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Sunday, July 1, 2018

માનસ દસરથ - मानस दसरथ

રામ કથા

માનસ દસરથ

ROCHESTER, USA

શનિવાર, ૩૦/૦૬/૨૦૧૮ થી રવિવાર, ૦૮/૦૭/૨૦૧૮

મુખ્ય વિચાર બિંદુની પંક્તિઓ

अवधपुरीं रघुकुलमनि राऊ। 

बेद बिदित तेहि दसरथ नाऊँ॥


धरम धुरंधर गुननिधि ग्यानी। 

हृदयँ भगति भति सारँगपानी॥


अवधपुरी में रघुकुल शिरोमणि दशरथ नाम के राजा हुए, जिनका नाम वेदों में विख्यात है। वे धर्मधुरंधर, गुणों के भंडार और ज्ञानी थे। उनके हृदय में शांर्गधनुष धारण करने वाले भगवान की

भक्ति थी और उनकी बुद्धि भी उन्हीं में लगी रहती थी॥





શનિવાર, ૩૦/૦૬/૨૦૧૮




धन्य धन्य गिरिराजकुमारी। तुम्ह समान नहिं कोउ उपकारी॥3॥


पूँछेहु रघुपति कथा प्रसंगा। सकल लोक जग पावनि गंगा॥



हरि अनंत हरि कथा अनंता। कहहिं सुनहिं बहुबिधि सब संता॥


रामहि  केवल  प्रेमु  पिआरा।  जानि  लेउ  जो  जान  निहारा॥


सदगुर ग्यान बिराग जोग के। बिबुध बैद भव भीम रोग के॥



एहिं कलिकाल न साधन दूजा। जोग जग्य जप तप ब्रत पूजा।।



रामहि सुमिरिअ गाइअ रामहि। संतत सुनिअ राम गुन ग्रामहि।।3।।


जिअन  मरन  फलु  दसरथ  पावा।  अंड  अनेक  अमल  जसु  छावा॥

जिअत  राम  बिधु  बदनु  निहारा।  राम  बिरह  करि  मरनु  सँवारा॥1॥


जीने  और  मरने  का  फल  तो  दशरथजी  ने  ही  पाया,  जिनका  निर्मल  यश  अनेकों  ब्रह्मांडों  में  छा  गया।  जीते  जी  तो  श्री  रामचन्द्रजी  के  चन्द्रमा  के  समान  मुख  को  देखा  और  श्री  राम  के  विरह  को  निमित्त  बनाकर  अपना  मरण  सुधार  लिया॥1॥




શુક્રવાર, ૦૬/૦૭/૨૦૧૮

कल जिस हाथ में मैं फूल देकर आया था …….!

आज उसी के हाथ का पत्थर मेरी तलाश में है।



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तुं अमीर है और मैं गरीब हुं तो क्या हुंआ?

तेरा महल बन रहा है मेरी झोंपडीके पीछे  ॥


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बिधि  हरि  हरु  सुरपति  दिसिनाथा।  बरनहिं  सब  दसरथ  गुन  गाथा॥4॥



ब्रह्मा,  विष्णु,  शिव,  इन्द्र  और  दिक्पाल  सभी  दशरथजी  के  गुणों  की  कथाएँ  कहा  करते  हैं॥4॥



तात  बिचारु  करहु  मन  माहीं।  सोच  जोगु  दसरथु  नृपु  नाहीं॥1॥



 हे  तात!  मन  में  विचार  करो।  राजा  दशरथ  सोच  करने  के  योग्य  नहीं  हैं॥1॥



दसरथ  गुन  गन  बरनि  न  जाहीं।  अधिकु  कहा  जेहि  सम  जग  नाहीं॥4॥


 दशरथजी  के  गुण  समूहों  का  तो  वर्णन  ही  नहीं  किया  जा  सकता,  अधिक  क्या,  जिनकी  बराबरी  का  जगत  में  कोई  नहीं  है॥4॥


अवध  राजु  सुर  राजु  सिहाई।  दसरथ  धनु  सुनि  धनदु  लजाई॥3॥



 जिस  अयोध्या  के  राज्य  को  देवराज  इन्द्र  सिहाते  थे  और  (जहाँ  के  राजा)  दशरथजी  की  सम्पत्ति  सुनकर  कुबेर  भी  लजा  जाते  थे,॥3॥




अस  बिचारि  केहि  देइअ  दोसू।  ब्यरथ  काहि  पर  कीजिअ  रोसू॥

तात  बिचारु  करहु  मन  माहीं।  सोच  जोगु  दसरथु  नृपु  नाहीं॥1॥

ऐसा  विचार  कर  किसे  दोष  दिया  जाए?  और  व्यर्थ  किस  पर  क्रोध  किया  जाए?  हे  तात!  मन  में  विचार  करो।  राजा  दशरथ  सोच  करने  के  योग्य  नहीं  हैं॥1॥

सोचिअ  बिप्र  जो  बेद  बिहीना।  तजि  निज  धरमु  बिषय  लयलीना॥
सोचिअ  नृपति  जो  नीति  न  जाना।  जेहि  न  प्रजा  प्रिय  प्रान  समाना॥2॥


सोच  उस  ब्राह्मण  का  करना  चाहिए,  जो  वेद  नहीं  जानता  और  जो  अपना  धर्म  छोड़कर  विषय  भोग  में  ही  लीन  रहता  है।  उस  राजा  का  सोच  करना  चाहिए,  जो  नीति  नहीं  जानता  और  जिसको  प्रजा  प्राणों  के  समान  प्यारी  नहीं  है॥2॥

सोचिअ  बयसु  कृपन  धनवानू।  जो  न  अतिथि  सिव  भगति  सुजानू॥
सोचिअ  सूद्रु  बिप्र  अवमानी।  मुखर  मानप्रिय  ग्यान  गुमानी॥3॥

उस  वैश्य  का  सोच  करना  चाहिए,  जो  धनवान  होकर  भी  कंजूस  है  और  जो  अतिथि  सत्कार  तथा  शिवजी  की  भक्ति  करने  में  कुशल  नहीं  है।  उस  शूद्र  का  सोच  करना  चाहिए,  जो  ब्राह्मणों  का  अपमान  करने  वाला,  बहुत  बोलने  वाला,  मान-बड़ाई  चाहने  वाला  और  ज्ञान  का  घमंड  रखने  वाला  है॥3॥

सोचिअ  पुनि  पति  बंचक  नारी।  कुटिल  कलहप्रिय  इच्छाचारी॥
सोचिअ  बटु  निज  ब्रतु  परिहरई।  जो  नहिं  गुर  आयसु  अनुसरई॥4॥

पुनः  उस  स्त्री  का  सोच  करना  चाहिए  जो  पति  को  छलने  वाली,  कुटिल,  कलहप्रिय  और  स्वेच्छा  चारिणी  है।  उस  ब्रह्मचारी  का  सोच  करना  चाहिए,  जो  अपने  ब्रह्मचर्य  व्रत  को  छोड़  देता  है  और  गुरु  की  आज्ञा  के  अनुसार  नहीं  चलता॥4॥

सोचिअ  गृही  जो  मोह  बस  करइ  करम  पथ  त्याग।
सोचिअ  जती  प्रपंच  रत  बिगत  बिबेक  बिराग॥172॥

उस  गृहस्थ  का  सोच  करना  चाहिए,  जो  मोहवश  कर्म  मार्ग  का  त्याग  कर  देता  है,  उस  संन्यासी  का  सोच  करना  चाहिए,  जो  दुनिया  के  प्रपंच  में  फँसा  हुआ  और  ज्ञान-वैराग्य  से  हीन  है॥172॥ 

बैखानस  सोइ  सोचै  जोगू।  तपु  बिहाइ  जेहि  भावइ  भोगू॥
सोचिअ  पिसुन  अकारन  क्रोधी।  जननि  जनक  गुर  बंधु  बिरोधी॥1॥

वानप्रस्थ  वही  सोच  करने  योग्य  है,  जिसको  तपस्या  छोड़कर  भोग  अच्छे  लगते  हैं।  सोच  उसका  करना  चाहिए  जो  चुगलखोर  है,  बिना  ही  कारण  क्रोध  करने  वाला  है  तथा  माता,  पिता,  गुरु  एवं  भाई-बंधुओं  के  साथ  विरोध  रखने  वाला  है॥1॥

सब  बिधि  सोचिअ  पर  अपकारी।  निज  तनु  पोषक  निरदय  भारी॥
सोचनीय  सबहीं  बिधि  सोई।  जो  न  छाड़ि  छलु  हरि  जन  होई॥2॥

सब  प्रकार  से  उसका  सोच  करना  चाहिए,  जो  दूसरों  का  अनिष्ट  करता  है,  अपने  ही  शरीर  का  पोषण  करता  है  और  बड़ा  भारी  निर्दयी  है  और  वह  तो  सभी  प्रकार  से  सोच  करने  योग्य  है,  जो  छल  छोड़कर  हरि  का  भक्त  नहीं  होता॥2॥

सोचनीय  नहिं  कोसलराऊ।  भुवन  चारिदस  प्रगट  प्रभाऊ॥
भयउ  न  अहइ  न  अब  होनिहारा।  भूप  भरत  जस  पिता  तुम्हारा॥3॥


कोसलराज  दशरथजी  सोच  करने  योग्य  नहीं  हैं,  जिनका  प्रभाव  चौदहों  लोकों  में  प्रकट  है।  हे  भरत!  तुम्हारे  पिता  जैसा  राजा  तो  न  हुआ,  न  है  और  न  अब  होने  का  ही  है॥3॥











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