રામ કથા
માનસ અરણ્યકાંડ
લખનઉ (ઉત્તર પ્રદેશ)
શનિવાર, તારીખ ૨૬-૧૧-૨૦૧૬ થી રવિવાર, તારીખ ૦૪-૧૨-૨૦૧૬
મુખ્ય પંક્તિઓ
पुर नर भरत प्रीति मैं गाई।
मति अनुरूप अनूप सुहाई॥
अब प्रभु चरित सुनहु अति पावन।
करत जे बन सुर नर मुनि भावन॥
૧શનિવાર, ૨૬-૧૧-૨૦૧૬
एक बार चुनि कुसुम सुहाए।
निज कर भूषन राम बनाए॥
सीतहि पहिराए प्रभु सादर।
बैठे फटिक सिला पर सुंदर॥
पुनि लछिमन उपदेस अनूपा।
सूपनखा जिमि कीन्हि कुरूपा।।
खर दूषन बध बहुरि बखाना।
जिमि सब मरमु दसानन जाना।।
दसकंधर मारीच बतकही।
जेहि बिधि भई सो सब तेहिं कही।।
पुनि माया सीता कर हरना।
श्रीरघुबीर बिरह कछु बरना।।3।।
पुनि प्रभु गीध क्रिया जिमि कीन्ही।
बधि कबंध सबरिहि गति दीन्ही।।
बहुरि बिरह बरनत रघुबीरा।
जेहि बिधि गए सरोबर तीरा।।
प्रभु नारद संबाद कहि मारुति मिलन प्रसंग।
पुनि सुग्रीव मिताई बालि प्रान कर भंग।।
લક્ષ્મણ જીવાચાર્ય છે.
કથા સાધન નથી, સાધ્ય છે, લક્ષ્ય છે.
बिनु सतसंग बिबेक न होई। राम कृपा बिनु सुलभ न सोई॥
શાસ્ત્રને સમજવા શાણપણની જરૂર નથી પણ ભોળપણની જરૂર છે.
૨
રવિવાર, ૨૭-૧૧-૨૦૧૬
ચરિત્રવાન પાસે બેસવાથી, ચરિત્રવાન સાથે વાર્તાલાપ કરવાથી, ચરિત્રવાનનો સંગ કરવાથી, ચરિત્રવાન પાસે મૌન બેસવાથી આપણાં પાપ નાશ પામે છે, અહીં પાપ એટલે અશાંતિ, આપણી અશાંતિ દૂર થાય છે, અશાંતિની માત્રા ઓછી થાય છે.
જે શુદ્ધ છે તે સિદ્ધ છે પણ જે સિદ્ધ છે તે શુદ્ધ છે કે કેમ તે પ્રશ્નાર્થ છે.
અરણ્યકાંડનો પહેલો પ્રસંગ શ્રીંગારનો છે.
एक बार चुनि कुसुम सुहाए।
निज कर भूषन राम बनाए॥
सीतहि पहिराए प्रभु सादर।
बैठे फटिक सिला पर सुंदर॥
બીજો પ્રસંગ સીતા હરણનો છે જે વિરહનો પ્રસંગ છે.
ત્રીજો પ્રસંગ વૈરાગ્યનો છે.
પતિ પત્નીને શ્રીંગાર કરે એમાં દેહની પ્રધાનતા છે, કામની પ્રધાનતા છે.
પુરૂષ પ્રકૃતિને શ્રીંગાર કરે એમાં આમ જગતની પ્રધાનતા છે, અને આમ જગતનું પ્રાગટ્ય થાય છે.
ભગવાન ભક્તિને શ્રીગાર કરે એમાં રામનામ પ્રગટ થાય, હરિનામ પ્રગટ થાય, રામ ચરિત્ર પ્રગટ થાય.
૩
સોમવાર, ૨૮-૧૧-૨૦૧૬
પંડિત પૂજ્ય છે જ્યારે મુનિ સેવ્ય છે.
પંડિતની પૂજા કરાય જ્યારે મુનિની સેવા કરાય.
સાધુની પૂજા ન કરો પણ સેવા કરો, સંગ કરો.
પરમ જેને યાદ કરે છે એવા સાધુ સંતનો સંગ આપણને થાય તેવી માગણી ભગવાન પાસે કરો.
સાધુ બધા વર્ણોથી પર છે. સાધુ બહુંજ પવિત્ર શબ્દ છે.
સાધુ ભજનનો પર્યાય છે.
મનુષ્ય દેહ મળે એ બડ ભાગ છે પણ સાધુ સંગ મળે એ પરમ ભાગ છે.
ભગવાન ગૌરાંગ જ્યારે સંસાર ત્યાગ કરવાની આજ્ઞા તેમની માતા પાસેથી મેળવે છે ત્યારે માતા તેમને તેમની પત્નીને મળીને પછી સંસાર ત્યાગ કરવા જણાવે છે અને ગૌરાંગ જ્યારે તેમની પત્ની વુષ્ણુપ્રિયાને મળે છે ત્યારે વિષ્ણુપ્રિયા કંઈજ બોલી નથી શકતાં અને તેથી ગૌરાંગ બોલે છે અને તેનાં ૫ બિંદુ છે.
૧
ગૌરાંગ કહે છે કે, 'મને સ્મૃતિમાં રાખજે".
હરિને યાદ કરો એટલે હરિ આવે જ.
પ્રભુ મૂર્તિના રૂપમાં જાય છે પણ સ્મૃતિના રૂપમાં કાયમ સાથે જ રહે છે.
૨
ગૌરાંગ કહે છે કે, "આંખો બંધ કરી મારું દર્શન કરજે".
૩
ગૌરાંગ કહે છે કે, "દર્શન કર્યા પછી જ્યારે સ્પર્શ કરવાનું મન થાય ત્યારે મનથી મને સ્પર્શ કરજે".
૪
ગૌરાંગ કહે છે કે, "મનથી સ્પર્શ કર્યા પછી આત્મભાવથી મારામાં લીન થજે, વિલીન થજે".
૫
ગૌરાંગ કહે છે કે, " હે વિષ્ણુપ્રિયા આ બધું કર્યા પછી તને પરમ વિશ્રામ પ્રાપ્ત થશે".
અત્રિ સ્તુતિ
नमामि भक्त वत्सलं।
कृपालु शील कोमलं॥
भजामि ते पदांबुजं।
अकामिनां स्वधामदं॥1॥
निकाम श्याम सुंदरं।
भवांबुनाथ मंदरं॥
प्रफुल्ल कंज लोचनं।
मदादि दोष मोचनं॥2॥
भावार्थ:-आप नितान्त सुंदर श्याम, संसार (आवागमन) रूपी समुद्र को मथने के लिए मंदराचल रूप, फूले हुए कमल के समान नेत्रों वाले और मद आदि दोषों से छुड़ाने वाले हैं॥2॥
प्रलंब बाहु विक्रमं।
प्रभोऽप्रमेय वैभवं॥
निषंग चाप सायकं।
धरं त्रिलोक नायकं॥3॥
भावार्थ:-हे प्रभो! आपकी लंबी भुजाओं का पराक्रम और आपका ऐश्वर्य अप्रमेय (बुद्धि के परे अथवा असीम) है। आप तरकस और धनुष-बाण धारण करने वाले तीनों लोकों के स्वामी,॥3॥
दिनेश वंश मंडनं।
महेश चाप खंडनं॥
मुनींद्र संत रंजनं।
सुरारि वृंद भंजनं॥4॥
भावार्थ:-सूर्यवंश के भूषण, महादेवजी के धनुष को तोड़ने वाले, मुनिराजों और संतों को आनंद देने वाले तथा देवताओं के शत्रु असुरों के समूह का नाश करने वाले हैं॥4॥
मनोज वैरि वंदितं।
अजादि देव सेवितं॥
विशुद्ध बोध विग्रहं।
समस्त दूषणापहं॥5॥
भावार्थ:-आप कामदेव के शत्रु महादेवजी के द्वारा वंदित, ब्रह्मा आदि देवताओं से सेवित, विशुद्ध ज्ञानमय विग्रह और समस्त दोषों को नष्ट करने वाले हैं॥5॥
नमामि इंदिरा पतिं।
सुखाकरं सतां गतिं॥
भजे सशक्ति सानुजं।
शची पति प्रियानुजं॥6॥
भावार्थ:-हे लक्ष्मीपते! हे सुखों की खान और सत्पुरुषों की एकमात्र गति! मैं आपको नमस्कार करता हूँ! हे शचीपति (इन्द्र) के प्रिय छोटे भाई (वामनजी)! स्वरूपा-शक्ति श्री सीताजी और छोटे भाई लक्ष्मणजी सहित आपको मैं भजता हूँ॥6॥
त्वदंघ्रि मूल ये नराः।
भजंति हीन मत्सराः॥
पतंति नो भवार्णवे।
वितर्क वीचि संकुले॥7॥
भावार्थ:-जो मनुष्य मत्सर (डाह) रहित होकर आपके चरण कमलों का सेवन करते हैं, वे तर्क-वितर्क (अनेक प्रकार के संदेह) रूपी तरंगों से पूर्ण संसार रूपी समुद्र में नहीं गिरते (आवागमन के चक्कर में नहीं पड़ते)॥7॥
विविक्त वासिनः सदा।
भजंति मुक्तये मुदा॥
निरस्य इंद्रियादिकं।
प्रयांतिते गतिं स्वकं॥8॥
भावार्थ:-जो एकान्तवासी पुरुष मुक्ति के लिए, इन्द्रियादि का निग्रह करके (उन्हें विषयों से हटाकर) प्रसन्नतापूर्वक आपको भजते हैं, वे स्वकीय गति को (अपने स्वरूप को) प्राप्त होते हैं॥8॥
तमेकमद्भुतं प्रभुं।
निरीहमीश्वरं विभुं॥
जगद्गुरुं च शाश्वतं।
तुरीयमेव केवलं॥9॥
भावार्थ:-उन (आप) को जो एक (अद्वितीय), अद्भुत (मायिक जगत से विलक्षण), प्रभु (सर्वसमर्थ), इच्छारहित, ईश्वर (सबके स्वामी), व्यापक, जगद्गुरु, सनातन (नित्य), तुरीय (तीनों गुणों से सर्वथा परे) और केवल (अपने स्वरूप में स्थित) हैं॥9॥
भजामि भाव वल्लभं।
कुयोगिनां सुदुर्लभं॥
स्वभक्त कल्प पादपं।
समं सुसेव्यमन्वहं॥10॥
भावार्थ:-(तथा) जो भावप्रिय, कुयोगियों (विषयी पुरुषों) के लिए अत्यन्त दुर्लभ, अपने भक्तों के लिए कल्पवृक्ष (अर्थात् उनकी समस्त कामनाओं को पूर्ण करने वाले), सम (पक्षपातरहित) और सदा सुखपूर्वक सेवन करने योग्य हैं, मैं निरंतर भजता हूँ॥10॥
अनूप रूप भूपतिं।
नतोऽहमुर्विजा पतिं॥
प्रसीद मे नमामि ते।
पदाब्ज भक्ति देहि मे॥11॥
भावार्थ:-हे अनुपम सुंदर! हे पृथ्वीपति! हे जानकीनाथ! मैं आपको प्रणाम करता हूँ। मुझ पर प्रसन्न होइए, मैं आपको नमस्कार करता हूँ। मुझे अपने चरण कमलों की भक्ति दीजिए॥11॥पठंति ये स्तवं इदं। नरादरेण ते पदं॥
व्रजंति नात्र संशयं।
त्वदीय भक्ति संयुताः॥12॥
भावार्थ:-जो मनुष्य इस स्तुति को आदरपूर्वक पढ़ते हैं, वे आपकी भक्ति से युक्त होकर आपके परम पद को प्राप्त होते हैं, इसमें संदेह नहीं॥12॥
સતી અનસુયાયે સીતાને કહેલ નારી ધર્મ
दिब्य बसन भूषन पहिराए।
जे नित नूतन अमल सुहाए॥
कह रिषिबधू सरस मृदु बानी।
नारिधर्म कछु ब्याज बखानी॥2॥
भावार्थ:-और उन्हें ऐसे दिव्य वस्त्र और आभूषण पहनाए, जो नित्य-नए निर्मल और सुहावने बने रहते हैं। फिर ऋषि पत्नी उनके बहाने मधुर और कोमल वाणी से स्त्रियों के कुछ धर्म बखान कर कहने लगीं॥2॥
मातु पिता भ्राता हितकारी।
मितप्रद सब सुनु राजकुमारी॥
अमित दानि भर्ता बयदेही।
अधम सो नारि जो सेव न तेही॥3॥
भावार्थ:-हे राजकुमारी! सुनिए- माता, पिता, भाई सभी हित करने वाले हैं, परन्तु ये सब एक सीमा तक ही (सुख) देने वाले हैं, परन्तु हे जानकी! पति तो (मोक्ष रूप) असीम (सुख) देने वाला है। वह स्त्री अधम है, जो ऐसे पति की सेवा नहीं करती॥3॥
धीरज धर्म मित्र अरु नारी।
आपद काल परिखिअहिं चारी॥
बृद्ध रोगबस जड़ धनहीना।
अंध बधिर क्रोधी अति दीना॥4॥
भावार्थ:-धैर्य, धर्म, मित्र और स्त्री- इन चारों की विपत्ति के समय ही परीक्षा होती है। वृद्ध, रोगी, मूर्ख, निर्धन, अंधा, बहरा, क्रोधी और अत्यन्त ही दीन-॥4॥
ऐसेहु पति कर किएँ अपमाना।
नारि पाव जमपुर दुख नाना॥
एकइ धर्म एक ब्रत नेमा।
कायँ बचन मन पति पद प्रेमा॥5॥
भावार्थ:-ऐसे भी पति का अपमान करने से स्त्री यमपुर में भाँति-भाँति के दुःख पाती है। शरीर, वचन और मन से पति के चरणों में प्रेम करना स्त्री के लिए, बस यह एक ही धर्म है, एक ही व्रत है और एक ही नियम है॥5॥
जग पतिब्रता चारि बिधि अहहीं।
बेद पुरान संत सब कहहीं॥
उत्तम के अस बस मन माहीं।
सपनेहुँ आन पुरुष जग नाहीं॥6॥
भावार्थ:-जगत में चार प्रकार की पतिव्रताएँ हैं। वेद, पुराण और संत सब ऐसा कहते हैं कि उत्तम श्रेणी की पतिव्रता के मन में ऐसा भाव बसा रहता है कि जगत में (मेरे पति को छोड़कर) दूसरा पुरुष स्वप्न में भी नहीं है॥6॥
मध्यम परपति देखइ कैसें।
भ्राता पिता पुत्र निज जैसें॥
धर्म बिचारि समुझि कुल रहई।
सो निकिष्ट त्रिय श्रुति अस कहई॥7॥
भावार्थ:-मध्यम श्रेणी की पतिव्रता पराए पति को कैसे देखती है, जैसे वह अपना सगा भाई, पिता या पुत्र हो (अर्थात समान अवस्था वाले को वह भाई के रूप में देखती है, बड़े को पिता के रूप में और छोटे को पुत्र के रूप में देखती है।) जो धर्म को विचारकर और अपने कुल की मर्यादा समझकर बची रहती है, वह निकृष्ट (निम्न श्रेणी की) स्त्री है, ऐसा वेद कहते हैं॥7॥
बिनु अवसर भय तें रह जोई।
जानेहु अधम नारि जग सोई॥
पति बंचक परपति रति करई।
रौरव नरक कल्प सत परई॥8॥
भावार्थ:-और जो स्त्री मौका न मिलने से या भयवश पतिव्रता बनी रहती है, जगत में उसे अधम स्त्री जानना। पति को धोखा देने वाली जो स्त्री पराए पति से रति करती है, वह तो सौ कल्प तक रौरव नरक में पड़ी रहती है॥8॥
छन सुख लागि जनम सत कोटी।
दुख न समुझ तेहि सम को खोटी॥
बिनु श्रम नारि परम गति लहई।
पतिब्रत धर्म छाड़ि छल गहई॥9॥
भावार्थ:-क्षणभर के सुख के लिए जो सौ करोड़ (असंख्य) जन्मों के दुःख को नहीं समझती, उसके समान दुष्टा कौन होगी। जो स्त्री छल छोड़कर पतिव्रत धर्म को ग्रहण करती है, वह बिना ही परिश्रम परम गति को प्राप्त करती है॥9॥
पति प्रतिकूल जनम जहँ जाई।
बिधवा होइ पाइ तरुनाई॥10॥
भावार्थ:-किन्तु जो पति के प्रतिकूल चलती है, वह जहाँ भी जाकर जन्म लेती है, वहीं जवानी पाकर (भरी जवानी में) विधवा हो जाती है॥10॥
सहज अपावनि नारि पति सेवत सुभ गति लहइ।
जसु गावत श्रुति चारि अजहुँ तुलसिका हरिहि प्रिय॥5 क॥
भावार्थ:-स्त्री जन्म से ही अपवित्र है, किन्तु पति की सेवा करके वह अनायास ही शुभ गति प्राप्त कर लेती है। (पतिव्रत धर्म के कारण ही) आज भी 'तुलसीजी' भगवान को प्रिय हैं और चारों वेद उनका यश गाते हैं॥5 (क)॥
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