રામ કથા - 922
માનસ સંન્યાસ
કાઠમંડુ, નેપાલ
શનિવાર, તારીખ 26/08/2023
થી રવિવાર, તારીખ 03/09/2023
કેન્દ્રીય વિચાર પંક્તિ
कहुँ कहुँ सरिता तीर उदासी।
बसहिं ग्यान रत मुनि सन्यासी।।
साधक सिद्ध बिमुक्त उदासी।
कबि कोबिद कृतग्य संन्यासी।।
1
Saturday,
26/08/2023
कहुँ कहुँ सरिता तीर उदासी। बसहिं ग्यान रत मुनि सन्यासी।।
तीर तीर तुलसिका सुहाई।
बृंद बृंद बहु मुनिन्ह लगाई।।3।।
नदी
के किनारे कहीं कहीं विरक्त और ज्ञानपरायण मुनि और संन्यासी निवास करते हैं। सरयूजीके
किनारे-किनारे सुंदर तुलसी के झुंड-के-झुंड बहुत से पेड़ मुनियों ने लगा रक्खे हैं।।3।।
साधक सिद्ध बिमुक्त उदासी। कबि कोबिद कृतग्य संन्यासी।।
जोगी सूर सुतापस ग्यानी।
धर्म निरत पंडित बिग्यानी।।3।।
साधक,
सिद्ध, जीवन्मुक्त, उदासीन (विरक्त), कवि, विद्वान्, कर्म [रहस्य] के ज्ञाता, संन्यासी,
योगी, शूरवीर, बड़े तपस्वी, ज्ञानी, धर्मपरायण, पण्डित और विज्ञानी-।।3।।
प्रेम
और ध्यान सहज हि हो जाता हैं, करना नहिं पडता हैं।
1.
ब्रह्म
की स्थापना
2.
राम
सीता
3.
ज्ञान
योग, कर्म योग, भक्ति योग
4.
राम
कथा के संवाद जो चार जगह हैं।
5.
मानस
में पांच चरित्र
6.
छह
शास्त्र, छह दर्शन
7.
मानस
के सात सोपान
8.
अष्ट
सिद्धि, अष्टांग योग
9.
नवधा
भक्ति, नव प्रकार की भक्ति
10. दशरथ और दशानन
11. ११ वा रुद्र हनुमान
12. द्वादश ज्योतिर्लिंग
13. पांच ज्ञानेद्रीय, पांच कर्मेन्द्रीय
और मन, बुद्धि, चित
14. राम के रहने के १४ स्थान
15. पंदरह द्रष्टिकोण
भारतीय
शास्त्र परम सत्ता हैं।
सौदर्य
मंथन – सौदर्य के पुजारी बनना चाहिये, शिकारी नहीं
प्रेम
के अमॄत का ,मंथन
कथा का मंथन
शिष्य
गुरु का मंथन करता हैं।
2
Sunday, 27/08/2023
भूख
रोग हैं और अन्न उसकी औषधि हैं।
बुद्ध
पुरुष अपने आश्रित को ढुंढता हैं।
हमारी
प्रसन्ता हमारे बुद्ध पुरुष की कोमल कृपा के कारण आती हैं।
सब
से श्रेष्ठ दीक्षा प्रेम दीक्षा हैं।
प्रेम
के बिना का ज्ञान अधुरा ज्ञान हैं।
मानसिक
रोग से मुक्त होने के लिये तुलसी आठ औषधि बताते हैं।
नेम धर्म आचार तप ग्यान
जग्य जप दान।।
भेषज पुनि कोटिन्ह नहिं
रोग जाहिं हरिजान।।121ख।।
निमय,
धर्म, आचार (उत्तम आचरण), तप, ज्ञान, यज्ञ, जप, दान तथा और भी करोड़ों ओषधियाँ हैं,
परंतु हे गरुड़जी ! उनसे ये रोग नहीं जाते।।121(ख)।।
राम कृपाँ नासहिं सब रोगा।
जौं एहि भाँति बनै संजोगा।।
सदगुर बैद बचन बिस्वासा।
संजम यह न बिषय कै आसा।।3।।
यदि
श्रीरामजीकी कृपा से इस प्रकार का संयोग बन जाये तो ये सब रोग नष्ट हो जायँ।सद्गुरुरूपी
वैद्य के वचनमें विश्वास हो। विषयों की आशा न करे, यही संयम (परहेज) हो।।3।।
1.
नियम
2.
धर्म
3.
आचरण
4.
तप
5.
ज्ञान
6.
यज्ञ
7.
दान
8.
जप
रघुपति भगति सजीवन मूरी।
अनूपान श्रद्धा मति पूरी।।
एहि बिधि भलेहिं सो रोग
नासाहीं। नाहिं त जतन कोटि नहिं जाहीं।।4।।
श्रीरघुनाथजी
की भक्ति संजीवनी जड़ी है। श्रद्धा से पूर्ण बुद्धि ही अनुपान (दवाके साथ लिया जाने
वाला मधु आदि) है। इस प्रकार का संयोग हो तो वे रोग भले ही नष्ट हो जायँ, नहीं तो करोड़ों
प्रयत्नों से भी नहीं जाते।।4।।
निदान
निंदा नही हैं।
निदान
से दोनो तंदुरस्त हो जाते हैं।
भरोंसा
करने के बाद विचार शुन्य होना चाहिये।
प्रश्न
लेकर मत आओ, पिपासा लेकर आना चाहिये।
संन्यासी
मौन रहता हैं।
जिसमें
मुनि का मौन और ॠषि का ज्ञान आये ऐसा साधक संन्यासी हैं
सावधान
रहकर कल्याणकारी धर्म में रहे वह साधक हैं।
साधक
में सा का अर्थ सावधान हैं, ध का अर्थ धर्म हैं और क का अर्थ कल्याण हैं।
जो
साधक हैं वह संन्यासी हैं।
साधक
मुस्कहारट सहित मौन रहता हैं।
जो
सिद्ध हैं और उसमें सिद्धि का अहंकार नहीं आता हैं वह साधक हैं। सिद्धिओ से विमुक्तता
का अहंकार भी न आना चाहिये।
कवि
का अर्थ कुछ नया सर्जन करना हैं।
कवि
सर्जनात्मक और क्रमठ होना चाहिये।
कवि
विद्वान होता हैं।
साधक
कभी भी अपने मुल को नहीं भूलता हैं। यह कृतघ्नता
हैं।
रोना
और हसना सहज होना चाहिये।
श्रद्धा
अनुपान हैं।
संन्यासी
के लक्षण
संन्यासी
कही कही मिलता हैं।
साधक
अपनी जुबान बंध रखता हैं और कान खुला रखता हैं।
अपनी
निंदा सुनने के बाद भी जो स्थिर रहता हैं वह साधक हैं।
अपने
बुद्ध पुरुष को कभी भी भूलना नहीं चाहिये।
3
Monday, 28/08/2023
हमारी
मांग निर्मल बुद्धि हैं।
जनकसुता जग जननि जानकी।
अतिसय प्रिय करुनानिधान की॥
ताके जुग पद कमल मनावउँ।
जासु कृपाँ निरमल मति पावउँ॥4॥
राजा
जनक की पुत्री, जगत की माता और करुणा निधान श्री रामचन्द्रजी की प्रियतमा श्री जानकीजी
के दोनों चरण कमलों को मैं मनाता हूँ, जिनकी कृपा से निर्मल बुद्धि पाऊँ॥4॥
दूसरों
की सेवा करना भजन हैं।
समाधि
महिमावंत हैं।
सात
मंथन
१
सौंदर्य
का मंथन
२
कथामृत
का मंथन
३
भरत
के प्रेम का मंथन
४
गुरु
का मंथन – शिष्य अपने गुरु का मंथन करता हैं जिस में अटल (अचल) विश्वास मंदराचल पर्वत
हैं, निष्ठा कस्यप हैं और जिज्ञासा रस्सी हैं। ऐसे मंथन से धर्म का सार नीकलता हैं।
बडा भैया
बाप के समान हैं, अपना पिता बाप हैं और अपना विद्या गुरु भी बाप हैं। यह तीनो बाप का
वर्तन धर्मानुसर होना चाहिये।
५
तुलसीदासजी
ने वेद, पुराण को मथा हैं जिस में से राम नाम का अमृत नीकला हैं।
६
राजदूत
अंगद ने रावण को मथा हैं। दर्शी का अर्थ मंथन होता हैं। रावण के २० समुद्रको अंगद ने
मथा हैं।
७
श्रोता
वक्ता का मंथन करता हैं। याज्ञवल्क मुनि जो अगाध समुद्र हैं उसका मंथन भरद्वाज मुनि
करते हैं।
संन्यास
के प्रकार
१
कुटीचक
संन्यास
२
बहुदक
संन्यास
३
हंस
संन्यास
४
परमहंस
संन्यास
५
तुरीयातित
संन्यास
६
अवधूत
संन्यास
कुटीचक
संन्यासी २~३ जोडी कपडे रखता हैं। ऐसे संन्यासी केवल श्रवण हि करते हैं। ऐसे संन्यासी
गृहस्थ होते हैं।
LIVING WITH LESS
ऐसे
संन्यासी २४ घंटो में सिर्फ एकबार हि भोजन करते हैं।
बहुदक
संन्यासी – ऐसे संन्यासी गाय दोहन के समय में जितनी भिक्षा मिलती हैं उतनी हि भिक्षा
लेते हैं।
ऐसे
संन्यासी एक हि चादर रखता हैं और एक हि चादर के अलग अलग उपयोग करता हैं।
ऐसे
संन्यासी श्रवण नहीं करता हैं लेकिन सिर्फ मनन करता हैं।
हंस
संन्यासी – ऐसे संन्यासी चादर नहीं रखते हैं लेकिन लोक मर्यादा के लिये एक छोटा कपडा
रखते हैं। कभी कभी मृग चर्म से लोक मर्यादा रखते हैं और एक हि घर की भिक्षा लेते हैं।
परमहंस
संन्यासी – जिसका मनन किया हैं उसे प्रयोग करते हैं।
तुरीयाति
संन्यासी दिगंबर रहता हैं, श्रवण मनन नहीं करता हैं।
अवधूत
संन्यासी मुख से हि भिक्षा लेता हैं, उसे खिलाना पडता हैं।
भगवान
शंकर षडांग संन्यासी हैं।
4
Tuesday, 29/08/2023
परम
प्रेम संन्यास हैं।
मानस
में परम प्रेम ८ बार आआ हैं।
मानस
में प्रेमाष्टक हैं।
रस
में डूब जाना संन्यास हैं।
लोचन मग रामहि उर आनी।
दीन्हे पलक कपाट सयानी॥
जब सिय सखिन्ह प्रेमबस
जानी। कहि न सकहिं कछु मन सकुचानी॥4॥
नेत्रों
के रास्ते श्री रामजी को हृदय में लाकर चतुरशिरोमणि जानकीजी ने पलकों के किवाड़ लगा
दिए (अर्थात नेत्र मूँदकर उनका ध्यान करने लगीं)। जब सखियों ने सीताजी को प्रेम के
वश जाना, तब वे मन में सकुचा गईं, कुछ कह नहीं सकती थीं॥4॥
परम प्रेममय मृदु मसि कीन्ही।
चारु चित्त भीतीं लिखि लीन्ही॥
गई भवानी भवन बहोरी। बंदि
चरन बोली कर जोरी॥2॥
तब
परमप्रेम की कोमल स्याही बनाकर उनके स्वरूप को अपने सुंदर चित्त रूपी भित्ति पर चित्रित
कर लिया। सीताजी पुनः भवानीजी के मंदिर में गईं और उनके चरणों की वंदना करके हाथ जोड़कर
बोलीं-॥2॥
गुरु
अपने आश्रित पर आंख और हाथ से, आंख और पांख से काम करता हैं।
किसी
को निर्दोष भाव से देखना परम प्रेम हैं, मानस संन्यास हैं।
सीता चितव स्याम मृदु गाता।
परम प्रेम लोचन न अघाता॥
पंचबटीं बसि श्री रघुनायक।
करत चरित सुर मुनि सुखदायक॥2॥
सीताजी
श्री रामजी के श्याम और कोमल शरीर को परम प्रेम के साथ देख रही हैं, नेत्र अघाते नहीं
हैं। इस प्रकार पंचवटी में बसकर श्री रघुनाथजी देवताओं और मुनियों को सुख देने वाले
चरित्र करने लगे॥2॥
परम
प्रेम सजातीय भी हो शकता हैं।
प्रेम
में अद्वैत नहीं हैं, द्वैत हैं।
मिलनि प्रीति
किमि जाइ बखानी।
कबिकुल अगम करम मन बानी॥
परम प्रेम पूरन दोउ भाई। मन बुधि चित अहमिति बिसराई॥1॥
मिलन की प्रीति कैसे बखानी जाए? वह तो कविकुल के लिए कर्म, मन, वाणी तीनों से अगम है। दोनों भाई (भरतजी और श्री रामजी)
मन, बुद्धि, चित्त और अहंकार
को भुलाकर परम प्रेम से पूर्ण हो रहे हैं॥1॥
5
Wednesday, 30/08/2023
गोपी
अपनी प्रत्येक ईन्द्रीयो से कृष्ण को पिती हैं।
संन्यास
एक सहज परिवर्तन हैं।
हमें
हमारे चारो आश्रम – ब्रह्मचर्याश्रम, गृहस्थाश्रम, वानप्रस्थ और संन्यास – को सहजता
से निभाना चाहिये।
कथा
में और अपने बुद्ध पुरुष के पास श्रद्धा लेकर जाना चाहिये, विश्वास रखना चाहिये और
भरोंसा लेकर घर जाना चाहिये।
रस
परमात्मा हैं।
गुरु
शिष्य में अद्वैत नहीं होना चाहिये।
जाति नीति कुल गोत्र दूरगं
नाम रूप गुण दोष वर्जितम्
|
देश काल विषया तिवर्ति
यद्
ब्रह्म तत्त्वमसि भाव यात्मनि
||२५४||
Vivekachudamani
दूरंग
का अर्थ एक सन्मानीय दूरी हैं।
सत्य
को हर जगह से आवकार मिलेगा।
गुरु
हमें दिक्षा देता हैं, दिशा देता हैं, हमारी रक्षा करता हैं और निर्वाण देता हैं।
संन्यास
परम मृत्यु हैं …….. ऑशो
6
Thursday, 31/08/2023
लछिमन अति लाघवँ सो नाक
कान बिनु कीन्हि।
ताके कर रावन कहँ मनौ चुनौती
दीन्हि॥17॥
लक्ष्मणजी
ने बड़ी फुर्ती से उसको बिना नाक-कान की कर दिया। मानो उसके हाथ रावण को चुनौती दी
हो!॥17॥
आत्म
निवेदन भक्ति की आखरी श्रेणी हैं।
विचार
भेद हो शकते हैं लेकिन विवेक भेद नहीं होना चाहिये।
जो
मार्ग हमें विवेक भ्रष्ट करा दे वह कुमार्ग हैं।
दया, गरीबी, बन्दगी, समता
शील उपकार।
इतने लक्षण साधु के, कहें
कबीर विचार॥
बापु
के पंच शील
1.
सत्य
बोलना लेकिन अप्रिय सत्य न बोलना
2.
राम
का स्मरण करना और सत्य का आचरण करना
3.
रामायण,
गीता का पाठ करना
4.
अहंकार
से बहुत सावधान रहना
5.
कभी
भी किसीकी निंदा और द्वेष न करना
6.
संसार
में मौन रहना और मौन में किसीका अनुसंधान करना
समुद्र मंथन से नीकले रत्न
कल्पवृक्ष – राम कथा स्वयं कल्पतरु हैं।
कामदुर्गा – कामना नष्ट कर देता हैं।
शंख – शंख की आवाज बुद्धत्व करा देती
हैं।
विष
– लोक निंदा विष हैं।
अमृत
– रामनामामृत
वारुणी
(शराब) – प्रेम की सुरा
ऐरावत
हाथी
धन्वंतरी
– हरिनाम की औषधि
लक्ष्मी
– श्री गुरु
चंद्रमा
– गुरु कृपा की शीतल चांदनी
किर्तन
भाव समुद्रका मंथन हैं।
वक्ता
पीठ परायण होना चाहिये।
वक्ता
पोथी परायण होना चाहिये।
वक्ता
प्रेम परायण होना चाहिये।
वक्ता
प्रभु/ईष्ट देव/गुरु परायण होना चाहिये।
वक्ता
परमार्थ पारायण होना चाहिये, स्वार्थ परायण न होना चाहिये।
7
Friday, 01/09/2023
FLOWER
की परिभाषा
F
– FAITH – अखंड श्रद्धा
L
– व्यास पीठ के प्रति LOVE
O
– सब का स्वीकार, ZERO कथा में खालि होकर आना, O BLOOD GROUP
W
- WHOLE HARTED – समग्र समर्पण
E
– हर हालत में ENJOY करना
R
- RAM KATHA में रामनाम का जप करना
8
Saturday, 02/09/2023
प्रनवउँ सोइ कृपाल रघुनाथा।
बरनउँ बिसद तासु गुन गाथा॥
परम रम्य गिरिबरु कैलासू। सदा जहाँ सिव उमा निवासू॥4॥
उन्हीं
कृपालु श्री रघुनाथजी को मैं प्रणाम करता हूँ और उन्हीं के निर्मल गुणों की कथा कहता
हूँ। कैलास पर्वतों में श्रेष्ठ और बहुत ही रमणीय है, जहाँ शिव-पार्वतीजी सदा निवास
करते हैं॥4॥
विश्वास
की परिभाषा
वेदांत,
गुरु, बुद्ध पुरुष के वचन पर द्रढ भरोंसा
वेद
विदित वट कैलास पर हैं।
चित्रकूट
मे भी वट वृक्ष हैं जहां राघव और सीता बैठते हैं।
नीलगिरि
पर्वत पर भी वट वृक्ष हैं जहां काकभुषुडी कथा गान करते हैं।
संन्यास
मृत्यु हैं …………. ऑशो
स्वभाव
समर्पण करेगा और प्रभाव शोषण करेगा।
जब
संबंध बोझ बन जाय तब एक मोड पर – एक समय पर उस संबंध को छोड देना चाहिये।
9
Sunday, 03/09/2023
राम
चरित मानस में सन्यास शब्द भ्रम १२ बार आया हें।
सन्यास
का पतन दुसंग से होता हैं।
मन
को और ह्मदय को मानस कहते हैं।
मनुष्य
को भी मानस कहते हैं।
सन्यासी
को अपने कान को समुद्र बनाना चाहिये।
संन्यासी
सब में हरि दर्शन करता हैं।
आदि
शंकराचार्य भगवान का कौपीन पंचकम
वेदान्तवाक्येषु सदा रमन्तो
भिक्षान्नमात्रेण च तुष्टिमन्तः
।
विशोकमन्तःकरणे चरन्तः
कौपीनवन्तः खलु भाग्यवन्तः
॥
One
Who is reveling in the thoughts of vedantic declarations, who is completely
satisfied with the food benefited as alms, who moves around with a mind devoid
of any trace of afflictions or sorrow, such One who wears only the kaupeena (
the loin cloth).
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