबुरी हैं।
मानस
भी गुरुकुल हि हैं।
कोरोना
काल में विचार की वेक्षिन की आवश्यकता हैं।
राम
नाम तारक नाम हैं।
गुरुकुलमें
कर्म, ज्ञान, उपासना और शरणागतिकी विधा सीखाई जाती हैं।
सातयुगमें ध्यानकी प्रधानता थी।
त्रेतायुगमें
यज्ञ की प्रधानता रही और उसकी छायामें ओर विधा चलती रही।
कलीयुगमें
हरि नाम कॉ प्रधानता हैं।
ज्ञान
प्राप्त करनेके लिये हमें सन्मुख रहना चाहिये।
कोटि बिप्र बध लागहिं जाहू।
आएँ सरन तजउँ नहिं ताहू॥
सनमुख होइ जीव मोहि जबहीं। जन्म कोटि अघ नासहिं तबहीं॥1॥
जिसे
करोड़ों ब्राह्मणों की हत्या लगी हो, शरण में आने पर मैं उसे भी नहीं त्यागता। जीव
ज्यों ही मेरे सम्मुख होता है, त्यों ही उसके करोड़ों जन्मों के पाप नष्ट हो जाते हैं॥1॥
कलीयुगमें
हरिनाम की छायामें सब दिधा पलपती हैं।
वेद
मंत्र के अर्थ की चिंता न करो उसके ध्वनि सुनना हि पर्याप्त हैं।
साधु,
संन्यासी, फकिर लोककल्याणके लिये परिभ्रमण करते रहते हैं।
जे चरन सिव अज पूज्य रज
सुभ परसि मुनिपतिनी तरी।
नख निर्गता मुनि बंदिता
त्रिलोक पावनि सुरसरी।।
ध्वज कुलिस अंकुस कंज जुत
बन फिरत कंटक किन लहे।
पद कंज द्वंद मुकुंद राम
रमेस नित्य भजामहे।।4।।
जो
चरण शिवजी और ब्रह्मा जी के द्वारा पूज्य हैं, तथा जिन चरणोंकी कल्याणमयी रज का स्पर्श
पाकर [शिव बनी हुई] गौतमऋषि की पत्नी अहल्या तर गयी; जिन चरणों के नखसे मुनियों द्वारा
वन्दित, त्रैलोक्यको पवित्र करनेवाली देवनदी गंगाजी निकलीं और ध्वजा, वज्र अकुंश और
कमल, इन चिह्नोंसे युक्त जिन चरणोंमें वनमें फिरते समय काँटे चुभ जानेसे घठ्टे पड़
गये हैं; हे मुकुन्द ! हे राम ! हे रमापति ! हम आपके उन्हीं दोनों चरणकमलोंको नित्य
भजते रहते हैं।।4।।
गुरुजनका,
शास्त्रोका डर हि हमें अभय देता हैं।
व्यासपीठ
सत्य, प्रेम और करुणा का पैगाम हैं।
संसारी
गृह और गुरु गृहमें कई तफावत हैं जैसे कि ………..
संग्रह
– त्याग
साधन
– साधना
संघर्ष
के लिये शस्त्र – शास्त्रो
पानी
– जल
जल
की हम पूजा करते हैं।
भोजन
पकता हैं – प्रसाद दीया जाता हैं।
साधो
जाये गुरुके द्वार ………….
Enjoy साधो..जायेगुरु के द्वार
Read More on मानस गुर गृह -
जब गाय दूध देना बंध कर दे तब भी उसकी सेवा करनी चाहिये।
जो
स्त्री अपने परिवारमें बारबार झुठ बोले, जिसका धन सतकार्यमें उपयोग न करे, जो युवक
संस्कार चुक जाय और जिसकी बानी परमात्माका वर्णन न करे ऐसा वक्ता – ऐसे ५ के संरक्षण
में रहना नही चाहिए, संरक्षणमें रहनेसे दुःख मिलेगा।
जहां
आराम – विश्राम मिले, जहां सात्विक आहार मिले, जहां आरोग्य मिले, जहां आश्वासन मिले,
जहां बिना किसी भेद आवकार मिले, आश्रय मिले, जहां आनंद मिले, वह आश्रम हैं।
नाम
रामका, रुप कृष्णाका, लीला महादेवकी, धाम अपने अपने गुरुका।
राधाके
केश, कृष्णका वेश और देश नंदका, जिसकी तुलना नहीं हैं।
3
Monday, 04/04/2022
मानस
स्वयं गुरुकुल हैं, जिस कि ब्रह्म विद्या मंगलाचरनका प्रथम श्लोक हैं।
राम
ब्रह्म विद्या के साक्षात मूर्ति हैं।
योग विद्या
जैसें मिटै मोर भ्रम भारी।
कहहु सो कथा नाथ बिस्तारी॥
जागबलिक बोले मुसुकाई।
तुम्हहि बिदित रघुपति प्रभुताई॥1॥
हे
नाथ! जिस प्रकार से मेरा यह भारी भ्रम मिट जाए, आप वही कथा विस्तारपूर्वक कहिए। इस
पर याज्ञवल्क्यजी मुस्कुराकर बोले, श्री रघुनाथजी की प्रभुता को तुम जानते हो॥1॥
शब्द
ब्रह्म, अक्षर ब्रह्म,
वर्णानामर्थसंघानां रसानां
छन्दसामपि।
मंगलानां च कर्त्तारौ वन्दे
वाणीविनायकौ॥1॥
अक्षरों,
अर्थ समूहों, रसों, छन्दों और मंगलों को करने वाली सरस्वतीजी और गणेशजी की मैं वंदना
करता हूँ॥1॥
राम
शब्द ब्रह्म हैं, अक्षर ब्रह्म हैं, रस ब्रह्म हैं, वाक्य ब्रह्म हैं, मंगल करने वाले
हैं।
आश्रम
वह हैं जहां आगाम हो।
मंगल करनि कलिमल हरनि तुलसी
कथा रघुनाथ की।
गति कूर कबिता सरित की
ज्यों सरित पावन पाथ की॥
प्रभु सुजस संगति भनिति
भलि होइहि सुजन मन भावनी
भव अंग भूति मसान की सुमिरत
सुहावनि पावनी॥
तुलसीदासजी
कहते हैं कि श्री रघुनाथजी की कथा कल्याण करने वाली और कलियुग के पापों को हरने वाली
है। मेरी इस भद्दी कविता रूपी नदी की चाल पवित्र जल वाली नदी (गंगाजी) की चाल की भाँति
टेढ़ी है। प्रभु श्री रघुनाथजी के सुंदर यश के संग से यह कविता सुंदर तथा सज्जनों के
मन को भाने वाली हो जाएगी। श्मशान की अपवित्र राख भी श्री महादेवजी के अंग के संग से
सुहावनी लगती है और स्मरण करते ही पवित्र करने वाली होती है।
बंदउँ बालरूप सोइ रामू।
सब सिधि सुलभ जपत जिसु नामू॥
मंगल भवन अमंगल हारी। द्रवउ सो दसरथ अजिर बिहारी॥2॥
मैं
उन्हीं श्री रामचन्द्रजी के बाल रूप की वंदना करता हूँ, जिनका नाम जपने से सब सिद्धियाँ
सहज ही प्राप्त हो जाती हैं। मंगल के धाम, अमंगल के हरने वाले और श्री दशरथजी के आँगन
में खेलने वाले (बालरूप) श्री रामचन्द्रजी मुझ पर कृपा करें॥2॥
ब्रह्मका
बाप और स्वयं ब्रह्म भी गुरुकुल जाते हैं।
भगवान
रामने गुरुकुलसे नव प्रकारकी भक्ति पायी।
भगवान
राम स्वयं मुनिके बीच बैठकर सेवा करते हैं, भगवान राम निज वैष्णवोकी कथा सुनते हैं,
भरत नाम के जाप करते हैं, स्वपनेमें भी किसीके दोष नहीं देखते हैं,
सुख
दुःख भी अतिथि हैं, अतिथि वह हैं जो अचानक आ जाय।
संपत्ति
और विपत्ति भी अचानक आती हैं।
सेवक सदन स्वामि आगमनू।
मंगल मूल अमंगल दमनू॥
तदपि उचित जनु बोलि सप्रीती। पठइअ काज नाथ असि नीती॥3॥
यद्यपि सेवक के घर स्वामी का पधारना मंगलों
का मूल और अमंगलों का नाश करने वाला होता है, तथापि हे नाथ! उचित तो यही था कि प्रेमपूर्वक
दास को ही कार्य के लिए बुला भेजते, ऐसी ही नीति है॥3॥
प्रभुता तजि प्रभु कीन्ह सनेहू। भयउ पुनीत आजु यहु गेहू॥
आयसु होइ सो करौं गोसाईं। सेवकु लइह स्वामि
सेवकाईं॥4॥
परन्तु प्रभु
(आप) ने प्रभुता
छोड़कर (स्वयं यहाँ पधारकर) जो स्नेह किया, इससे आज यह घर पवित्र हो गया! हे गोसाईं! (अब) जो आज्ञा हो, मैं वही करूँ। स्वामी की सेवा में ही सेवक का लाभ है॥4॥
सुख
अलग करता हैं, दुःख ईकठ्ठा करता हैं।
हंसगवनि तुम्ह नहिं बन जोगू। सुनि अपजसु मोहि देइहि लोगू॥
मानस सलिल सुधाँ प्रतिपाली।
जिअइ कि लवन पयोधि मराली॥3॥
हे हंसगमनी!
तुम वन के योग्य नहीं हो। तुम्हारे
वन जाने की बात सुनकर लोग मुझे अपयश देंगे
(बुरा कहेंगे)। मानसरोवर
के अमृत के समान जल से पाली हुई हंसिनी
कहीं खारे समुद्र
में जी सकती है॥3॥
यह
रामकी पत्नी भक्ति हैं।
सेवक सठ नृप कृपन कुनारी।
कपटी मित्र सूल सम चारी॥
सखा सोच त्यागहु बल मोरें।
सब बिधि घटब काज मैं तोरें॥5॥
मूर्ख
सेवक, कंजूस राजा, कुलटा स्त्री और कपटी मित्र- ये चारों शूल के समान पीड़ा देने वाले
हैं। हे सखा! मेरे बल पर अब तुम चिंता छोड़ दो। मैं सब प्रकार से तुम्हारे काम आऊँगा
(तुम्हारी सहायता करूँगा)॥5॥
यह
रामकी सखा भक्ति हैं।
राम
प्रजा भक्त भी हैं।
Tuesday, 05/04/2022
शीलवंत
साधु को बारबार प्रणाम करना चाहिये।
ॐ
सत्य हैं और राम नाम भी सत्य हैं, ॐ और राम नाम एक हि हैं, सत्य एक हि होता हैं।
रस
से दूर रहना का मतलब कृष्ण से दूर रहना हैं।
नयन
दोषवाले को सब बुरा दिखता हैं।
राम
पूजासे प्रसन्न नहीं होते लेकिन प्रेम से प्रसन्न होते हैं।
रामहि केवल प्रेमु पिआरा।
निर्दोष
हास्य कुंडलिनी जागृत कर शकता हैं।
स्मृति
प्रीति प्रगट करती हैं।
दादुर धुनि चहु दिसा सुहाई।
बेद पढ़हिं जनु बटु समुदाई॥
नव पल्लव भए बिटप अनेका।
साधक मन जस मिलें बिबेका॥1॥
चारों
दिशाओं में मेंढकों की ध्वनि ऐसी सुहावनी लगती है, मानो विद्यार्थियों के समुदाय वेद
पढ़ रहे हों। अनेकों वृक्षों में नए पत्ते आ गए हैं, जिससे वे ऐसे हरे-भरे एवं सुशोभित
हो गए हैं जैसे साधक का मन विवेक (ज्ञान) प्राप्त होने पर हो जाता है॥1॥
जय
सियाराम में ज का अर्थ जानकी हैं, य यज्ञसे पेदा हुआ राम।
नोकरीमें
पगार मिलता हैं, चाकरी में दक्षिणा देनी पडती हैं।
रामने ब्राह्मण विद्या – विप्र विद्या प्राप्त करी।
भरत
योग विद्या का प्रतीक हैं।
सिय राम प्रेम पियूष पूरन होत जनमु न भरत को।
मुनि मन अगम जम नियम सम दम बिषम ब्रत आचरत को॥
दुख दाह दारिद दंभ दूषन सुजस मिस अपहरत को।
कलिकाल तुलसी से सठन्हि
हठि राम सनमुख करत को॥
श्री सीतारामजी
के प्रेमरूपी अमृत से परिपूर्ण
भरतजी का जन्म यदि न होता, तो मुनियों के मन को भी अगम यम, नियम, शम, दम आदि कठिन व्रतों का आचरण कौन करता? दुःख, संताप, दरिद्रता,
दम्भ आदि दोषों को अपने सुयश के बहाने कौन हरण करता? तथा कलिकाल
में तुलसीदास जैसे शठों को हठपूर्वक कौन श्री रामजी के सम्मुख
करता?
जिसका
जीवन का व्रत सत्य हैं वह साधु हैं, विचार भी सत्य होने चाहिये, जो दिन उपर सदा कृपा
करता हैं।
पूरन काम राम अनुरागी।
तुम्ह सम तात न कोउ बड़भागी।।
संत बिटप सरिता गिरि धरनी। पर हित हेतु सबन्ह कै करनी।।3।।
आप
पूर्णकाम हैं और श्रीरामजीके प्रेमी हैं। हे तात ! आपके समान कोई बड़भागी नहीं है।
संत, वृक्ष, नदी, पर्वत और पृथ्वी-इन सबकी क्रिया पराये हितके लिये ही होती है।।3।।
द्विज द्रोहिहि न सुनाइअ
कबहूँ। सुरपति सरिस होइ नृप जबहूँ।।
राम कथा के तेइ अधिकारी जिन्ह कें सत संगति अति प्यारी।।3।।
ब्राह्मणों
के द्रोही को, यदि वे देवराज (इन्द्र) के समान ऐश्वर्यवान् राजा भी हो, तब भी यह कथा
कभी नहीं सुनानी चाहिये। श्रीरामजीकी कथाके अधिकारी वे ही हैं जिनको सत्संगति अत्यन्त
प्रिय है।।3।।
साधु
के साथ वृक्ष, नदी, पर्वत और पृथ्वी को जोड शकते हैं।
5
Wednesday, 06/04/2022
राम
हमारे सब कुछ हैं।
स्तुति
से प्रीति का जन्म होता हैं …. दयानंद सरस्वती
प्रेम
से परमात्मा का जन्म होता हैं ……….. तुलसी
मृत्यु
समयपर आती हैं।
राम
श्रुतीके सेतु का पालक हैं।
राम
चरित मानस श्रुतिसार हैं।
श्रुति सेतु पालक राम तुम्ह जगदीस माया जानकी।
जो सृजति जगु पालति हरति रुख पाइ कृपानिधान
की॥
जो सहससीसु
अहीसु महिधरु लखनु सचराचर धनी।
सुर काज धरि नरराज तनु चले दलन खल निसिचर अनी॥
हे राम! आप वेद की मर्यादा
के रक्षक जगदीश्वर
हैं और जानकीजी
(आपकी स्वरूप भूता) माया हैं, जो कृपा के भंडार आपका रुख पाकर जगत का सृजन, पालन और संहार करती हैं। जो हजार मस्तक वाले सर्पों
के स्वामी और पृथ्वी को अपने सिर पर धारण करने वाले हैं, वही चराचर के स्वामी शेषजी लक्ष्मण हैं। देवताओं के कार्य के लिए आप राजा का शरीर धारण करके दुष्ट राक्षसों की सेना का नाश करने के लिए चले हैं।
गीतामें
कृष्ण कहते हैं कि मैं सबका बाप हुं।
ससो का समुह हि रास हैं।
आनंद
के जन्म की तिथि नहीं होती हैं।
सूत्र
बिना रस पलपता नहीं हैं, जैसे बिना पानी बीज पलप नहीं शकता हैं।
सदगुर बैद बचन बिस्वासा।
सत्यमें
प्रताप हैं। प्रेम प्रभावी और करुणा प्रसादी हैं।
हमें
दूसरो के सत्य का स्वीकार करना चाहिये।
परबस जीव स्वबस भगवंता।
जीव अनेक एक श्रीकंता।।
मुधा भेद जद्यपि कृत माया।
बिनु हरि जाइ न कोटि उपाया।।4।।
जीव
परतंत्र है, भगवान् स्वतत्र हैं। जीव अनेक हैं, श्रीपति भगवान् एक हैं। यद्यपि माया
का किया हुआ यह भेद असत् है तथापि वह भगवान् के भजन के बिना करोड़ों उपाय करनेपर भी
नहीं जा सकता।।4।।
जौं सब कें रह ग्यान एकरस।
ईस्वर जीवहि भेद कहहु कस।।
माया बस्य जीव अभिमानी।
ईस बस्य माया गुन खानी।।3।।
यदि
जीवों को एकरस (अखण्ड) ज्ञान रहे तो कहिये, फिर ईश्वर और जीवमें भेद ही कैसा ? अभिमानी
जीव मायाके वश है और वह [सत्त्व, रज, तम-इन] तीनों गुणों की खान माया ईश्वर के वशमें
है।।3।।
जीव
सब भूल जाता हैं। शिवको सब कुछ याद रखते हैं लेकिन चार चिज भूल जाते हैं – निज गुण
– अपनी महानता, अपनी महत्ता भूल जाता हैं, दुश्मन ने जो बिगाडा हैं, अहित भूल जाता
हैं, दास के दोष भूल जाता हैं, किसी के उपर कुछ किया हैं वह भूल जाता हैं।
कर्म
नीति अनुसार करना चाहिये, सब कर्म रीत से विधी अनुसार करो, सब कर्म प्रीतिसे करो।
सेवाके
प्रकार तीन हैं, सेव्य और सेवक को पीडा न हो ऐसी सेवा करनी चाहिये।
गंगा
जल औषधि हैं, परमात्मा का नाम भी औषधि हैं।
6
Thursday, 07/04/2022
प्रतिमा
कई चिजोसे बना शकते हैं, लेकिन प्रतिभा का निर्माण गुरुकुल जाने से होती हैं।
जाकी सहज स्वास श्रुति
चारी। सो हरि पढ़ यह कौतुक भारी॥
बिद्या बिनय निपुन गुन
सीला। खेलहिंखेल सकल नृपलीला॥3॥
चारों
वेद जिनके स्वाभाविक श्वास हैं, वे भगवान पढ़ें, यह बड़ा कौतुक (अचरज) है। चारों भाई
विद्या, विनय, गुण और शील में (बड़े) निपुण हैं और सब राजाओं की लीलाओं के ही खेल खेलते
हैं॥3॥
प्रतिभा
निर्माण के लिये विद्या, विनय, क्षीर निर विवेक, गुण शील, कर्म कओशल्य अओर खेलकुद आवश्यक
हैं।
सतसंग
से विनय आता हैं, संतसंग से विवेक आता हैं, संत कृपा से पाप मिटता हैं, विश्वास पेदा
होता हैं।
विद्या
हेतु प्रवेश, सेवा हेतु
हर
काम निष्ठा से करना चाहिये।
मन
हैं तो शोक, मोह हैं।
अध्यात्मक
के लिये नैतिकता, कानुन भी तोडना चाहिये।
लग्न
करने के लिये सास, ससरा, साला, साली, साढुभाई से बचना चाहिये।
बिनय सील करुना गुन सागर।
जयति बचन रचना अति नागर॥
सेवक सुखद सुभग सब अंगा।
जय सरीर छबि कोटि अनंगा॥2॥
हे
विनय, शील, कृपा आदि गुणों के समुद्र और वचनों की रचना में अत्यन्त चतुर! आपकी जय हो।
हे सेवकों को सुख देने वाले, सब अंगों से सुंदर और शरीर में करोड़ों कामदेवों की छबि
धारण करने वाले! आपकी जय हो॥2॥
कथा
रस प्रदान होनी चाहिये।
केवल
गुणातित साधु हि साहस करके मूल बात कहेगा।
हमें
देह सेवा, अति भोग नहीं लेकिन सम्यकता सह देह सेवा- देह का पालन पोषण, सात्विक आहार
लेना चाहिये, देव सेवा, दूसरो के देवकी ईर्षा न करो, देश सेवा, दिल कि सेवा – अपने
अंतःकरणको सुनो, दीन पिडित की सेवा करनी चाहिये।
अपने
स्वरुपका बोध हो ऐसी कामना रखो।
स्वस्वरुप
अनुसंधान भक्ति हैं … विवेकचुडामणि
कथा
हि स्वर्ग हैं।
7
Friday, 08/04/2022
मानस
में ५ गीता हैं, मानस का आरंभ हि गीता से हुआ हैं। पहला प्रकरण हि गुरु गीता हैं, जब
किसीको विशाद होता हैं तब गीता आती हैं, बिमार आदमी विशादमें हि होता हैं।
गुरु पद रज मृदु मंजुल
अंजन। नयन अमिअ दृग दोष बिभंजन॥
तेहिं करि बिमल बिबेक बिलोचन।
बरनउँ राम चरित भव मोचन॥1॥
श्री
गुरु महाराज के चरणों की रज कोमल और सुंदर नयनामृत अंजन है, जो नेत्रों के दोषों का
नाश करने वाला है। उस अंजन से विवेक रूपी नेत्रों को निर्मल करके मैं संसाररूपी बंधन
से छुड़ाने वाले श्री रामचरित्र का वर्णन करता हूँ॥1॥
गुह
का विशाद दूर करना दूसरी गीता हैं। लक्ष्मण विशाद
तीसरी
गीता अरण्यकांडमें हैं। सुरपंखा विशाद हैं। भगवान राम लक्ष्मणको गीता सुनाते हैं जो
राम गीता हैं।
अनसुया
गीता – जहां अनसुया जानकी को सुनाती हैं।
भुशुडी
गीता पांचवी गीता हैं।
विभीषण
का विशाद छठ्ठी गीता हैं।
सौरज धीरज तेहि रथ चाका।
सत्य सील दृढ़ ध्वजा पताका॥
बल बिबेक दम परहित घोरे।
छमा कृपा समता रजु जोरे॥3॥
शौर्य
और धैर्य उस रथ के पहिए हैं। सत्य और शील (सदाचार) उसकी मजबूत ध्वजा और पताका हैं।
बल, विवेक, दम (इंद्रियों का वश में होना) और परोपकार- ये चार उसके घोड़े हैं, जो क्षमा,
दया और समता रूपी डोरी से रथ में जोड़े हुए हैं॥3॥
बडे
भाग …. सातवी गीता हैं।
ईस भजनु सारथी सुजाना।
बिरति चर्म संतोष कृपाना॥
दान परसु बुधि सक्ति प्रचंडा।
बर बिग्यान कठिन कोदंडा॥4॥
ईश्वर का भजन ही (उस रथ को चलाने वाला) चतुर सारथी
है। वैराग्य ढाल है और संतोष तलवार है। दान फरसा है, बुद्धि प्रचण्ड शक्ति है, श्रेष्ठ
विज्ञान कठिन धनुष है॥4॥
हनुमानजी
सूर्य गुरुकुल में पढे हैं। हनुमानजी में सभी विद्या हैं, सकल गुण निधान हैं।
भरत
योग विद्या के साक्षात स्वरुप हैं। भरत प्रेम योग हैं।
सिय राम प्रेम पियूष पूरन होत जनमु न भरत को।
मुनि मन अगम जम नियम सम दम बिषम ब्रत आचरत को॥
दुख दाह दारिद दंभ दूषन सुजस मिस अपहरत को।
कलिकाल तुलसी से सठन्हि
हठि राम सनमुख करत को॥
श्री सीतारामजी
के प्रेमरूपी अमृत से परिपूर्ण
भरतजी का जन्म यदि न होता, तो मुनियों के मन को भी अगम यम, नियम, शम, दम आदि कठिन व्रतों का आचरण कौन करता? दुःख, संताप, दरिद्रता,
दम्भ आदि दोषों को अपने सुयश के बहाने कौन हरण करता? तथा कलिकाल
में तुलसीदास जैसे शठों को हठपूर्वक कौन श्री रामजी के सम्मुख
करता?
प्रेम
में जो विरह हैं वही परम योग हैं। प्रेम योग हैं।
यम,
नियम, आसन, ब्रह्नचर्य, अहिंसा - यह पांचो
भरत में हैं।
किसी
को ठेस न लगे वह अहिंसा हैं, भरत यही करते हैं।
सुनि रिपुहन
लखि नख सिख खोटी। लगे घसीटन धरि धरि झोंटी॥
भरत दयानिधि दीन्हि
छुड़ाई। कौसल्या पहिं गे दोउ भाई॥4॥
उसकी यह बात सुनकर और उसे नख से शिखा तक दुष्ट जानकर शत्रुघ्नजी झोंटा पकड़-पकड़कर उसे घसीटने लगे। तब दयानिधि
भरतजी ने उसको छुड़ा दिया और दोनों भाई (तुरंत)
कौसल्याजी के पास गए॥4॥
भरतजी
अहिंसा का विषम व्रत यथार्थ करते हैं।
भजन
जैसा सत्य ओर कोई नहीं हैं।
भरत
अस्तेय – चोरी न करना का विषम व्रत निभाते हैं।
भरत
का संयम – ब्रह्मचर्य का पालन करते हैं। अपने बुद्ध पुरुष के पास नियत और संयत रहना
ब्रह्मचर्य हैं। भरतजी गुरु के चरनमें संयत और नियत हैं। भरतने कोई गुरु आज्ञा तोडी
नहीं हैं।
ग्रह ग्रहीत
पुनि बात बस तेहि पुनि बीछी मार।
तेहि पिआइअ बारुनी कहहु काह उपचार॥180॥
जिसे कुग्रह
लगे हों (अथवा जो पिशाचग्रस्त
हो), फिर जो वायुरोग से पीड़ित हो और उसी को फिर बिच्छू डंक मार दे, उसको यदि मदिरा पिलाई जाए, तो कहिए यह कैसा इलाज है!॥180॥
जो
ब्रह्म में रममाण हैं वह ब्रह्मचारी हैं, भरतजी सदा राम जो ब्रह्म हैं उसमें रममाण
हैं।
हरिनाम
सुमिरन बडा स्वाध्याय हैं, भरत निरंतर राम स्मरन करते है।
8
Saturday, 09/04/2022
भारतीय
मूल तत्व जो वैश्विक हैं उसे ओर अधिक घटादार बनाना चाहिये।
निर्धन
शहेरमें शोभा नहीं देता हैं, धनवान वन में शोभा नहीं देता हैं और बाबा बेंकमें शोभा
नहीं देता।
सून बीच दसकंधर देखा। आवा निकट जती कें बेषा॥
जाकें डर सुर असुर डेराहीं।
निसि न नीद दिन अन्न न खाहीं॥4॥
रावण
सूना मौका देखकर यति (संन्यासी) के वेष में श्री सीताजी के समीप आया, जिसके डर से देवता
और दैत्य तक इतना डरते हैं कि रात को नींद नहीं आती और दिन में (भरपेट) अन्न नहीं खाते-॥4॥
सो दससीस स्वान की नाईं। इत उत चितइ चला भड़िहाईं॥
इमि कुपंथ पग देत खगेसा।
रह न तेज तन बुधि बल लेसा॥5॥
वही दस सिर वाला रावण कुत्ते की तरह इधर-उधर ताकता
हुआ भड़िहाई (चोरी) के लिए चला। (काकभुशुण्डिजी
कहते हैं-) हे गरुड़जी! इस प्रकार कुमार्ग पर पैर रखते ही शरीर में तेज तथा बुद्धि
एवं बल का लेश भी नहीं रह जाता॥5॥
रावण
को श्वान कहकर तुलसी रावणका बहुमान करते हैं।
कुत्ता
और साधु जागृत और वफादार प्राणी हैं।
जो
साधु और कुत्ता अगर वफादार नहीं रहता हैं तो उसे खुजली का रोग लगता हैं।
कुत्तेकी
अओर साधु की घाणेन्द्रीय बहुत तेज होती हैं उसकी वजह से दोनो दूसरेको पहचान लेता हैं,
दोनो गुहा में या कुटिया में रहते हैं, कुत्ता और साधु अपनी जबान से निरोगी करता हैं,
कुत्ता और साधु एक रोटी के टुकडा में राजी हो जाते और संग्रह नहीं करते हैं, साधु और
कुत्ता दोनो को गाली/लाठी खाते हैं, दोनो अपना स्वभाद नहीं छोडते हैं।
जीवन
में कोई एक ईष्ठ पसंद कर लो, दूसरे ग्रंथो का अनादर न करो, एक पंथ निश्चित होना चाहिये,
एक संत – बुद्ध पुरुष होना चाहिये, एक कंथ – ईष्ट देव होना चाहिये, एक सूत्र होना चाहिये,
भजन करो और भोजन करावो, जीवन में भटकाव नहीं लेकिन अतकाव होना चाहिये।
नारि बिबस नर सकल गोसाईं। नाचहिं नट मर्कट की नाईं।।
सूद्र द्विजन्ह उपदेसहिं
ग्याना। मेलि जनेऊँ लेहिं कुदाना।।1।।
हे
गोसाईं ! सभी मनुष्य स्त्रियों के विशेष वश में हैं और बाजीगर के बंदर की तरह [उनके
नचाये] नाचते हैं। ब्रह्माणों को शूद्र ज्ञानोपदेश करते हैं और गले में जनेऊ डालकर
कुत्सित दान लेते हैं।।1।।
आसन
का मतलब आस न – जिसको किसी से किसी की प्रकारकी आकांक्षा नहीं हैं, ऐसा आदमी नित्य
संन्यासी हैं।
भरतजी
कुशके आसन उपर बैठते हैं, यह भी एक विषम व्रत हैं।
9
Sunday, 10/04/2022
राम
विश्वरुप हैं, परम ब्र्ह्म हैं, ईश्वर हैं, परमात्मा हैं।
आज
राम चरित मानस का प्रागट्य दिन हैं। राम चरित मानस हमारे हाथ में हैं।
चरित्रवान
की कथा होती हैं।
मंगल करनि कलिमल हरनि तुलसी
कथा रघुनाथ की।
समर्पण
सत्य के पीछे आता हैं, चलता हैं, राम सत्य हैं और लक्ष्मण समर्पण हैं, लक्ष्मण राम
के पीछे चलता हैं।
राम
नाम लेने के साथ राम कार्य जब करेंगे तब हि राम कृपा मिलती हैं, राम का प्रम मिलता
हैं।
मानस
स्वयं गुरुकुल हैं जहां ह्मदय के सात धर्म है, ह्मदय धबकता हैं – ह्मदयमें संवेदना
होनी चाहिये जो दूसरों कई पीडा समज शके और खुद वेदना का अनुभव करे, ह्मदय ऐसा गुरुकुल
हैं जहां संशोधन होता हैं, ह्मदय रक्त को शुद्ध करता हैं, मन, चित, बुद्धि कहीं भी
लग शकता हैं – भटकता हैं, जब कि दिल एक हि जगह रहता हैं, दिलवाला कहीं भटकता नहीं हैं,
ह्मदय संगीतमय होता हैं एक हि रिधम में रहता हैं – गुरुकुल भी रीधममें रहना चाहिये,
साक्षात परमात्मा ऐसे ह्मदयमें बिराजता हैं, ह्मदय आंतरिक गुरुकुल हैं।
ह्मदय
गुरुकुल हैं, व्यक्ति के ह्मदय में स्पंदन होना चाहिये, जडता नहीं होनी चाहिये।
No comments:
Post a Comment