આજે
3 જુલાઈ, ૨0૨૩ સોમવાર, સંવત ૨0૭૯ ના અષાઢ
મહિનાની પૂર્ણિમા છે. જેને ગુરુ પૂર્ણિમા કહે છે.
આજના ગુરુ પૂર્ણિમાના મહોત્સવ
નિમિત્તે હું મારા ગુરુજી
પૂજ્ય બ્રહ્માનંદપુરીજી મહારાજના ચરણોમાં સત્
સત્ વંદન કરું છું.
શંકરમ્
શંકરાચાર્યમ્ કેશવમ્ બાદરાયણમ્
સૂત્રભાષ્યકૃતૌ
વંદે ભગવન્તૌ પુનઃ પુનઃ
કૃતે વિશ્વગુરુર્બ્રહ્મા ત્રેતાયાં ઋષિસતમઃ
દ્વાપરે
વ્યાસ એવ સ્યાત કલાવત્ર
ભવામ્યહમ્
गुरुर्ब्रह्मा
गुरुर्विष्णुः गुरुर्देवो महेश्वररः ।
गुरु साक्षात् परब्रह्म तस्मै
श्रीगुरुवे नमः ॥
ગુરુર્બ્રહ્મા
ગુરુર્વિષ્ણુ ગુરુદેવો મહેશ્વર : |
ગુરુ સાક્ષાત્ પરં બ્રહ્મ
તસ્મૈ શ્રીગુરુવે નમ : ||
ગુરુ પરંપરા
નારાયણમ
પદ્મભુવં વસિષ્ઠં શક્તિં ચ
તત્પુત્ર પરાશરં ચ
વ્યાસં શુકં ગૌડપદં
મહાન્તં ગોવિન્દ યોગીન્દ્રમથાસ્ય શિષ્યં ll
શ્રી શંકરાચાર્યમથાસ્ય પદ્મપાદં ચ હસ્તામલકં
ચ શિષ્યં
તં તોટકં વાર્તિકકારમન્યાનસ્મદ્રરૂન્ સંતતમાનતોસ્મિ
ll
સદાશિવ સમારમ્ભાં શંકરાચાર્ય મધ્યમાં l
અસ્મદાચાર્યં
પર્યન્તાં વન્દે ગુરૂપરંપરામ્
ll
આદિ શંકરાચાર્ય સંન્યાસ ધર્મ અને ગુરુ પરંપરાના અગિયારમા અધિષ્ઠાતા છે.
સત્યુગમાં (૧) નારાયણ, (૨) બ્રહ્મા, (૩) રુદ્ર
ત્રેતાયુગમાં (૪) વશિષ્ટ (૫) શક્તિ (૬) પારાશર
દ્વાપરયુગમાં (૭) વેદ વ્યાસ (૮) શુકદેવ
કળિયુગમાં (૯) ગૌડપાદ (૧૦) ગોવિંદપાદ (૧૧) શંકરાચાર્ય
આ તારીખે મહર્ષિ વેદ વ્યાસનો જન્મ થયો હતો. આ તહેવાર ગુરુને સમર્પિત છે. આ દિવસે ગુરુ પૂજાનું મહ્ત્વ
છે, ગુરુ પૂજા મહોત્સવ છે. શાસ્ત્રોમાં ભગવાન કરતાં ગુરુને વધુ મહત્વ આપવામાં આવ્યું છે. ગુરુ છે જે
આપણને ધર્મ અને અધર્મ વચ્ચેનો તફાવત જણાવે છે. જીવનમાં આગળ વધવાનો માર્ગ બતાવે છે.
શિષ્યની
ભાવના સમર્પણની છે. ગુરુની નિષ્ઠા નિ:સ્પૃહતાની છે. અહીં ગુરુત્વ અને શિષ્યત્વ બંનેનું
સાર્થકય છે. ગુરુપૂર્ણિમાને વ્યાસપૂર્ણિમા પણ કહેવામાં આવે છે. ‘વ્યાસ વિશાલબુદ્ધે’
જેની બુદ્ધિ વિશાળ છે, તે વ્યાસ, તે ગુરુ. શ્રી સદગુરૂના સ્વરૂપનું વર્ણન કરતાં ગુરુ
ગીતા કહે છે,
ब्रह्मानंदम परम सुखदम,
केवलम् ज्ञानमूर्तीम्, द्वंदातीतम् गगन सदृशं, तत्वमस्यादि लक्षम ।
एकं नित्यं विमल मचलं,
सर्वाधी साक्षीभुतम, भावातीतं त्रिगुण रहितम्, सदगुरु तं नमामी ॥
ब्रह्मा
के आनंदरुप परम् सुखरुप, ज्ञानमूर्ति, द्वंदा से परे, आकाश जैसे निर्लेप, और सूक्ष्म
"तत्त्वमसि" इस ईशतत्त्व की अनुभूति हि जिसका लक्ष्य है; अद्वितीय, नित्य
विमल, अचल, भावातीत, और त्रिगुणरहित - ऐसे सद्गुरु को मैं प्रणाम करता हूँ ।
જે
મહાપુરુષના જીવનનો આનંદ બ્રહ્મચિંતન જ છે અને જે કેવળ માત્ર પરબ્રહ્ન પરમાત્માના જ્ઞાનનું
સ્વરૂપ છે અને તે સ્વરૂપાનુસંધાનમાં જ પરમ સુખની અનુભૂતિ કરે છે અથવા તો જેને હું,
તું, મારું, તારું, ઊંચ-નીચના ભેદ નથી, જેમનો પ્રેમ, જેમનું વાત્સલ્ય, જેમની કરુણા
ગગન સમાન આકાશવત્ વિસ્તરેલી છે અને જેમના જીવનનું એકમાત્ર લક્ષ્ય ‘તત્ ત્વમ્ અસિ’ હું
તો બ્રહ્ન જ છું જ ‘અહં બ્રહ્નાસ્મિ’ પરંતુ તે તત્વ તું પણ છે. જે એક માત્ર શિષ્યને
પણ બ્રહ્નજ્ઞાન થાય તેવી આકાંક્ષા રાખે છે, તે ગુરુ છે. ગુરુને આવાગમન નથી. ગુરુને
જન્મ-મૃત્યુનાં બંધન નથી. તેમનું જીવન નિર્મળ અચળ, શાશ્વત અને ચિરંતન છે અને જે ગુરુદેવ
આધિ, વ્યાધિ, ઉપાધિ કે મળ, વિક્ષેપ અને આવરણ તથા સત્વ, રજ, તમથી પૃથક્ નિત્ય સત્ય,
શુદ્ધ, બુદ્ધ છે તે ગુરુ છે, તેમને અમારા પ્રણામ હો.
પરમતત્વ
આપણને દેહ આપે છે, દેહનો ધર્મ આપે છે, સાથે
પાપ-પુણ્ય, કર્મ ભોગ, બંધન પણ આપ્યા. પરંતુ ગુરુએ આપણને આ દેહના આવાગમન અને કર્મ ભોગ
બંધન તથા પાપપુણ્યથી મુક્તિ અપાવી તેથી હું ઇશ્વરને તો છોડી શકું પરંતુ ગુરુને કેમ
છોડાય?’ પૂર્ણિમાના ચંદ્રનો પ્રકાશ સૂર્ય થકી છે. શિષ્યના જીવનની ધન્યતા ગુરુકૃપા થકી
છે. આ સમગ્ર સમર્પણની શિષ્યની ભાવનામાં જ ગુરુકૃપાનું અમૃતમય અનુસંધાન પામી શકાય છે.
બાકી ગુરુ વગરનું શિષ્યનું જીવન એકડા વગરના મીંડા જેવું છે.
ગુરુ
પર્વના આ પાવન પ્રસંગે અહીં પૂજ્ય મોરારી બાપુના પ્રેમ સભાના સંવાદના શ્રવણ દરમ્યાન
મારી સમજમાં આવેલ કેટલાક સૂત્રો પ્રસ્તુત છે. અને તેનો શ્રેય પૂજ્ય મોરારી બાપુને સમર્પિત
છે.
માનસ
શંકર – ૯૦૯ લાઠી
ગુરુ
પોતે જ એક ગ્રંથ છે.
ગુરુનો
સ્વાધ્યાય એટલે આપણી તેના પ્રત્યેની નિષ્ઠા ન બદલવી, એક જ જગાએ પૂર્ણતઃ નિષ્ઠા રાખવી.
ગુરુની
સ્મૃતિમાં સતત રહેવું એ ગુરુ સ્વાધ્યાય છે.
ગુરુ
તેની સુરતામાં પોતાના આશ્રિતને રાખે એ ગુરુ સ્વાધ્યાય છે.
ગુરુએ
આપણને કહેલ વચન સદા યાદ રાખવું એ ગુરુ સ્વાધ્યાય છે.
પોતાના
બુદ્ધ પુરુષ પાસે ખોટું ન બોલવું એ ગુરુ સ્વાધ્યાય છે.
સાચો
ગુરુ કદી ખોટું ન લગાડે.
માનસ
તતઃ કિમ્ - નાથદ્વારા
जे गुर चरन रेनु सिर धरहीं।
ते जनु सकल बिभव बस करहीं॥
मोहि सम यहु अनुभयउ न दूजें।
सबु पायउँ रज पावनि पूजें॥3॥
जो
लोग गुरु के चरणों की रज को मस्तक पर धारण करते हैं, वे मानो समस्त ऐश्वर्य को अपने
वश में कर लेते हैं। इसका अनुभव मेरे समान दूसरे किसी ने नहीं किया। आपकी पवित्र चरण
रज की पूजा करके मैंने सब कुछ पा लिया॥3॥
ब्रह्मानन्दं परमसुखदं
केवलं ज्ञानमूर्तिं
द्वन्द्वातीतं गगनसदृशं
तत्त्वमस्यादिलक्ष्यम् ।
एकं नित्यं विमलमचलं सर्वधीसाक्षिभूतं
भावातीतं त्रिगुणरहितं
सद्गुरूं तं नमामि ।।
ब्रह्मानन्दं
– जो ब्रह्मानन्द स्वरूप हैं, परमसुखदं – परम सुख देने वाले हैं, केवलं ज्ञानमूर्तिं
– जो केवल ज्ञानस्वरूप हैं,
द्वन्द्वातीतं
– (सुख-दुःख, शीत-उष्ण आदि) द्वंद्वों से रहित हैं, गगनसदृशं – आकाश के समान सूक्ष्म
और सर्वव्यापक हैं,
तत्त्वमस्यादिलक्ष्यम्
– तत्त्वमसि आदि महावाक्यों के लक्ष्यार्थ हैं, ऐसे श्री सद्गुरूदेव को मैं नमस्कार
करता हूँ ।
जो
ब्रह्मानंद गुरु हैं वह परम सुख देता हैं।
सदगुरु
साक्षात केवल ज्ञान मूर्ति हैं।
गुरु
केवल प्रेम मूर्ति हैं।
गुरु
समस्त दंद से पर हैं।
गुरु
गगन की तरफ अलिप्त रहता हैं, आकाश को गरमी, ठंडी, बारिष का कोई असर नहीं होती हैं।
गुरु
का लक्ष्य हैं कि तुं भी ब्रह्म हैं मैं भी ब्रह्म हुं।
गुरु
एकम सत सोचता हैं, गुरु/राम अद्वितीय हैं, शास्वत हैं, निर्मल हैं, सबका साक्षी हैं,
उसकी बुद्धि व्यभिचारिणी नहीं हैं, सब भावसे मुक्त हैं, सबसे पर हैं, तीनो गुणो से
पर हैं।
अगर
निष्ठा हैं तो गुरु रज आश्रित के साथ साथ चलती हैं, गुरु रज हमारा ध्यान रखती हैं।
गुरु
की चरन रज सब वैभव हमारे वश में कर देती हैं और यही चरन रज एक संतोष का अनुभव भी कराती
हैं, एक डकार आता हैं।
बंदऊँ गुरु पद पदुम परागा।
सुरुचि सुबास सरस अनुरागा॥
अमिअ मूरिमय चूरन चारू।
समन सकल भव रुज परिवारू॥1॥
मैं
गुरु महाराज के चरण कमलों की रज की वन्दना करता हूँ, जो सुरुचि (सुंदर स्वाद), सुगंध
तथा अनुराग रूपी रस से पूर्ण है। वह अमर मूल (संजीवनी जड़ी) का सुंदर चूर्ण है, जो
सम्पूर्ण भव रोगों के परिवार को नाश करने वाला है॥1॥
गुरु
पारस हैं जो लोहे को कांचन कर देता हैं यह स्पर्श दीक्षा हैं।
दीपक
गुरु जो दूसरों को बुझी हुई चेतना को प्रकाशित करता हैं। यह दीपक दीक्षा – दीप दीक्षा
कहते हैं। यह ज्योत से ज्योत जलाना हैं।
गुरु
हमारे घर का दीवडा हैं।
श्रीमद् आद्य शंकराचार्यविरचितम्
गुर्वष्टकम्
शरीरं सुरुपं तथा वा कलत्रं
यशश्चारू चित्रं धनं मेरुतुल्यम्।
मनश्चेन्न लग्नं गुरोरंघ्रिपद्मे
ततः किं ततः किं ततः किं
ततः किम् ।। 1 ।।
यदि
शरीर रुपवान हो, पत्नी भी रूपसी हो और सत्कीर्ति चारों दिशाओं में विस्तरित हो, मेरु
पर्वत के तुल्य अपार धन हो, किंतु गुरु के श्रीचरणों में यदि मन आसक्त न हो तो इन सारी
उपलब्धियों से क्या लाभ ।
गुरु
कायम वर्तमान होता हैं और हमें आवाज देता रहता हैं।
गुरु
समान ब्रह्म, विष्णु, शिव भी नहीं हैं, गुरु से महान कोई तत्व नहीं हैं।
जहां
गुरु रहता हैं वह स्थान काशी और सब तीर्थ हैं, गुरु अक्षय वट हैं जो शिष्य का हर समय
सहारा बन कर रहता हैं।
गुरु
चरन का जल हि हमारे लिये गंगा हैं।
गुरु
का विग्रह हमारा ईष्ट हैं।
बंदऊँ गुरु पद पदुम परागा।
सुरुचि सुबास सरस अनुरागा॥
अमिअ मूरिमय चूरन चारू।
समन सकल भव रुज परिवारू॥1॥
मैं
गुरु महाराज के चरण कमलों की रज की वन्दना करता हूँ, जो सुरुचि (सुंदर स्वाद), सुगंध
तथा अनुराग रूपी रस से पूर्ण है। वह अमर मूल (संजीवनी जड़ी) का सुंदर चूर्ण है, जो
सम्पूर्ण भव रोगों के परिवार को नाश करने वाला है॥1॥
गुरु पद रज मृदु मंजुल
अंजन। नयन अमिअ दृग दोष बिभंजन॥
तेहिं करि बिमल बिबेक बिलोचन।
बरनउँ राम चरित भव मोचन॥1॥
श्री
गुरु महाराज के चरणों की रज कोमल और सुंदर नयनामृत अंजन है, जो नेत्रों के दोषों का
नाश करने वाला है। उस अंजन से विवेक रूपी नेत्रों को निर्मल करके मैं संसाररूपी बंधन
से छुड़ाने वाले श्री रामचरित्र का वर्णन करता हूँ॥1॥
शिष्य
में कुटिलता – वक्रता, दोष और कलंक हो शकता हैं, चंद्र में यह सभी दोष हैं। ऐसा शिष्य
जब सही गुरु के शरण जाता हैं तब यह सब दोष मिट जाते हैं। चंद्र शिव के भाल में जब जाता
हैं तब पूजनीय बन जाता हैं।
गुरु
अखंडमंडलाकारम् होता हैं।
गुरु
स्त्री लंपट नहीं होता हैं लेकिन गुरु स्त्री को नारायणी का रुप देता हैं, मातृ शरीर
को आदर देता हैं।
गुरु
क्षमा मूर्ति होता हैं। गुरु किसी के साथ वाद विवाद नहीं करता हैं।
गुरु
चरन रज पाने से ग्लानि और विशाद समाप्त हो जाते हैं।
गुरु
चरन का आश्रय हमारा भव रोग मिटाती हैं, हमारा विवेक बढाता, हमारी असंगता बढाती हैं,
सभी विद्या प्राप्त कराता हैं, हमें विचार शुन्य बनाता हैं, यह सभ वैभव हैं जो गुरु
चरन रज के आश्रयसे मिलता हैं।
गुरु
सबसे पहले संदेश देता हैं और जब हमारी क्षमता आ जाये – अधिकारी बन जाय तब आदेश देता
हैं, गुरु लिख कर या अपने चरित्र से संदेश देता हैं।
उपदेश
गुरु मुख से और वेद मुख से दिया जाता हैं। गुरु मुख से जो नीकलता हैं वह शास्त्र संमंत
होता हैं और अगर ऐसा न हो तो शास्त्र को उस से संमंत होना पडता हैं।
गुरु
के आदेश की दो पद्धति हैं – गुरु हमारे परम हित के लिये कभी कभी कडा आदेश देता हैं
और गुरु अपने आश्रित के प्रति परम प्रेम वश आदेश देता हैं।
गुरु
शास्त्रमय होते हुए कभी भी कोई संदेश नहीं देता हैं, ऐसे समय में गुरु मौन आख्यान देता
हैं।
यह
सब गुरु महिमा हैं।
गुरु
हमें स्वतंत्र रखता हैं, सब कुछ कहने के बाद कहता हैं अब जो तुम्हे करना हैं वह करो।
गुरु
जब आंखे बंध करता हैं तव वह परमात्मा के समक्ष हैं और जब आंखे खुले तब परमात्मा गुरु
के समक्ष रहता हैं।
शंकर
रुठे तो गुरु बचाता हैं लेकिन अगर गुरु रुठता हैं तो कोई भी नहीं बचा शकता।
માનસ
કર્ણપ્રયાગ - 919
गुरु पूर्णिमा त्रिभुवनीय दिन हैं।
तुम्ह त्रिभुवन
गुर बेद बखाना। आन जीव पाँवर का जाना॥
हमारा शरीर पंच तत्व से बना हैम और गुरु
का शरीर भी पंच तत्व से बना हैं, लेकिन गुरु के पंच तत्व का गुणधर्म अलग हैं।
तारा
बिकल देखि रघुराया। दीन्ह ग्यान हरि लीन्ही माया॥
छिति
जल पावक गगन समीरा। पंच रचित अति अधम सरीरा॥2॥
तारा को व्याकुल देखकर श्री रघुनाथजी ने
उसे ज्ञान दिया और उसकी माया (अज्ञान) हर ली। (उन्होंने कहा-) पृथ्वी, जल, अग्नि,
आकाश और वायु- इन पाँच तत्वों से यह अत्यंत अधम शरीर रचा गया है॥2॥
पृथ्वी तत्व में कभी भूकंप आता हैं, कभि
लावारस भी नीकलता हैं।
लेकिन गुरु परम तत्व हैं जिसमें कभी भी
भूकंप नहीं आता हैं, और कभी भी लावा नहीं नीकलेगा। गुरु जैसा धैर्यवान और सहनशील
ओर कोई हैं हि नहीं।
गुरु का जल तत्व उसके अंतःकरण का
जल हैं जो निर्मल हैं। गुरु जगत के लिये परिश्रम करता हैं।
गुरु कृपा सिंधु, करुणा सिंधु, बहती
गंगा, चलता फिरता तिर्थ हैं। गुरु विरडो हैं।
गुरु का अग्नि तत्व उसका ज्ञानाग्नि हैं
जिसमें आश्रित के सब कर्म भस्म हो जाते हैं। गुरु का अग्नि तत्व विरह की अग्नि
हैं। यह आअग हमारे लिये शीतल हैं।
वायु मंद, शीतल, सुगंधित होता हैं।
गुरु का वायु तत्व आश्रित की पात्रता
अनुसार मंद, मध्यम, तेज चलता हैं।
आश्रित गुरु का सानिध्य गुरु से दूर
रहकर भी महसुस करता हैं, और यह सानिध्य एक शांति प्रदान करता हैं।
गुरु शीतलता का रिमोट अपने पास रखता
हैं।
गुरु की नुरानी खूश्बु होति हैं, जो
DIVINE SMELL हैं।
आकाश तत्व – घटाकाश, मठाकाश
गुरु के पास चिदाकाश होता हैं जो सब को
समाविष्ठ करता हैं।
निराकारमोंकारमूलं
तुरीयं गिरा ज्ञान गोतीतमीशं गिरीशम् ।
करालं
महाकाल कालं कृपालं गुणागार संसारपारं नतोऽहम् ॥
नमामीशमीशान
निर्वाणरूपं विभुं व्यापकं ब्रह्मवेदस्वरूपम् ।
महेशान्नापरो
देवो महिम्नो नापरा स्तुतिः
अघोरान्नापरो
मन्त्रो नास्ति
तत्त्वं गुरोः परम्
महेश से श्रेष्ठ कोई देव नहीं, महिम्न
स्तोत्र से श्रेष्ठ कोई स्तोत्र नहीं, ॐ से बढकर कोई मंत्र नहीं तथा गुरु से उपर
कोई सत्य नहीं।
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