રામ કથા – 921
માનસ વિશ્વ વિદ્યાલય
University of
Cambridge, United Kingdom
શનિવાર, તારીખ
12/08/2023 થી રવિવાર તારીખ 20/08/2023
મુખ્ય પંક્તિ
बिस्वनाथ मम नाथ पुरारी।
त्रिभुवन महिमा बिदित तुम्हारी॥
भगत बछल प्रभु कृपानिधाना।
बिस्वबास प्रगटे भगवाना॥
1
Saturday, 12/08/2023
बिस्वनाथ मम नाथ पुरारी। त्रिभुवन महिमा बिदित तुम्हारी॥
चर अरु अचर नाग नर देवा।
सकल करहिं पद पंकज सेवा॥4॥
(पार्वतीजी
ने कहा-) हे संसार के स्वामी! हे मेरे नाथ! हे त्रिपुरासुर का वध करने वाले! आपकी महिमा
तीनों लोकों में विख्यात है। चर, अचर, नाग, मनुष्य और देवता सभी आपके चरण कमलों की
सेवा करते हैं॥4॥
दंपति बचन परम प्रिय लागे।
मृदुल बिनीत प्रेम रस पागे॥
भगत बछल प्रभु कृपानिधाना। बिस्वबास प्रगटे भगवाना॥4॥
राजा-रानी
के कोमल, विनययुक्त और प्रेमरस में पगे हुए वचन भगवान को बहुत ही प्रिय लगे। भक्तवत्सल,
कृपानिधान, सम्पूर्ण विश्व के निवास स्थान (या समस्त विश्व में व्यापक), सर्वसमर्थ
भगवान प्रकट हो गए॥4॥
राम
चरित मानस स्वयं विश्व विद्यालय हैं, चलती फिरती जंगम विश्व विद्यालय हैं।
मानस
के सात कांड हैं और हरेक कांड में एक एक कुलपति बैठा हैं।
गोस्वामी
तुलसीदासजी कुलपति हैं।
एक घड़ी आधी घड़ी ,आधी की
पुनि आध ,
तुलसी संगत साधु की ,काटे कोटि अपराध।
सो धन धन्य प्रथम गति जाकी।
धन्य पुन्य रत मति सोइ पाकी।।
धन्य घरी सोइ जब सतसंगा। धन्य जन्म द्विज भगति अभंगा।।4।।
वह
धन धन्य है जिसकी पहली गति होती है (जो दान देनेमें व्यय होता है।) वही बुद्धि धन्य
और परिपक्य है जो पुण्य में लगी हुई है। वही घड़ी धन्य है जब सत्संग हो और वही जन्म
धन्य है जिसमें ब्राह्मणकी अखण्ड भक्ति हो।।4।। [धनकी तीन गतियाँ होती है-दान भोग और
नाश। दान उत्तम है, भोग मध्यम है और नाश नीच गति है जो पुरुष न देता है, न भोगता है,
उसके धन को तीसरी गति होती है।]
मानस
में ७ + ४ = ११ विश्व विद्यालय हैं।
1.
वशिष्ट
विश्व विद्यालय
2.
विश्वामित्र
विश्व विद्यालय
3.
महर्षि
गौतम विश्व विद्यालय
4.
वाल्मीकि
विश्व विद्यालय
5.
अगत्सय
विश्व विद्यालय
6.
याज्ञवल्क
विश्व विद्यालय
7.
काक
भुषुंडी विश्व विद्यालय
8.
कैलाश
विश्व विद्यालय
9.
तिर्थराज
प्रयाग विश्व विद्यालय
10. निलगिरि पर्वत विश्व विद्यालय
11. गोस्वामी तुलसीदासजी विश्व विद्यालय
विद्यालय
में वैश्विक विद्या का आदान प्रदान होता हैं।
मानस
वैराग्य का विश्व विद्यालय हैं।
मानस
सदग्रंथ हैं और सदगुरु भी हैं।
सदगुर ग्यान बिराग जोग
के। बिबुध बैद भव भीम रोग के॥
जननि जनक सिय राम प्रेम
के। बीज सकल ब्रत धरम नेम के॥2॥
ज्ञान,
वैराग्य और योग के लिए सद्गुरु हैं और संसार रूपी भयंकर रोग का नाश करने के लिए देवताओं
के वैद्य (अश्विनीकुमार) के समान हैं। ये श्री सीतारामजी के प्रेम के उत्पन्न करने
के लिए माता-पिता हैं और सम्पूर्ण व्रत, धर्म और नियमों के बीज हैं॥2॥
बोध
और विरोध एक साथ नहीं रह शकते हैं।
जब
हमें दुसरा वंदनीय न दिखाई दे तो समज लो कि
हमारी आंख पवित्र नहीं हुई हैं।
परस्पर
हरि दर्शन करने से राग द्वेष मीट जायेगा।
प्राण
हनुमानजी दे शकते हैं।
Sunday, 13/08/2023
वृंदावन
प्रेम की युनिवर्सिटी हैं।
चित्रकुट
सत्य की युनिवर्सिटि हैं।
कैलाश
करुणा की युनिवर्सिटि हैं।
तलगाजरडा
भी युनिवर्सिटि हैं जहां सत्य, प्रेम, करुणा, आश्रय और अश्रु हैं।
Cambridge
६ विद्या – विज्ञान का कोर्ष था।
1.
कला
विज्ञान
2.
धैविक
विज्ञान
3.
Clinical
Medicines
4.
मानवता
विज्ञान, सामाजिक विज्ञान
5.
भौतिक
विज्ञान
6.
Technology
विद्या
राम चरित मानस विश्व विद्यालय के कुलपति
रघुपति राम हैं।
राम
पुरे जगत का शरण हैं।
सत्य,
प्रेम करुणा को कोई नष्ट नहीं कर शकता हैं, लेकिन दबाया जा शकता हैं।
सुरज
को कोई नाश नहीं कर शकता हैं, लेकिन बादल, अंधकार, बहुत उडती मिट्टि दबा शकती हैं।
अंधेरा
क्रोध हैं, क्रोध आनेसे सत्य दिखाई नहीं देता हैं। क्रोध लंबा नहीं रह शकता हैं।
ज्ञानविज्ञानतृप्तात्मा
कूटस्थो विजितेन्द्रियः।
युक्त इत्युच्यते योगी
समलोष्टाश्मकाञ्चनः।।6.8।।
।।6.8।।
जिसका अन्तःकरण ज्ञान-विज्ञानसे तृप्त है, जो कूटकी तरह निर्विकार है, जितेन्द्रिय
है और मिट्टीके ढेले, पत्थर तथा स्वर्णमें समबुद्धिवाला है -- ऐसा योगी युक्त (योगारूढ़)
कहा जाता है।
।।6.8।।
जो योगी ज्ञान और विज्ञान से तृप्त है, जो विकार रहित (कूटस्थ) और जितेन्द्रिय है,
जिसको मिट्टी, पाषाण और कंचन समान है, वह (परमात्मा से) युक्त कहलाता है।।
तॄप्ति
के प्रकार
१
आहार
– भोजन की तॄप्ति मिलनी चाहिये, हमारा आहार शक्ति वर्धक, स्वादु और रुचिकर होना चाहिये।
आहार समयसर मिलना चाहिये।
२
वासना
तॄप्ति
३
धन
तॄप्ति
४
ईच्छा
तॄप्ति
५
ज्ञान
विज्ञान की तॄप्ति
राम
कथा काल को बदल देती हैं। कथा हमें कलियुग से बाहर निकालकर त्रेता युग मे ले जाती हैं।
मानस
में महा मंत्र हैं, लेकिन महा पात्र नहीं हैं।
महामंत्र जोइ जपत महेसू।
कासीं मुकुति हेतु उपदेसू॥
महिमा जासु जान गनराऊ।
प्रथम पूजिअत नाम प्रभाऊ॥2॥
जो
महामंत्र है, जिसे महेश्वर श्री शिवजी जपते हैं और उनके द्वारा जिसका उपदेश काशी में
मुक्ति का कारण है तथा जिसकी महिमा को गणेशजी जानते हैं, जो इस 'राम' नाम के प्रभाव
से ही सबसे पहले पूजे जाते हैं॥2॥
बंदउँ लछिमन पद जल जाता।
सीतल सुभग भगत सुख दाता॥
रघुपति कीरति बिमल पताका।
दंड समान भयउ जस जाका॥3॥
मैं
श्री लक्ष्मणजी के चरण कमलों को प्रणाम करता हूँ, जो शीतल सुंदर और भक्तों को सुख देने
वाले हैं। श्री रघुनाथजी की कीर्ति रूपी विमल पताका में जिनका (लक्ष्मणजी का) यश (पताका
को ऊँचा करके फहराने वाले) दंड के समान हुआ॥3॥
मानस
में दंडक लक्ष्मण हैं।
साधु
संत के तुम्ह रखवारे
हनुमानजी
रक्षक हैं।
तुलसीदासजी
रजीस्टार हैं।
मानस
युनिवर्सिटि मे नव दिन का कोर्ष हैं।
बालकांड
का सूत्र छल मुक्त जीवन हैं।
हृदयँ
सराहत सीय लोनाई। गुर समीप गवने दोउ भाई॥
राम
कहा सबु कौसिक पाहीं। सरल सुभाउ छुअत छल नाहीं॥1॥
हृदय
में सीताजी के सौंदर्य की सराहना करते हुए दोनों भाई गुरुजी के पास गए। श्री रामचन्द्रजी
ने विश्वामित्र से सब कुछ कह दिया, क्योंकि उनका सरल स्वभाव है, छल तो उसे छूता भी
नहीं है॥1॥
मैं नारि अपावन प्रभु जग
पावन रावन रिपु जन सुखदाई।
अयोध्याकांड
निर्लेप जीवन की शीख देता हैं।
अरण्यकांड
की शीख निर्भय होना हैं। सत्य के बिना निर्भयता नहीं आती हैं।
निरंतर
सतसंग करने से निर्भयता आती हैं।
किष्किन्धाकांड
की शीख निस्पक्ष हैं।
सुंदरकांड
की शीख निर्णय हैं।
लंकाकांड
की शीख निर्द्वंद हैं।
एसे
राम हैं दुःख हरन
उत्तरकांड
की शीख निस्चिंत हैं।
Monday, 14/08/203
कभी
कभी व्यास पीठ विष पीठ हो जाती हैं।
ન ધરા સુધી ; ન ગગન સુધી
;
ન તો ઉન્નતિ કે પતન સુધી;
આપણે તો જવું હતું ………
બસ એક મેક ના મન સુધી……..
………..ગની દહીંવાલા
अमल अचल मन त्रोन समाना।
सम जम नियम सिलीमुख नाना॥
कवच अभेद बिप्र गुर पूजा। एहि सम बिजय उपाय न दूजा॥5॥
निर्मल
(पापरहित) और अचल (स्थिर) मन तरकस के समान है। शम (मन का वश में होना), (अहिंसादि)
यम और (शौचादि) नियम- ये बहुत से बाण हैं। ब्राह्मणों और गुरु का पूजन अभेद्य कवच है।
इसके समान विजय का दूसरा उपाय नहीं है॥5॥
गुरु
मुख से परमात्मा हमारे साथ बात करता हैं।
बुद्ध
पुरुष कभी देर से नहीं मिलता हैं, वह तो हमारे पास हि होता हैं, और वक्त आने पर हमारे
साथ बोलता हैं।
पुरुषार्थ
हि भैरव हैं।
शंकर सुवन केसरी नंदन
तेज प्रताप महा जग वंदन
कायर
हंमेशा पीठ पर हि हुमला करता हैं।
शौर्य,
सौंदर्य और औदार्य जरुरी हैं।
वक्ता
की आंख राम जैसी होनी चाहिये, जागृति लक्ष्मण जैसी, चित भरत – साधु जैसी, सहनशीलता
सीता जैसी और ह्मदय हनुमान जैसा होना चाहिये।
गुरुका
स्वभाव जान लो तो पुरी दुनिया समज मे आ जायेगी।
4
Tuesday, 15/08/2023
हनुमानजी
का विषय और परीक्षा ….
जब
राष्ट्र पर राग हैं तो वह राग अनुराग हैं।
अपने
बुद्ध पुरुष के साथ राग रखना अच्छा हैं।
पति
को अपनी पत्नी के साथ राग होना चाहिये।
राग
सही स्थान अनुराग हाइं और ऐसा एआग अच्छा हैं।
अनुराग
प्रतिक्षण वर्धमान होता हैं।
दिल
को रुचीकर करे वह रुचा हैं, विकार नहीं हैं।
हनुमानजी
का जो आश्रय करेगा उस के पंच क्लेश मीट जायेगा।
पंच
विकार
1.
अविद्या
– हमको जो उलटा दिखाता हैं वह अविद्या हैं।
2.
अस्मिता
– गौरव
3.
राग
4.
द्वेष
5.
सादगी भी गौरव होता हैं।
गौरव
जब बोज बने तो उसे छोड देना चाहिये। ऐसा गौरव क्लेश हैं।
परम
सत्य, परम प्रेम और परम करुणा यह तीन में कभी भी पीछेहठ नहीं करनी चाहिये।
गौरव
का बोज नही होना चाहिये।
राग
द्बेष
अपार्कषण
सफळता
मिलने पर अभिमान नहीं आना चाहिये।
हनुमानजी
के पंच ,मुख हैं, वराह, हैग्रिव, वानर, नृसिंह और गरुड।
परमात्मा
की सर्व श्रेष्ठ कॄति मानव हैं।
प्राण
संकट, धर्म संकट, राष्ट्र संकर, पारिवारिक संकट और विश्व संकट – यह पांच संकट हैं।
आचार्य
विद्या दाता, अभय दाता, आश्रय दाता और शास्त्र दाता होना चाहिये।
Wednesday, 16/08/2023
जो
किसीको कभी भी बाधक न बने वह साधक हैं।
जो
निलकंठ हैं वही हि सदा प्रसन्न रह शकता हैं।
कैलासवासी
शंकर कुलपति हैं।
परम
साधु दीक्षा नहीं देता हैं लेकिन दिशा देता हैं।
रामचरितमानस एहि नामा।
सुनत श्रवन पाइअ बिश्रामा॥
मन करि बिषय अनल बन जरई।
होई सुखी जौं एहिं सर परई॥4॥
इसका
नाम रामचरित मानस है, जिसके कानों से सुनते ही शांति मिलती है। मन रूपी हाथी विषय रूपी
दावानल में जल रहा है, वह यदि इस रामचरित मानस रूपी सरोवर में आ पड़े तो सुखी हो जाए॥4॥
पर्वत
एक तिनके को अपने शिर पर रखता हैं।
अभिवादनशीलस्य नित्यं वृद्धोपसेविनः।
चत्वारि तस्य वर्धन्ते
आयुर्विद्या यशो बलम।।
हिंदी
अर्थ - जो व्यक्ति सुशील और विनम्र होते हैं,
बड़ों का अभिवादन व सम्मान करने वाले होते हैं तथा अपने बुजुर्गों की सेवा करने वाले
होते हैं। उनकी आयु, विद्या, कीर्ति और बल इन चारों में वृद्धि होती है।
समस्या
के चार कारण – केन्द्र बिंदु हैं।
1.
काल
– समय
2.
कर्म
– अच्छा बुरा कर्म का प्रेरक होता हैं और प्रेरक पवित्र होना चाहिये।
3.
गुण
4.
स्वभाव
अच्छा
श्रोता अच्छा वक्ता बन शकता हैं।
प्रार्थना
और पुकार में फर्क हैं।
राम राज नभगेस सुनु सचराचर
जग माहिं।
काल कर्म सुभाव गुन कृत दुख काहुहि नाहिं।।21।।
[काकभुशुण्डिजी
कहते हैं-] हे पक्षिराज गरुड़जी ! सुनिये ! श्रीरामजी के राज्य में जड़, चेतन सारे
जगत् में काल, कर्म, स्वभाव और गुणों से उत्पन्न हुए दुःख किसी को भी नहीं होते (अर्थात्
इनके बन्धन में कोई नहीं है)।।21।।
धैर्य,
विवेक, आश्रय
वैष्णवो
का हनुमान चालीसा यमुनाष्टक हैं।
मंदिर
में पवित्र – स्नान करने के बाद जाया जाता हैं जब कि सरोवर में पवित्र होने के लिये
जाया जाता हैं।
मंदिर
में पूजारी होता हैं और कभी कभी धक्कामुकी के कारण किसी की मृत्यु भी हो जाती हैं।
मान सरोवर में कोई डुबता नहीं हैं।
राम
चरित मानस युनिवर्सिटी में पांच वस्तु होती हैं।
विश्व
विद्यालय के आचार्य में तमाम विषयका पूर्णतह विद्या विद्यमान होती हैं, जो सभी विषयो
को पढा शके ऐसी क्षमता होती हैं।
शिव
जो कुलपति हैं, उसमें यह पांच वस्तु होती हैं।
1 विचार
पुरुष – विचारो के साथ साथ विस्वास भी होना चाहिये।
शिव में विचार और विस्वास दोंनो हैं।
पुर रखवारे देखि बहु कपि
मन कीन्ह बिचार।
अति लघु रूप धरों निसि
नगर करौं पइसार॥3॥
नगर
के बहुसंख्यक रखवालों को देखकर हनुमान्जी ने मन में विचार किया कि अत्यंत छोटा रूप
धरूँ और रात के समय नगर में प्रवेश करूँ॥3॥
2 भाव
पुरुष
3 वेद
पुरुष – आचार्य वेद पुरुष होना चाहिये, भगवान शंकर वेदस्वरुपम् हैं।
4 ओमकार
पुरुष
5 विश्व
पुरुष – वैश्विक विचार होना चाहिये।
ईच्छा
हि अशांति देती हैं।
6
Thursday, 17/08/2023
आरती श्री रामायण जी की
। कीरति कलित ललित सिय पी की ॥
गावत ब्रहमादिक मुनि नारद
। बाल्मीकि बिग्यान बिसारद ॥
शुक सनकादिक शेष अरु शारद
। बरनि पवनसुत कीरति नीकी ॥
॥ आरती श्री रामायण जी
की..॥
गावत बेद पुरान अष्टदस
। छओं शास्त्र सब ग्रंथन को रस ॥
मुनि जन धन संतान को सरबस
। सार अंश सम्मत सब ही की ॥
॥ आरती श्री रामायण जी
की..॥
गावत संतत शंभु भवानी ।
अरु घटसंभव मुनि बिग्यानी ॥
ब्यास आदि कबिबर्ज बखानी
। कागभुशुंडि गरुड़ के ही की ॥
॥ आरती श्री रामायण जी
की..॥
कलिमल हरनि बिषय रस फीकी
। सुभग सिंगार मुक्ति जुबती की ॥
दलनि रोग भव मूरि अमी की
। तात मातु सब बिधि तुलसी की ॥
आरती श्री रामायण जी की
। कीरति कलित ललित सिय पी की ॥
श्रद्धा
से मानस गानेसे रोग मीट जाते हैं।
देह
द्रष्टि, देव द्रष्टि और महादेव द्रष्टि से मानस का पाठ हो शकता हैं।
हमारे
शास्त्र संगीतमय हैं।
वाल्मीकि
युनिवर्सिटी में नर्तन, गायन और वादक का विभाग हैं।
रामकथा सुंदर कर तारी।
संसय बिहग उड़ावनिहारी॥
रामकथा कलि बिटप कुठारी।
सादर सुनु गिरिराजकुमारी॥1॥
श्री
रामचन्द्रजी की कथा हाथ की सुंदर ताली है, जो संदेह रूपी पक्षियों को उड़ा देती है।
फिर रामकथा कलियुग रूपी वृक्ष को काटने के लिए कुल्हाड़ी है। हे गिरिराजकुमारी! तुम
इसे आदरपूर्वक सुनो॥1॥
संशय
रुपी पंखी ताली बजाने से उड जाते हैं।
नव पल्लव फल सुमन सुहाए।
निज संपति सुर रूख लजाए॥
चातक कोकिल कीर चकोरा।
कूजत बिहग नटत कल मोरा॥3॥
नए,
पत्तों, फलों और फूलों से युक्त सुंदर वृक्ष अपनी सम्पत्ति से कल्पवृक्ष को भी लजा
रहे हैं। पपीहे, कोयल, तोते, चकोर आदि पक्षी मीठी बोली बोल रहे हैं और मोर सुंदर नृत्य
कर रहे हैं॥3॥
तत्व
और त्रिभुवन दूसरा विभाग हैं।
ईन्द्रीयो
द्वारा जाना गया जगत तीसरा विभाग हैं। ईस विभाग में ईन्द्रीयो से ज्ञान समजाना हैं।
मान,
धान और स्थान में संतोष रखना चाहिये।
प्रयोगशाला
के द्वारा विज्ञान तीसरा विभाग हैं।
ऊर्जा
की खोज वैज्ञानिक हि कर शकता हैं।
त्रिभुवनीय
विभागो का अध्यन चोथा विभाग हैं।
वेद
के साथ संवेदना होनी चाहिये।
ध्यानमें
रस होना चाहिये।
कथा
के मनोरथी धन्य हैं।
7
Friday, 18/08/2023
आज
का संवाद व्यास विश्वविद्यालय …………………
व्यास
भगवान इतना विराट हैं कि हम उनके चरन स्पर्श तक हि पहोंच शकते हैं, आलिंगन नही कर शकते
हैं।
बंदऊँ गुरु पद पदुम परागा।
सुरुचि सुबास सरस अनुरागा॥
अमिअ मूरिमय चूरन चारू।
समन सकल भव रुज परिवारू॥1॥
मैं
गुरु महाराज के चरण कमलों की रज की वन्दना करता हूँ, जो सुरुचि (सुंदर स्वाद), सुगंध
तथा अनुराग रूपी रस से पूर्ण है। वह अमर मूल (संजीवनी जड़ी) का सुंदर चूर्ण है, जो
सम्पूर्ण भव रोगों के परिवार को नाश करने वाला है॥1॥
जाकी कृपा लवलेस ते मतिमंद
तुलसीदासहूँ।
पायो परम बिश्रामु राम
समान प्रभु नाहीं कहूँ।।3।।
[परम]
सुन्दर, सुजान और कृपानिधान तथा जो अनाथों पर प्रेम करते हैं, ऐसे एक श्रीरामचन्द्रजी
ही हैं। इनके समान निष्काम (निःस्वार्थ) हित करनेवाला (सुह्रद्) और मोक्ष देनेवाला
दूसरा कौन है ? जिनकी लेशमात्र कृपासे मन्दबुद्धि तुलसीदासने भी परम शान्ति प्राप्त
कर ली, उन श्रीरामजीके समान प्रभु कहीं भी नहीं हैं।।3।।
हम
फूल का चित्र बना शकते हैं लेकिन फूल की सुगंध का चित्र नहीं बना शकते हैं।
हमारे
उपर परम तत्व की प्रतिक्रिया सिर्फ अश्रु हैं।
हरि! तुम बहुत अनुग्रह
किन्हों।
साधन-नाम बिबुध दुरलभ तनु,
मोहि कृपा करि दीन्हों॥
प्रेमी
का चित्र बना शकते हैं लेकिन प्रेम का चित्र नहीं बना शकते हैं।
दांपत्य
जीवन में पतिपत्नी साध्य होने चाहिये, साधन नहीं।
घर
में प्रेम, वात्सल्य, परस्पर विश्वास होना चाहिये।
गुरु
की मूर्ति बन शकती हैं, लेकिन गुरु कृपा की मूर्ति नहीं बन शकती हैं।
गुरु
रज का सेवन का अर्थ गुरु का स्मरण करना हैं।
भजन
के ६ दर्शन हैं।
व्यास
विश्वविद्यालय में तप, स्वाध्याय, अध्ययन हैं।व्यास विश्व विद्यालय के ६ दर्शन वेद
के ६ दर्शन हैं।
1.
स्वदर्शन
2.
समदर्शन
3.
सिद्ध
दर्शन
4.
शुद्ध
दर्शन
5.
दर्पण
दर्शन
6.
सब
में ब्रह्म दर्शन
8
Saturday, 19/08/2023
स्व
दर्शन और दर्पण दर्शन में क्या फर्क हैं?
दर्पण
दर्शन छाया दर्शन हैं, प्रतिबिंब हैं।
जब
छाया दर्शन समाप्त हो जाय तब हि स्वदर्शन होता हैं।
कैलास
विश्व विद्यालय
अयोध्या
विश्व विद्यालय
मिथिला
विश्व विद्यालय
प्रयाग
विश्व विद्यालय
वाल्मीकि
विश्व विद्यालय
चित्रकूट
विश्व विद्यालय
पंचवटी
विश्व विद्यालय
किष्किन्धाकांड
और लंकाकांड विश्व विद्यालय
निलगिरि
विश्व विद्यालय
एवरेष्ट
स्पर्धा का विषय हैं जब कि कैलास श्रद्धा का शिखर हैं।
सुर मुनि गंधर्बा मिलि
करि सर्बा गे बिरंचि के लोका।
सँग गोतनुधारी भूमि बिचारी
परम बिकल भय सोका॥
ब्रह्माँ सब जाना मन अनुमाना
मोर कछू न बसाई।
जा करि तैं दासी सो अबिनासी
हमरेउ तोर सहाई॥
तब
देवता, मुनि और गंधर्व सब मिलकर ब्रह्माजी के लोक (सत्यलोक) को गए। भय और शोक से अत्यन्त
व्याकुल बेचारी पृथ्वी भी गो का शरीर धारण किए हुए उनके साथ थी। ब्रह्माजी सब जान गए।
उन्होंने मन में अनुमान किया कि इसमें मेरा कुछ भी वश नहीं चलने का। (तब उन्होंने पृथ्वी
से कहा कि-) जिसकी तू दासी है, वही अविनाशी हमारा और तुम्हारा दोनों का सहायक है॥
अयोध्या
विश्व विद्यालय का कुलपति वशिष्ट हैं जिस में ५ खंड हैं - गर्भ खंड, वर्ग खंड, कर्म खंड, धर्म खंड और आध्यात्म
खंड हैं।
मंत्र महामनि बिषय ब्याल
के। मेटत कठिन कुअंक भाल के॥
हरन मोह तम दिनकर कर से।
सेवक सालि पाल जलधर से॥5॥
विषय
रूपी साँप का जहर उतारने के लिए मन्त्र और महामणि हैं। ये ललाट पर लिखे हुए कठिनता
से मिटने वाले बुरे लेखों (मंद प्रारब्ध) को मिटा देने वाले हैं। अज्ञान रूपी अन्धकार
को हरण करने के लिए सूर्य किरणों के समान और सेवक रूपी धान के पालन करने में मेघ के
समान हैं॥5॥
मिथिला
वेदांत की युनिवर्सिटि हैं।
जनक
महाराज प्रेम में दिक्षित हो जाते हैं।
तिर्थराज
प्रयाग विश्व विद्यालय में मांग और मार्ग दर्शन हैं।
परम
प्रेम तापस – तपस्वी हैं, एक तपस्या हैं।
तेहि अवसर एक तापसु आवा। तेजपुंज
लघुबयस सुहावा॥
कबि अलखित गति बेषु बिरागी। मन क्रम बचन राम अनुरागी॥4॥
उसी अवसर पर वहाँ एक तपस्वी
आया, जो तेज का पुंज, छोटी अवस्था
का और सुंदर था। उसकी गति कवि नहीं जानते
(अथवा वह कवि था जो अपना परिचय नहीं देना चाहता)। वह वैरागी के वेष में था और मन, वचन तथा कर्म से श्री रामचन्द्रजी का प्रेमी था॥4॥
यमुना
प्रेम का प्रवाह हैं।
राम सप्रेम
पुलकि उर लावा। परम रंक जनु पारसु पावा॥
मनहुँ प्रेमु
परमारथु दोऊ। मिलत धरें तन कह सबु कोऊ॥1॥
श्री रामजी ने प्रेमपूर्वक
पुलकित होकर उसको हृदय से लगा लिया।
(उसे इतना आनंद हुआ) मानो कोई महादरिद्री
मनुष्य पारस पा गया हो। सब कोई (देखने वाले) कहने लगे कि मानो प्रेम और परमार्थ (परम तत्व) दोनों शरीर धारण करके मिल रहे हैं॥1॥
अरथ न धरम न काम रुचि गति न चहउँ निरबान।
जनम-जनम रति राम पद यह बरदानु
न आन॥204॥
मुझे न अर्थ की रुचि (इच्छा)
है, न धर्म की, न काम की और न मैं मोक्ष ही चाहता हूँ। जन्म-जन्म
में मेरा श्री रामजी के चरणों में प्रेम हो, बस, यही वरदान माँगता
हूँ, दूसरा कुछ नहीं॥204॥
चित्रकूट
विश्व विद्यालय
चित्रकूट
अति विचित्र ………..
सुनहु राम अब कहउँ निकेता। जहाँ बसहु सिय लखन समेता॥
जिन्ह के श्रवन समुद्र
समाना। कथा तुम्हारि
सुभग सरि नाना॥2॥
हे रामजी!
सुनिए, अब मैं वे स्थान बताता हूँ, जहाँ आप, सीताजी और लक्ष्मणजी समेत निवास कीजिए।
जिनके कान समुद्र
की भाँति आपकी सुंदर कथा रूपी अनेक सुंदर नदियों
से-॥2॥
किष्किन्धा
मैत्री की युनिवर्सिटि हैं।
लंका
विश्व विद्यालय में मार्गदर्शन हैं।
निलगिरि
विश्व विद्यालय में गरुड के सात प्रश्नो का उत्तर हैं।
9
Sundy, 20/08/2023
यह विश्व एक विश्व विद्यालय हैं, मंदिर
हैं।
परमात्मा विश्व हैं।
कथा के वक्ता का विश्व विद्यालय कथा गान
हैं।
कलाकार के लिये उसकी कला विश्व विद्यालय
हैं।
कला एक साधना हैं।
बिस्वास
एक राम - नामको ।
मानत
नहिं परतीति अनत ऐसोइ सुभाव मन बामको ॥१॥
मुझे तो एक राम - नामका ही विश्वास है
। मेरे कुटिल मनका कुछ ऐसा ही स्वभाव है कि वह और कहीं विश्वास ही नहीं करता ॥१॥
विश्व हि विद्यालय हैं।
आंसु और आश्रय दो डिग्री हैं।
वक्ता के देखाव मत पकडो लेकिन उसके वकतव्य
को पकडो।
सत्य को हार जीत नहीं होती हैं। सत्य
विशेष्ण मुक्त हैं। सत्य सदा के लिये सत्य हि रहता हैं।
राम कथा मनुष्य बनानेकी एक प्रक्रिया
हैं।
वेदाध्यापन
के बाद गुरु द्वारा अपने शिष्यों को सम्यग् आचरण की शिक्षा दी जाती है । उसी अनुवाक
के आंरभ के दो मंत्र ये हैं:
वेदमनूच्याचार्योऽन्तेवासिनमनुशास्ति
।
सत्यं वद । धर्मं चर ।
स्वाध्यायान्मा प्रमदः ।
आचार्याय प्रियं धनमाहृत्य
प्रजानन्तुं मा व्यवच्छेसीः ।
सत्यान्न प्रमदितव्यम्
। धर्मान्न प्रमदितव्यम् ।
कुशलान्न प्रमदितव्यम्
। भूत्यै न प्रमदितव्यम् ।
स्वाध्यायप्रवचनाभ्यां
न प्रमदितव्यम् ।।
तैत्तिरीय उपनिषद्, शिक्षावल्ली, अनुवाक
११, मंत्र १
वेद
के शिक्षण के पश्चात् आचार्य आश्रमस्थ शिष्यों को अनुशासन सिखाता है । सत्य बोलो ।
धर्मसम्मत कर्म करो । स्वाध्याय के प्रति प्रमाद मत करो । आचार्य को जो अभीष्ट हो वह
धन (भिक्षा से) लाओ और संतान-परंपरा का छेदन न करो (यानी गृहस्थ बनकर संतानोत्पत्ति
कर पितृऋण से मुक्त होओ) । सत्य के प्रति प्रमाद (भूल) न होवे, अर्थात् सत्य से मुख
न मोड़ो । धर्म से विमुख नहीं होना चाहिए । अपनी कुशल बनी रहे ऐसे कार्यों की अवहेलना
न की जाए । ऐश्वर्य प्रदान करने वाले मंगल कर्मों से विरत नहीं होना चाहिए । स्वाध्याय
तथा प्रवचन कार्य की अवहेलना न होवे ।
देवपितृकार्याभ्यां न प्रमदितव्यम्
।
मातृदेवो भव । पितृदेवो
भव ।
आचार्यदेवो भव ।
अतिथिदेवो भव ।
यान्यनवद्यानि कर्माणि
।
तानि सेवितव्यानि ।
नो इतराणि । यान्यस्माकं
सुचरितानि । तानि त्वयोपास्यानि ।।
तैत्तिरीय
उपनिषद्, शिक्षावल्ली, अनुवाक ११, मंत्र २
देवकार्य
तथा पितृकार्य से प्रमाद नहीं किया जाना चाहिए । (कदाचित् इस कथन का आशय देवों की उपासना
और माता-पिता आदि के प्रति श्रद्धा तथा कर्तव्य से है ।) माता को देव तुल्य मानने वाला
बनो (मातृदेव = माता है देवता तुल्य जिसके लिए) । पिता को देव तुल्य मानने वाला बनो
। आचार्य को देव तुल्य मानने वाला बनो । अतिथि को देव तुल्य मानने वाला बनो । अर्थात्
इन सभी के प्रति देवता के समान श्रद्धा, सम्मान और सेवाभाव का आचरण करे । जो अनिन्द्य
कर्म हैं उन्हीं का सेवन किया जाना चाहिए, अन्य का नहीं । हमारे जो-जो कर्म अच्छे आचरण
के द्योतक हों केवल उन्हीं की उपासना की जानी चाहिए; उन्हीं को संपन्न किया जाना चाहिए
। (अवद्य = जिसका कथन न किया जा सके, जो गर्हित हो, प्रशंसा योग्य न हो ।)संकेत है
कि गुरुजनों का आचरण सदैव अनुकरणीय हो ऐसा नहीं है । अपने विवेक के द्वारा व्यक्ति
क्या करणीय है और क्या नहीं इसका निर्णय करे और तदनुसार व्यवहार करे ।
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