Translate

Search This Blog

Tuesday, December 13, 2016

ગીતા મહાત્મ્ય

ગીતા મહાત્મ્ય



यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत।

अभ्युत्थानमधर्मस्य तदाऽऽत्मानं सृजाम्यहम्।।


परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम् ।


धर्मसंस्थापनार्थाय सम्भवामि युगे युगे ॥ 


*****

गीता गंगा च गायत्री सीता सत्या सरस्वती।
ब्रह्मविद्या ब्रह्मवल्ली त्रिसंध्या मुक्तगेहिनी।।३०।।
अर्धमात्रा चिदानन्दा भवघ्नी भयनाशिनी।
वेदत्रयी पराऽनन्ता तत्त्वार्थज्ञानमंजरी।।३१।।
इत्येतानि जपेन्नित्यं नरो निश्चलमानसः।
ज्ञानसिद्धिं लभेच्छीघ्रं तथान्ते परमं पदम्।।३२।।

गीता, गंगा, गायत्री, सीता, सत्या, सरस्वती, ब्रह्मविद्या, ब्रह्मवल्ली, त्रिसंध्या, मुक्तगेहिनी, अर्धमात्रा, चिदानन्दा, भवघ्नी, भयनाशिनी, वेदत्रयी, परा, अनन्ता और तत्त्वार्थज्ञानमंजरी (तत्त्वरूपी अर्थ के ज्ञान का भंडार) इस प्रकार (गीता के) अठारह नामों का स्थिर मन से जो मनुष्य नित्य जप करता है वह शीघ्र ज्ञानसिद्धि और अंत में परम पद को प्राप्त होता है। (३०,३१,३२)

ગીતાગ‌‌ઽગા ચ ગાયત્રી સીતા સત્યા સરસ્વતી,
બ્રહ્મવિદ્યા બ્રહ્મવલ્લી ત્રિસંધ્યા મુક્તગેહિની.  ૩૦
અર્ધમાત્રા ચિદાનન્દા ભવઘ્ની ભયનાશિની,
વેદત્રયી પરાઽનન્તા તત્ત્વાર્થજ્ઞાનમંજરી.  ૩૧
ઈત્યેતાનિ જપેન્નિત્યં નરો નિશ્ચલમાનસઃ,
જ્ઞાનસિદ્ધિં લભેચ્છીઘ્રં તથાન્તે પરમં પદમ્‌. ૩૨

ગીતા, ગંગા, ગાયત્રી, સીતા, સત્યા, સરસ્વતી, બ્રહ્મવિદ્યા, બ્રહ્મવલ્લી, ત્રિસંધ્યા, મુક્તગેહિની, અર્ધમાત્રા, ચિદાનંદા, ભવઘ્ની, ભયનાશિની, વેદત્રયી, પરા, અનંતા અને તત્ત્વાર્થજ્ઞાનમંજરી (તત્ત્વરૂપી અર્થના જ્ઞાનનો બંડાર) એમ આ (ગીતાનાં) અઢાર નામોનો સ્થિર મનથી જે મનુષ્ય નિત્ય જાપ કરે છે, તે જલદી જ્ઞાનસિદ્ધિ તથા છેવટે પરમ પદને પામે છે. ૩૦, ૩૧, ૩૨


श्रेयान्स्वधर्मो विगुणः परधर्मात्स्वनुष्ठितात्।

स्वधर्मे निधनं श्रेयः परधर्मो भयावहः।।3.35।।

अच्छी तरह आचरणमें लाये हुए दूसरेके धर्मसे गुणोंकी कमीवाला अपना धर्म श्रेष्ठ है। अपने धर्ममें तो मरना भी कल्याणकारक है और दूसरेका धर्म भयको देनेवाला है।


Hindi Translation Of Sri Shankaracharya's Sanskrit Commentary By Sri Harikrishnadas Goenka


।।3.35।।रागद्वेषयुक्त मनुष्य तो शास्त्रके अर्थको भी उलटा मान लेता है और परधर्मको भी धर्म होनेके नाते अनुष्ठान करनेयोग्य मान बैठता है। परंतु उसका ऐसा मानना भूल है अच्छी प्रकार अनुष्ठान किये गये अर्थात् अंगप्रत्यंगोंसहित सम्पादन किये गये भी परधर्मकी अपेक्षा गुणरहित भी अनुष्ठान किया हुआ अपना धर्म कल्याणकर है अर्थात् अधिक प्रशंसनीय है। परधर्ममें स्थित पुरुषके जीवनकी अपेक्षा स्वधर्ममें स्थित पुरुषका मरण भी श्रेष्ठ है क्योंकि दूसरेका धर्म भयदायक है नरक आदि रूप भयका देनेवाला है।



सहजं कर्म कौन्तेय सदोषमपि न त्यजेत्‌।
सर्वारम्भा हि दोषेण धूमेनाग्निरिवावृताः॥


  • अतएव हे कुन्तीपुत्र! दोषयुक्त होने पर भी सहज कर्म (प्रकृति के अनुसार शास्त्र विधि से नियत किए हुए वर्णाश्रम के धर्म और सामान्य धर्मरूप स्वाभाविक कर्म हैं उनको ही यहाँ स्वधर्म, सहज कर्म, स्वकर्म, नियत कर्म, स्वभावज कर्म, स्वभावनियत कर्म इत्यादि नामों से कहा है) को नहीं त्यागना चाहिए, क्योंकि धूएँ से अग्नि की भाँति सभी कर्म किसी-न-किसी दोष से युक्त हैं ॥48॥


  • हे कुन्तीनन्दन दोषयुक्त होनेपर भी सहज कर्मका त्याग नहीं करना चाहिये क्योंकि सम्पूर्ण कर्म धुएँसे अग्निकी तरह किसीनकिसी दोषसे युक्त हैं।




  • Hindi Translation Of Sri Shankaracharya's Sanskrit Commentary By Sri Harikrishnadas Goenka





।।18.48।।उपर्युक्त श्लोकमें यह बात कही कि स्वभावनियत कर्मोंको करनेवाला मनुष्य? विषमें जन्मे हुए कीड़ेकी भाँति पापको प्राप्त नहीं होता? तथा ( तीसरे अध्यायमें ) यह भी कहा है कि दूसरेका धर्म भयावह है और कोई भी अज्ञानी बिना कर्म किये क्षणभर भी नहीं रह सकता। इसलिये --, जो जन्मके साथ उत्पन्न हो उसका नाम सहज है। वह क्या है कर्म। हे कौन्तेय त्रिगुणमय होनेके कारण जो दोषयुक्त है? ऐसे दोषयुक्त भी अपने सहजकर्मको नहीं छोड़ना चाहिये। क्योंकि सभी आरम्भजो आरम्भ किये जाते हैं उनका नाम आरम्भ है? अतः यहाँ प्रकरणके अनुसार सर्वारम्भका तात्पर्य समस्त कर्म है। सा स्वधर्म या परधर्मरूप जो कुछ भी कर्म है? वे सभी तीनों गुणोंके कार्य हैं। अतः त्रिगुणात्मक होनेके कारण? साथ जन्मे हुए धुएँसे अग्निकी भाँति दोषसे आवृत हैं। अभिप्राय यह है कि स्वधर्म नामक सहजकर्मका परित्याग करनेसे और परधर्मका ग्रहण करनेसे भी? दोषसे छुटकारा नहीं हो सकता और परधर्म भयावह भी है तथा अज्ञानीद्वारा सम्पूर्ण कर्मोंका पूर्णतया त्याग होना सम्भव भी नहीं है सुतरां सहजकर्मको नहीं छोड़ना चाहिये। ( यहाँ यह विचार करना चाहिये कि ) क्या कर्मोंका अशेषतः त्याग होना असम्भव है? इसलिये उनका त्याग नहीं करना चाहिये? अथवा सहज कर्मका त्याग करनेमें दोष है इसलिये पू0 -- इसमें क्या सिद्ध होगा उ0 -- यदि यह बात हो कि अशेषतः त्याग होना अशक्य है? इसलिये सहजकर्मोंका त्याग नहीं करना चाहिये? तब तो यही सिद्ध होगा कि कर्मोंका अशेषतः त्याग करनेमें गुण ही है। पू0 -- यह ठीक है? परंतु यदि कर्मोंका पूर्णतया त्याग हो ही नहीं सकता ( तो फिर गुणदोषकी बात ही क्या है ) उ0 -- तो क्या सांख्यवादियोंके गुणोंकी भाँति आत्मा सदा चलनस्वभाववाला है अथवा बौद्धमतावलम्बियोंके प्रतिक्षणमें नष्ट होनेवाले ( रूप? वेदना? विज्ञान? संज्ञा और संस्काररूप ) पञ्च स्कन्धोंकी भाँति क्रिया ही कारक है इन दोनों ही प्रकारोंसे कर्मोंका अशेषतः त्याग नहीं हो सकता। हाँ? तीसरा एक पक्ष और भी है कि जब आत्मा कर्म करता है तब तो वह सक्रिय होता है और जब कर्म नहीं करता? तब वही निष्क्रिय होता है? ऐसा मान लेनेसे कर्मोंका अशेषतः त्याग भी हो सकता है। इस तीसरे पक्षमें यह विशेषता है? कि न तो आत्मा नित्य चलनस्वभाववाला माना गया है? और न क्रियाको ही कारक माना गया है? तो फिर क्या है? कि अपने स्वरूपमें स्थित द्रव्यमें ही अविद्यमान क्रिया उत्पन्न हो जाती है और विद्यमान क्रियाका नाश हो जाता है शुद्ध द्रव्य? क्रियाकी शक्तिसे युक्त होकर स्थित रहता है और वही कारक है। इस प्रकार वैशेषिकमतावलम्बी कहते हैं। पू0 -- इस पक्षमें क्या दोष है उ0 -- इसमें प्रधान दोष तो यही है कि यह मत भगवान्को मान्य नहीं है। पू0 -- यह कैसे जाना जाता है। उ0 -- इसीलिये कि भगवान् तो असत् वस्तुका कभी भाव नहीं होता इत्यादि वचन कहते हैं और वैशेषिकमतवादी असत्का भाव और सत्का अभाव मानते हैं। पू0 -- भगवान्का मत न होनेपर भी यदि न्याययुक्त हो तो इसमें क्या दोष है उ0 -- बतलाते हैं ( सुनो ) सब प्रमाणोंसे इस मतका विरोध होनेके कारण भी यह मत दोषयुक्त है। पू0 -- किस प्रकार उ0 -- यदि यह माना जाय कि द्व्यणुक आदि द्रव्य उत्पत्तिसे पहले अत्यन्त असत् हुए ही उत्पन्न हो जाते हैं और किञ्चित् काल स्थित रहकर फिर अत्यन्त ही असत् भावको प्राप्त हो जाते हैं? तब तो यही मानना हुआ कि असत् ही सत् हो जाता है अर्थात् अभाव भाव हो जाता है और भाव अभाव हो जाता है। अर्थात् ( यह मानना हुआ कि ) उत्पन्न होनेवाला अभाव? उत्पत्तिसे पहले शश -- श्रृङ्गकी भाँति सर्वथा असत् होता हुआ ही? समवायि? असमवायि और निमित्त नामक तीन कारणोंकी सहायतासे उत्पन्न होता है। परंतु अभाव इस प्रकार उत्पन्न होता है अथवा कारणकी अपेक्षा रखता है -- यह कहना नहीं बनता क्योंकि खरगोशके सींग आदि असत् वस्तुओंमें ऐसा नहीं देखा जाता। हाँ? यदि यह माना जाय कि उत्पन्न होनेवाले घटादि भावरूप हैं और वे अभिव्यक्तिके किसी कारणकी सहायतासे उत्पन्न होते हैं? तो यह माना जा सकता है। तथा असत्का सत् और सत्का असत् होना मान लेनेपर तो किसीका प्रमाणप्रमेयव्यवहारमें कहीं विश्वास ही नहीं रहेगा क्योंकि ऐसा मान लेनेसे फिर यह निश्चय नहीं होगा कि सत् सत् ही है और असत् असत् ही है। इसके सिवा वे उत्पन्न होता है इस वाक्यसे द्व्यणुक आदि द्रव्यका अपने कारण और सत्तासे सम्बन्ध होना बतलाते हैं अर्थात् उत्पत्तिसे पहले कार्य असत् होता है? फिर अपने कारणके व्यापारकी अपेक्षासे,( सहायतासे ) अपने कारणरूप परमाणुओंसे और सत्तासे समवायरूप सम्बन्धके द्वारा संगठित हो जाता है और संगठित होकर कारणसे मिलकर सत् हो जाता है। इसपर उनको बतलाना चाहिये कि असत्का कारण सत् कैसे हो सकता है और असत्का किसीके साथ सम्बन्ध भी कैसे हो सकता है क्योंकि वन्ध्यापुत्रकी सत्ता? उसका किसी सत् पदार्थके साथ सम्बन्ध अथवा उसका कारण? किसीके भी द्वारा प्रमाणपूर्वक सिद्ध नहीं किया जा सकता। पू0 -- वैशेषिकमतवादी अभावका सम्बन्ध नहीं मानते। वे तो भावरूप द्व्यणुक आदि द्रव्योंका ही अपने कारणके साथ समवायरूप सम्बन्ध बतलाते हैं। उ0 -- यह बात नहीं है क्योंकि ( उनके मतमें ) कार्यकारणका सम्बन्ध होनेसे पहले कार्यकी सत्ता नहीं मानी गयी। अर्थात् वैशेषिकमतावलम्बी कुम्हार और दण्डचक्र आदिकी क्रिया आरम्भ होनेसे पहले घट आदिका अस्तित्व नहीं मानते और यह भी नहीं मानते कि मिट्टीको ही घटादिके आकारकी प्राप्ति हुई है। इसलिये अन्तमें असत्का ही सम्बन्ध मानना सिद्ध होता है। पू0 -- असत्का भी समवायरूप सम्बन्ध होना विरुद्ध नहीं है। उ0 -- यह कहना ठीक नहीं क्योंकि वन्ध्यापुत्र आदिका किसीके साथ सम्बन्ध नहीं देखा जाता। अभावकी समानता होनेपर भी यदि कहो कि घटादिके प्रागभावका ही अपने कारणके साथ सम्बन्ध होता है? वन्ध्यापुत्रादिके अभावका नहीं? तो इनके अभावोंका भेद बतलाना चाहिये। एकका अभाव? दोका अभाव? सबका अभाव? प्रागभाव? प्रध्वंसाभाव? अन्योन्याभाव? अत्यन्ताभाव इन लक्षणोंसे कोई भी अभावकी विशेषता नहीं दिखला सकता। फिर किसी प्रकारकी विशेषता न होते हुए भी यह कहना कि घटका प्रागभाव ही कुम्हार आदिके द्वारा घटभावको प्राप्त होता है तथा उसका कपालनामक अपने कारणरूप भावसे सम्बन्ध होता है और वह सब व्यवहारके योग्य भी होता है। परंतु उसी घटका जो प्रध्वंसाभाव है? वह अभावत्वमें समान होनेपर भी सम्बन्धित नहीं होता। इस तरह प्रध्वंसादि अभावोंको किसी भी अवस्थामें व्यवहारके योग्य न मानना और केवल द्व्यणुक आदि द्रव्यनामक प्रागभावको ही उत्पत्ति आदि व्यवहारके योग्य मानना? असमञ्जसरूप ही है क्योंकि अत्यन्ताभाव और प्रध्वंसाभावके समान ही प्रागभावका भी अभावत्व है? उसमें कोई विशेषता नहीं है। पू0 -- हमने प्रागभावका भावरूप होना नहीं बतलाया है। उ0 -- तब तो तुमने भावका ही भावरूप हो जाना कहा है? जैसे घटका घटरूप हो जाना वस्त्रका वस्त्ररूप हो जाना परंतु यह भी अभावके भावरूप होनेकी भाँति ही प्रमाणविरुद्ध है। सांख्यमतावलम्बियोंका जो परिणामवाद है? उसमें अपूर्व धर्मकी उत्पत्ति और विनाश स्वीकार किया जानेके कारण? वह भी ( इस विषयमें ) वैशेषिकमतसे कुछ विशेषता नहीं रखता। अभिव्यक्ति ( प्रकट होना ) और तिरोभाव ( छिप जाना ) स्वीकार करनेसे भी? अभिव्यक्ति और तिरोभावकी विद्यमानता और अविद्यमानताका निरूपण करनेमें? पहलेकी भाँति ही प्रमाणसे विरोध होगा। इस विवेचनसे कारणका कार्यरूपमें स्थित होना ही उत्पत्ति आदि हैं ऐसा निरूपण करनेवाले मतका भी खण्डन हो जाता है। इन सब मतोंका खण्डन हो जानेपर अन्तमें यही सिद्ध होता है कि एक ही सत्य तत्त्व ( आत्मा ) अविद्याद्वारा नटकी भाँति उत्पत्ति? विनाश आदि धर्मोंसे अनेक रूपमें कल्पित होता है। यही भगवान्का अभिप्राय नासतो विद्यते भावः इस श्लोकमें बतलाया गया है क्योंकि सत्प्रत्ययका व्यभिचार नहीं होता और अन्य ( असत् ) प्रत्ययोंका व्यभिचार होता है ( अतः सत् ही एकमात्र तत्त्व है )। पू0 -- यदि ( भगवान्के मतमें ) आत्मा निर्विकार है तो ( वे ) यह कैसे कहते हैं कि अशेषतः कर्मोंका त्याग नहीं हो सकता उ0 -- शरीरइन्द्रियादिरूप गुण चाहे सत्य वस्तु हों? चाहे अविद्याकल्पित हों? जब कर्म उन्हींका धर्म है? तब आत्मामें तो वह अविद्याध्यारोपित ही है। इस कारण कोई भी अज्ञानी अशेषतः कर्मोंका त्याग क्षणभर भी नहीं कर सकता यह कहा गया है। परंतु विद्याद्वारा अविद्या निवृत्त हो जानेपर ज्ञानी तो कर्मोंका अशेषतः त्याग कर ही सकता है क्योंकि अविद्या नष्ट होनेके उपरान्त? अविद्यासे अध्यारोपित वस्तुका अंश बाकी नहीं रह सकता। ( यह प्रत्यक्ष ही है कि ) तिमिररोगसे विकृत हुई दृष्टिद्वारा अध्यारोपित दो चन्द्रमा आदिका कुछ भी अंश? तिमिररोग नष्ट हो जानेपर? शेष नहीं रहता। सुतरां सब कर्मोंको मनसे छोड़कर इत्यादि कथन ठीक ही हैं। तथा अपनेअपने कर्मोंमें लगे हुए मनुष्य संसिद्धिको प्राप्त होते हैं मनुष्य अपने कर्मोंसे उसकी पूजा करके सिद्धि प्राप्त करता है -- ये कथन भी ठीक हैं।


No comments:

Post a Comment